Babylonian and Indian Astronomy – Early Connections, सुभाष काक के 17 फरवरी 2003 को मूलत: अंग्रेजी में प्रकाशित लेख का धारावाहिक अनुवाद
अनुवादक – अर्पिता शर्मा
भूमिका
क्या भारतीय एवं बेबिलॉन ज्योतिष असम्पृक्त विकसित हुए, क्या दोनों ने एक-दूसरे को प्रभावित किया या दोनों अन्योन्याश्रित थे? विद्वान दो शताब्दियों से भी अधिक समय से इस प्रश्न से उलझे हुए हैं और समय के साथ अनेक प्रकार के मत निकलकर सामने आते रहे हैं। दोनों तंत्रों के बीच की जिन समानताओं पर शोध हुये हैं, वे हैं – चंद्र माह के 30 भागों का प्रयोग, व्यावहारिक वर्ष के 360 भाग, वृत्त के 360 भाग, वर्ष की लंबाई एवं सौर राशिचक्र। कुछ विद्वानों ने यह सम्भावना व्यक्त की है कि स्यात बेबिलॉन ग्रह संबंधी तालिकाओं ने (भारतीय) सैद्धांतिक संकल्पना में अपनी भूमिका निभाई हो।
इस निबंध के माध्यम से मैं प्रारंभिक भारतीय एवं बेबिलॉन ज्योतिष के आधारभूत तथ्यों पर चर्चा करूँगा और उन दोनों के बीच संबंधों पर दिए गए नवीनतम विचारों का सार प्रस्तुत करूँगा। मैं यह दर्शाऊँगा कि 700 ईसापूर्व के बेबिलॉन ज्योतिष में पाए जाने वाले मूल विचार वैदिक साहित्य में पहले से ही उपस्थित हैं, और यदि सबसे रूढ़िवादी गणना पद्धति से भी उनकी गणना की जाए, तो भी वे उस युग से पुराने बैठते हैं। मैं यह भी दर्शाऊँगा कि सौर राशि पद्धति वैदिक भारत में प्रचलित थी, एवं सौर राशियों के प्रतीकों का तत्संबंधी देवताओं से उद्भव की भी एक सम्भावित विश्वसनीय उपपत्ति प्रस्तुत करूँगा।
भारतीयों की मेसोपोटामिया क्षेत्र में 700 वर्ष ईसापूर्व से पहले प्रामाणिक उपस्थिति से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि दोनों ज्योतिष विधाओं ने एक-दूसरे को प्रभावित भी किया हो तो भी भारतीय ज्योतिष पर बेबिलॉन ज्योतिष की निर्भरता रही होगी। यह भी संभव हो सकता है कि बेबिलॉन के आविष्कार भारतीय विधियों से स्वतंत्र स्वयं प्रकट हुए हों।
पश्चिम एशिया में भारतीयों की उपस्थिति ईसा पूर्व दो सहस्राब्दियों से भी अधिक पुरानी ठहरती है, जब तुर्की और सीरिया में हित्तियों और मितानियों का राज था और मेसोपोटामिया में कैसिति राज कर रहे थे। द्वितीय सहस्राब्दी के उत्तरार्द्ध में मितानियों के मिस्र के फराओं से वैवाहिक संबंध थे, और ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने उस क्षेत्र को प्रभावित भी बहुत किया1। उगार्टि देव वैदिक 33 देवताओं के समान ही 33 की संख्या में थे।
यद्यपि शताब्दी के अंत तक कैसित जन उस दृश्य पटल से समाप्त हो गए किन्तु भारतीय लोग व्यापार के सहारे अपनी संस्कृति को बचाते हुए मुख्य धारा में बने रहे। सार्गन ने उसदिस के किसी बगदत्ती को 716 ईसापूर्व में हराया। बगदत्ती (भगदत्त) भारतीय नाम2 है और त के द्वित्त्व के कारण ईरानी नहीं हो सकता।
पश्चिम एशिया में इंडो-आर्यन उपस्थिति फारसी राजाओं जैसे डेरियस और जेरसेस तक बनी रही। इसकी प्रामाणिकता प्रसिद्ध दैव अभिलेख से सिद्ध होती है, जहाँ जेरजेस (कार्यकाल 486-465 ईसापूर्व) पश्चिम ईरान के दैव उपासकों के विद्रोह को दबाकर सफलता का उद्घोष करता है।
