Arthashastra Punishes Malfeasant Judges अर्थशास्त्र में कौटल्य (वा विष्णुगुप्त चाणक्य) ने न्यायालय को ‘धर्मस्थीय’ कहा है अर्थात वह स्थान जहाँ ‘धर्म में स्थित’ जन रहते हों। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का घोष वाक्य है – यतो धर्मस्ततो जय:।
महाभारत से लिया गया यह अंश उद्योग पर्व में प्रयुक्त हुआ है जहाँ धृतराष्ट्र विदुर से कहता है कि यह जानते हुये भी कि तुम्हारी यह बात प्रज्ञावान जन द्वारा सम्मत है कि जहाँ धर्म है, वहीं विजय है, वही वरेण्य है; मैं पुत्र का त्याग नहीं कर सकता।
सर्वं त्वमायतीयुक्तं भाषसे प्राज्ञसंमतम् । न चोत्सहे सुतं त्यक्तुं यतो धर्मस्ततो जयः ॥
वह अपने समय के सबसे प्रतिष्ठित कुरुवंश का राजा है किंतु पुत्रमोह में अंधा है। इसकी परिणति जो हुई, सर्वज्ञात है। यतो धर्मस्ततो जय: के महाभारत में ही प्रयोग के कुछ अन्य उदाहरण निम्न हैं –
यतः सत्यं यतो धर्मो यतो ह्रीरार्जवं यतः
ततो भवति गोविन्दो यतः कृष्णस्ततो जयः
क्षपयिष्यति नः सर्वान्स सुव्यक्तं महारणे
विदितं मे हृषीकेश यतो धर्मस्ततो जयः
अश्वत्थामा यथा मह्यं तथा श्वेतहयो मम
बहुना किं प्रलापेन यतो धर्मस्ततो जयः
दिष्टमेतत्पुरा चैव नात्र शोचितुमर्हसि
न चैव शक्यं संयन्तुं यतो धर्मस्ततो जयः
न तो पुत्र या भाई-भतीजावाद के परिणाम किसी से छिपे हैं और न ही आधुनिक उच्च धर्मस्थों (न्यायाधीशों) की चयन प्रक्रिया। धर्मस्थ भी मनुष्य ही होते हैं जिनसे परम वस्तुनिष्ठा एवं निष्पक्षता की अपेक्षा रहती है किंतु जब दृष्टि ही दूषित हो, जब किसी वाद के प्रभाव में मन मलिन कर या प्रमादवश निर्णय दिया जाय तो उनके लिये भी नियंत्रण व दण्ड विधान होनें चाहिये। कौटल्य मानव मनोविज्ञान व व्यवहार के अद्भुत ज्ञाता थे, आन्वीक्षिकी विशारद तो थे ही। जो आज दिखता है, वह सार्वकालिक रहा है।
अपने अर्थशास्त्र में कौटल्य ने धर्मस्थ द्वारा कदाचार की स्थिति में बहुत स्पष्ट विधान दिये। ध्यान रहे कि तब धर्मस्थ व वादी-प्रतिवादी के बीच में आज की भाँति मध्यस्थ एडवोकेट नहीं होते थे।
सङ्ग्रहण, द्रोणमुख, स्थानीय व जनपदसन्धि श्रेणी के नगरों व स्थानों पर न्यायप्रक्रिया की व्यवस्था थी। उल्लेखनीय है कि इसमें धर्मस्थ के साथ तीन अमात्य भी सम्मिलित होते थे अर्थात न्यायपालिका कार्यपालिका के साथ मिल कर न्याय करती थी, आज की भाँति ‘स्व’तन्त्र नहीं थी –
धर्मस्थास्त्रयस्त्रयोअमात्या जनपदसंधिसंग्रहणद्रोणमुखस्थानीयेषु व्यावहारिकानर्थान् कुर्युः ॥
अन्यत्र अपराध की श्रेणियाँ एवं उनके दण्ड निर्धारित कर दिये गये हैं, जिन्हें ‘साहस’ की सञ्ज्ञा दी गई है। वे इस प्रकार हैं –
यथापराध इति कौटल्यः ॥
पुष्पफलशाकमूलकन्दपक्वान्नचर्मवेणुमृद्भाण्डादीनां क्षुद्रकद्रव्याणां द्वाद्शपणावरश्चतुर्विंशतिपणपरो दण्डः ॥
कालायसकाष्ठरज्जुद्रव्यक्षुद्रपशुपटादीनां स्थूलकद्रव्याणां चतुर्विंशतिपणावरोअष्टचत्वारिंशत्पणपरो दण्डः ॥
ताम्रवृत्तकंसकाचदन्तभाण्डादीनां स्थूलकद्रव्याणामष्टचत्वारिंशत्पणावरः षण्णवतिपरः पूर्वः साहसदण्डः ॥
महापशुमनुष्यक्षेत्रगृहहिरण्यसुवर्णसूक्ष्मवस्त्रादीनां स्थूलकद्रव्याणां द्विशतावरः पञ्चशतपरो मध्यमः साहसदण्डः ॥
स्त्रियं पुरुषं वाभिषह्य बध्नतो बन्धयतो बन्धं वा मोक्षयतः पञ्चशतावरः सहस्रपर उत्तमः साहसदण्डः ॥ इत्याचार्याः ॥
लघु अपराधों हेतु बारह से चौबिस एवं चौबिस से अड़तालिस पण (तत्कालीन मुद्रा) के अर्थदण्ड का प्रावधान करने के साथ अपराध श्रेणियाँ एवं उनमें दण्ड इस प्रकार हैं –
पूर्व साहस – ४८ से ९६ पण
मध्यम साहस – २०० से ५०० पण
उत्तम साहस – >५०० से १००० पण
धर्मस्थों द्वारा किये जाने वाले अपराध एवं उन पर दण्ड इस प्रकार हैं –
