Disposable Single-use Plastic एकलप्रयोग प्लास्टिक – एकलप्रयोग से आशय इससे है कि एक बार ही प्रयोग करने के पश्चात उत्पाद बिना काम का हो जाये यथा प्लास्टिक के कप, प्लेट जैसे पात्र, अति तनु मोटाई के थैले, खाद्य एवं विविध पदार्थों की पैकिंग इत्यादि।
सामान्यत: हम जिसे प्लास्टिक कहते हैं वह कच्चे तेल (पेट्रोलियम) के प्रसंस्करण से उत्पन्न कचरे से निर्मित किया जाता है जिसका मुख्य घटक कार्बन होता है। यह कार्बन जैविक नहीं होता तथा इसका जीवाणुओं द्वारा अपघटन नहीं होता। अपघटन का अर्थ इससे लगायें कि पदार्थ को उसके मूल रूपों में प्राकृतिक कारक परिवर्तित कर दें जिससे कि वह लम्बे समय तक अपने परिवर्तित रूप में बना रह कर विविध समस्यायें न उत्पन्न करे। सड़ने की प्रक्रिया अपघटन ही है।
पेट्रोलियम कचरे से बने प्लास्टिक के प्रयोग के विविध सुविधाजनक आयाम हैं। यदि इसे न बनाया जाय तो हानिकारक कचरे से मुक्ति पाने का एक बड़ा उपाय तिरोहित हो जाय। प्लास्टिक सुघट्यता अर्थात सरलता से विविध रूपों में ढलने, जलरोधी होने, शक्तिवान होने, दीर्घायु होने तथा प्रयोग में भी सुविधाजनक होने के कारण वैश्विक स्तर पर बहुत ही लोकप्रिय है। इसका वार्षिक उत्पादन प्राय: तीस करोड़ टन होता है जिसमें से आधा एकलप्रयोग प्लास्टिक होता है तथा कुल उत्पादन का अधिकतम आठवाँ भाग ही पुनर्चक्रित हो पाता है।
पर्यावरण को मुख्य सङ्कट एकलप्रयोग प्लास्टिक से ही है। किस प्रकार है?
(१) इसका पुनर्चक्रण व्यावहारिक रूप से अति कठिन है। संग्रहण तो समस्या है ही, इसे पुनर्चक्रित करने के लिये नया प्लास्टिक एवं अन्य रसायन मिलाने पड़ते हैं जो अपने आप में प्रदूषण को बढ़ावा देने के साथ साथ महँगे भी हैं। अत: इसका पुनर्चक्रण नहीं हो पाता।
(२) दुबारा प्रयोग नहीं होता तथा पुनर्चक्रण भी नहीं; इस कारण ये कूड़े के साथ साथ भूमि भराव एवं जल स्रोतों का मार्ग पकड़ लेते हैं जिससे कि नदियाँ एवं समुद्र प्रदूषित होते हैं।
(३) यह जलीय जीवों हेतु घातक होता ही है, प्राकृतिक चक्रों को भी परोक्ष रूप से प्रभावित करता है। पाल्य पशु भी इसे खा कर विविध स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से ग्रस्त हो जाते हैं।
(४) यह मनुष्यों के लिये भी घातक है, धीमा विष। प्लास्टिक का अपघटन तो नहीं होता किन्तु लम्बे समय में विघटन अवश्य हो जाता है अर्थात यह लघु कणों के रूप में अपना रूप छोड़ने लगता है। इस प्रक्रिया में वे रसायन मुक्त हो जाते हैं जिनका प्रयोग प्लास्टिक को कठोर एवं सतत बनाये रखने के लिये किया जाता है। यदि वे न हों तो प्लास्टिक का एक भी उपयोगी रूप न बन पाये।
मुक्त होते ये रसायन भूमि से भूजल में तथा नदियों, पोखरों आदि के जल में भी घुल मिल जाते हैं। प्रदूषित जल के माध्यम से ये मानव शरीर में पहुँच कर अन्त:स्रावी ग्रंथियों को प्रभावित करते हैं। अध्ययनों में पाया गया है कि इस कारण मनुष्यों में नपुंसकता, बन्ध्यत्व, जन्म विकृतियाँ, कैंसर एवं अन्य रोग हो रहे हैं।