ये भारतीय समूह वैदिक ज्योतिष के विचारों को बेबिलॉन एवं अन्य पश्चिम एशिया प्रवाहित करने वाले मध्यवर्ती संस्थाओं की भाँति काम करते रहे होंगे। यद्यपि हम देख सकते हैं कि कुछ विचार विशेष को अपनाने में सदियों का अन्तर आ गया है, तब भी कोई भी प्रसार की दिशा का निर्धारण कर सकता है (पता लगा सकता है कि प्रवाह किस दिशा से किस दिशा में प्रवाहमान हुआ।) ज्योतिषीय अध्ययन का प्रारंभिक बिंदु समय के पहिए की 360 भागों में गणना है। यह वैदिक पुस्तकों में हर स्थान पर व्याप्त है और इसकी उपस्थिति द्वितीय एवं तृतीय सहस्राब्दी ईसापूर्व तक या उससे भी पहले है, जबकि बेबिलॉन में यह केवल प्रथम शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही प्रयुक्त दिखता है।
भारतीय ज्योतिष के पश्चिमी इतिहास
प्रांरभिक पश्चिमी अध्ययनों में भारतीय ग्रंथों में वर्णित जिन ज्योतिषीय संदर्भों को सम्मिलित किया गया उनकी काल अवधि तीन से चार हजार ईसापूर्व तक जाती है। भारतीय ज्योतिष ग्रंथों के अध्ययन से पता लगा कि अन्य सभ्यताओं में प्रयोग में ली जा रही ज्योतिषीय विधाएं भारतीयों से भिन्न हैं। फ्रांसीसी खगोलविद् ज्यां सिल्वेन बैली अपनी उत्कृष्ट कृति Trait´e de l’Astronomie Indienne et Orientale (1787) में सूर्य सिद्धान्त और अन्य ग्रंथों का विवरण प्रस्तुत किया और अपना मत व्यक्त किया कि भारतीय ज्योतिष अति प्राचीन है। भारतीय ज्योतिष के नियमों एवं पुरातन विशेषताओं की सरलता और सौष्ठव से चकित होकर उन्होंने माना कि ज्योतिष का उद्भव भारत में ही हुआ एवं परवर्ती काल में यह बेबिलॉन के कैल्डियाई जन से होते हुए यूनान(ग्रीस)पहुँची।
इसके विपरीत जॉन बेण्टली ने 1799 के Asiatick Researches में अपने शोध में कहा कि सूर्य सिद्धान्त के घटक कारक सन् 1091 ईस्वी हेतु परिशुद्ध थे किन्तु आगे बेण्टली की आलोचना इसलिए हुई कि वे यह समझने से चूक गये कि सूर्य सिद्धान्त बीज सुधारों3 द्वारा पुनरीक्षित किया जाता रहा था। यही कारण था कि बेण्टली बेली की मूल मान्यता को नकार नहीं सके।
इसी बीच भारतीय ज्योतिष आगामी अनेक दशाब्दियों तक वाद-विवाद का विषय बन गया। कुछ कठिनाई तो इस कारण से हुई कि उनके लिये भारतीय चंद्र-सौर प्रणाली की संरचना अपरिचित थी। कालान्तर में यह उन विचारों की बन्धक हो गई जिनके अनुसार 1500 ईसापूर्व4 के निकट वैदिक लोग भारत में आक्रान्ताओं के रूप में आये, भारतीय लोग मानों किसी अन्य लोक में ही रमे रहते थे, वे वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न नहीं थे और मध्ययुग तक उनमें प्रेक्षणीय ज्योतिष का अभाव था5। जो भी ज्योतिषीय गणनाएं असुविधाजनक लगीं, उनको अविश्वसनीय कहकर छोड़ दिया गया। इस पर भी चर्चा हुई कि ग्रंथों में दी गई ज्योतिषीय गणनाएं या तो वर्तमान के अगणनीय समयखण्ड से संबंधित हैं या उत्तर अन्तर्वेशीय हैं6।