धर्मस्थश्चेद्विवदमानं पुरुषं तर्जयति भर्त्सयत्यपसारयत्यभिग्रसते वा पूर्वमस्मै साहसदण्डं कुर्यात्, वाक्पारुष्ये द्विगुणम् ॥
पृच्छ्यं न पृच्छति, अपृच्छ्यं पृच्छति, पृष्ट्वा वा विसृजति, शिक्षयति, स्मारयति, पूर्वं ददाति वा, इति मध्यममस्मै साहसदण्डं कुर्यात् ॥
देयं देशं न पृच्छति, अदेयं देशं पृच्छति, कार्यमदेशेनातिवाहयति, छलेनातिहरति, कालहरणेन श्रान्तमपवाहयति, मार्गापन्नं वाक्यमुत्क्रमयति, मतिसाहाय्यं साक्षिभ्यो ददाति, तारितानुशिष्टं कार्यं पुनरपि गृह्णाति, उत्तममस्मै साहसदण्डं कुर्यात् ॥
पुनरपराधे द्विगुणं स्थानाद्व्यवरोपणं च ॥
लेखकश्चेदुक्तं न लिखति, अनुक्तं लिखति, दुरुक्तमुपलिखति, सूक्तमुल्लिखति, अर्थोत्पत्तिं वा विकल्पयति, इति पूर्वमस्मै साहसदण्डं कुर्याद्, यथापराधं वा ॥
धर्मस्थः प्रदेष्टा वा हैरण्यदण्डमदण्ड्ये क्षिपति क्षेपद्विगुणमस्मै दण्डं कुर्यात्, हीनातिरिक्ताष्टगुणं वा ॥
शरीरदण्डं क्षिपति शारीरमेव दण्डं भजेत, निष्क्रयद्विगुणं वा ॥
यं वा भूतमर्थं नाशयति अभूतमर्थं करोति तदष्टगुणं दण्डं दद्यात् ॥
- धर्मस्थ द्वारा अपना पक्ष रखते व्यक्ति को तर्जना, धमकाना, घुड़कना, बाहर निकालना, उत्कोच (घूस) लेना – प्रथम साहस का दण्ड।
- गाली गलौज करना – प्रथम साहस का दुगुना दण्ड।
- साक्षी से पूछने योग्य को न पूछना, न पूछने योग्य को पूछना और बिना उत्तर लिये छोड़ देना, सिखाना पढ़ाना, स्मृति दिलाना, आधी बात को अपनी ओर से पूरी कर देना – मध्यम साहस का दण्ड।
- उपयोगी साक्षी से कुछ नहीं पूछना, अनुपयुक्त साक्षी से पूछना, बिना साक्षी के ही निपटारा कर देना, सत्यवादी साक्षी को कपटपूर्ण वाक्यों से अपराधी बनाना, व्यर्थ समय बिता कर साक्षी को थका कर हट जाने पर विवश कर देना, साक्षी के क्रमपूर्ण वाक्यों को उलट पुलट कर कहना, साक्षियों को बीच बीच में मति देना, विचारपूर्वक निर्णीत बात को पुन: विचार हेतु उपस्थित करना – उत्तम साहस का दण्ड।
- अपराध दुहराने पर दुगुना दण्ड दिया जाय और पदच्युत कर दिया जाय।
- निरपराधी को स्वर्ण मुद्रा में दण्ड देना – धर्मस्थ के ऊपर उसका दुगुना दण्ड।
- अल्प या अधिक दण्ड – मात्रा का आठ गुना दण्ड।
- जब उपयुक्त नहीं, तब भी शारीरिक दण्ड दे तो उसे भी वही दण्ड दिया जाय।
- शारीरिक दण्ड के स्थान पर धनदण्ड – धर्मस्थ को उसका दुगुना दण्ड।
- उचित सम्पदा या धन का नकार या अनुचित सम्पदा या धन का स्वीकार करने पर उस धन का आठगुना दण्ड धर्मस्थ पर लगाया जाय।
स्पष्ट है कि धर्मस्थ जोकि एक वेतनभोगी राजकर्मचारी ही होता था, दण्ड-विधान से ऊपर नहीं था तथा कदाचरण या न्याय का नाश करने की स्थिति में उसे दण्डित करने के विधान बड़े स्पष्ट एवं सरल थे, आज जैसी दुरूह स्थिति नहीं थी।
वस्तुत: भारतीय न्यायपालिका भी ब्रिटिश व्यवस्था की अवशेष सी रही है तथा दुर्भाग्यवश कुछ निहित स्वार्थी तत्त्वों ने निजहितरक्षण व उनके अनुचित सम्वर्द्धन आदि हेतु अपने चारो ओर कवच सा बना लिया। उनकी भूमिका न्यायपालिका के ‘धृतराष्ट्र’ सी रही। विडम्बना ही है कि धृतराष्ट्र का अर्थ राष्ट्र को धारण करने वाला होता है तथा धर्म जिसकी कि जय है, धारणयोग्य ही है किन्तु वर्तमान स्थिति घोषित आदर्श से कितनी परे है!
न्यायपालिका की संरचना एवं उसके पूरे विधि विधान में आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। लम्बित वादों की हिमालयी संख्या व निस्तारण की कल्पतुल्य अवधि रोग के पर्याप्त लक्षण प्रदर्श हैं। समस्या यह है कि मोह में अन्धे धृतराष्ट्रों को उनके दर्शन होते ही नहीं!
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