दुर्भाग्य से एकलप्रयोग प्लास्टिक कचरे के बारे में न तो आरम्भ में जनता को शिक्षित किया गया, न ही उसके पुनर्चक्रीकरण के तन्त्र स्थापित किये गये। प्रयोग के पश्चात जनता की सामान्य प्रवृत्ति उन्हें सामान्य कूड़े में ही डाल देने की होती है तथा कबाड़ी भी इन्हें नहीं चुकते क्यों कि उन्हें इससे कुछ विशेष नहीं मिल पाता, छँटाई में श्रम एवं समय बहुत लगता है।
इन संकटों के कारण ही वैश्विक स्तर पर एकलप्रयोग प्लास्टिक से मुक्त होने का अभियान चल रहा है तथा किसी देश विशेष में बड़े विदेशी संस्थानों द्वारा व्यापारिक निवेश करते समय अब यह भी देखा जाने लगा है कि वह देश एकलप्रयोग प्लास्टिक से मुक्त होने की दिशा में क्या कर रहा है? परिणाम क्या हैं? भारत ने २०२२ ग्रे. तक एकलप्रयोग प्लास्टिक से मुक्त होने का लक्ष्य रखा है तथा विभिन्न प्रदेश इस दिशा में विधिक एवं अन्य उपाय कर आगे बढ़ चुके हैं। हजारो किलोमीटर लम्बी समुद्र तटरेखा, राष्ट्रीय महत्त्व के शताधिक स्मारकों तथा समस्त वायुमार्ग पत्तनों को एकलप्रयोग प्लास्टिक से मुक्त कर देने की दिशा में प्रभावी प्रगति हुई है। जनजागरण हेतु प्रचार का भी उपयोग किया जा रहा है किन्तु मूल समस्या वहीं की वहीं है कि संग्रहण तथा पुनर्चक्रण तंत्र या तो है ही नहीं या अति सीमित है।
प्लास्टिक की अभ्यस्त हो चुकी जनता को व्यावहारिक कठिनाइयाँ भी हो रही हैं। विकल्प के रूप में पेपर एवं कपड़े से बने जो उत्पाद आ रहे हैं, उनमें न तो जलरोधिता है, न उतनी शक्ति है, न आयु है तथा न ही सुविधा। प्लास्टिक समर्थक समूह इन विकल्पों के प्रयोग बढ़ने से भी प्रदूषण बढ़ने का पक्ष दर्शा रहा है। पेपर उद्योग द्वारा जल प्रदूषण किसी से छिपा नहीं, न ही कपड़ा मिलों का। किन्तु एक बार इस दिशा में बढ़ जाने पर पीछे लौटना सम्भव नहीं। नियमन, विधिक प्रावधान, उद्योगों को दिये जाने वाले अनापत्ति प्रमाणपत्रों के साथ प्रभावी पुनर्चक्रण तंत्र का होना अनिवार्य किया जाना, कूड़ा संग्रहण एवं उसे छाँट कर उपयुक्त स्थान पर पहुँचाने का स्थानीय तंत्र होना आदि ऐसे उपाय हैं जिनसे एकलप्रयोग प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध से आने वाली विविध समस्याओं पर नियंत्रण पाया जा सकता है जो कि दीर्घावधि में प्रदूषण मुक्ति में भी सहायक होगा।
एक विकल्प जैव-अपघटनशील (Biodegradable) प्लास्टिक का भी है जिसे कच्चे तेल के कचरे के स्थान पर विविध पादप कचरों से बनाया जाता है। इसका उत्पादन किञ्चित व्ययसाध्य होता है किन्तु सरकारी प्रोत्साहन एवं संरक्षण से उससे मुक्त हुआ जा सकता है। यह प्लास्टिक भी ऐसे ही नहीं अपघटित होता, इसकी वैसे ही कम्पोस्टिंग करनी पड़ती है जिस प्रकार कृषि हेतु खाद बनाई जाती है। इस हेतु भी तन्त्र नहीं है, व्यापक स्तर पर जब तक नहीं हो जाता, समस्या वहीं की वहीं रहनी है।
कोई भी परिवर्तन तीन प्रकार से होता है – जनता का स्वत:स्फूर्त उपक्रम जिसके साथ सरकारी जनजागरण उपाय हों; प्रचार, विधिनिषेध, प्रतिबंध, नियमन आदि के प्रयोग से सरकारों द्वारा तथा इन दो के समन्वय से। भारत जैसे वैविध्य भरे विशाल देश में तीसरा उपाय ही प्रभावी होना है तथा यही किया भी जा रहा है।
प्लास्टिक की थैलियाँ जिन्हें पन्नी भी कहा जाता है, भी एक बड़ी समस्या हैं। जनता उनकी अभ्यस्त हो चुकी है तथा सरलता से छोड़ने वाली नहीं। आजकल आप पचास माइक्रॉन से ऊपर एवं नीचे का वर्गीकरण सुन रहे होंगे। माइक्रॉन वस्तुत: माइक्रॉन मीटर है जो मोटाई मापने की इकाई है। एक माइक्रॉन मीटर का दस लाखवाँ अंश मात्र होता है। देखने में यह बहुत छोटी माप लग सकती है किंतु जब आप इस पर ध्यान देंगे कि साधारणत: प्रचलित पन्नी की मोटाई मात्र दस से पन्द्रह माइक्रॉन होती है तो समझ पायेंगे कि पचास माइक्रॉन मोटी पन्नी बनाने में उससे तीन से पाँच गुनी सामग्री लगेगी अर्थात उसका दाम भी उतना ही अधिक होगा।
नियामकों का तर्क है कि लोग महँगी पन्नी का उपयोग घटाते जायेंगे जिससे कि पर्यावरण पर दबाव भी घटेगा तथा विकल्पों जैसे पुराने युग के कपड़े एवं सन के थैलों का प्रयोग बढ़ेगा। मोटे होने से उनके संग्रहण में भी सुविधा होगी तथा कबाड़ी भी प्रेरित होंगे। पतली एवं मोटी पन्नी में केवल ये ही अन्तर हैं जिनके कारण पचास माइक्रॉन से तनु पन्नी पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इस जनवरी से जहाँ जहाँ प्रतिबंध लागू हुये वहाँ जनता मार्ग ढूँढ़ने लगी है। एक बड़ा विकल्प है पुराने समाचारपत्रों का उपयोग। लोग अब उन्हें कबाड़ी को न दे कर सीधे आपण एवं व्यापारियों को दे रहे हैं जहाँ उन्हें डेढ़ा भाव मिल जा रहा है। पैकेट में दूध बेंचने वाली सहकारी संस्थायें प्लास्टिक की उन थैलियों को पुनर्चक्रण हेतु ग्राहकों से लेने लगी हैं जिनमें पैक कर दूध बेंचा जाता है। यह संक्रमण का समय है तथा प्रगति कौन सी दिशा लेगी, अभी कहा जा नहीं सकता। अब तक की देखें तो सिक्किम जैसे लघु राज्य में प्लास्टिक प्रतिबन्ध पूर्णत: सफल रहा है तो उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में मिले जुले परिणाम रहे हैं। यही स्थिति अन्य राज्यों में भी है जहाँ कुछ नगरों तथा कुछ क्षेत्रों में व्यापक सफलता मिली है तो कुछ क्षेत्रों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।
सरल शब्दों में समझें कि समस्त प्लास्टिकों पर नहीं, अभी एकलप्रयोग प्लास्टिक पर चरणबद्ध प्रतिबंध लगाये जा रहे हैं तथा उसका सङ्कट वास्तविक है। स्वयं हेतु, अपने परिवार हेतु, पर्यावरण हेतु, धरती माता हेतु, नदी माता हेतु एकलप्रयोग प्लास्टिक को निश्चित रूप से अपने जीवन से दूर करें। यह आगामी पीढ़ियों के स्वास्थ्य हेतु भी बहुत ही आवश्यक है।
चित्र आभार : pixabay.com