इसके विरोध में एबेंजर बुर्गेस, जिन्होंने 1860 में सूर्य सिद्धान्त का अनुवाद किया, अडिग रहे कि भले ही प्रमाण निश्चयात्मक नहीं हैं, किन्तु यह सिद्ध करते हैं कि भारतीय निम्न के वास्तविक आविष्कर्ता7 हैं :
1. राशिवृत्त के चन्द्र एवं सौर विभाजन, 2. अधिचक्रों (epicycles) की आदि परिकल्पना, 3. फलित ज्योतिष एवं 4. देवों के नाम पर ग्रहों के नामकरण8।
बेबिलॉन ज्योतिष गणनाओं के पढ़ लिए जाने के साथ ही यह माना गया कि हो सकता है कि प्रारंभिक भारतीय ज्योतिष विलुप्त बेबिलॉन एवं ग्रीक प्रभावित तंत्र का प्रतिनिधित्व करती हो9 किन्तु इससे अनेक समस्याएं उत्पन्न हो गईं, जिनके बारे में सौ वर्षों पूर्व ही बर्गीस ने अनुमान कर लिया था और जिनमें युगारंभ की असङ्गति एक है। पिंग्री ने प्रस्तावित किया कि यदि कोई कर सके तो 500 वर्ष ईसापूर्व के सभी भारतीय ग्रंथों को एक समवेत सामग्री के रूप में एक स्थान पर रख दे10 किन्तु ऐसा सिद्धान्त वैदिक विद्वानों द्वारा अनर्थक बताया गया।
उत्तरवर्ती वैदिक ग्रंथ वेदाङ्ग ज्योतिष दूसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व का है। यद्यपि शंकर बालाकृष्ण दीक्षित के उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में प्रकाशित ग्रन्थ ‘भारतीय ज्योतिष‘11 में वेदाङ्ग ज्योतिष में किसी भी विदेशी आधार को ढूँढ़ने के विरोध में पर्याप्त तर्क थे, छठें दशक12 में इस विषय को पुनर्जीवित कर दिया गया । किसी भी विदेशी आधार की पहले से ही अप्रमाणित सङ्कल्पना को पुन: विवेचना में लाने का आधार यह था कि गणितीय ज्योतिष की भारत में उत्पत्ति सामान्य मेसोपोटामियाई-ईरानी सांस्कृतिक प्रवाह के उत्तर भारत में प्रसार का एक तत्व मात्र है, जो सिकंदर द्वारा एकेमेनिद साम्राज्य को जीतने की पूर्ववर्ती दो शताब्दियों तक चलता रहा13।
इस संकल्पना को निराधार घोषित करने के लिए तब से अनेक अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत किए जा चुके हैं14 किन्तु फिर भी बहुत से व्यक्ति इन दो ज्योतिषीय परंपराओं के परस्पर सम्बन्धों पर दिग्भ्रमित ही रहे हैं। भारत में पर्यवेक्षणीय ज्योतिष की परंपरा नहीं रही, इस विचार का संतोषजनक रूप से खण्डन लगभग तीस वर्ष पूर्व रोजर बिलार्ड ने किया। भारतीय ज्योतिष पर अपनी पुस्तक15 में वे यह विवेचित करते हैं कि विभिन्न सिद्धान्तों में प्रयोग में लिए गए मानदण्ड वस्तुत: उस काल से सम्बंधित हैं, जिस काल में उनका जन्म हुआ। इससे वे सभी विचार मिथ्या सिद्ध हो जाते हैं जो कहते हैं कि भारतीय ज्योतिष मेसोपोटामिया या ग्रीस से भारत में प्रसारित हुई किसी धारा पर आधारित है। ज्योतिष के प्रसिद्ध विद्वान बी एल वान देर वैरडेन ने 1980 के एक लेख Two treatises on Indian astronomy में इस विवाद पर अपने विचार प्रस्तुत किए, जहाँ उन्होंने दोनों विद्वानों बिलार्ड और उनके विरोधी पिंग्रे के विचारों की विवेचना की। वे इस प्रकार निर्णय देते हैं16 :
बिलार्ड का सिद्धान्त ठोस है। इनके द्वारा निकाले गए परिणाम भारतीय ज्योतिषीय संधियों के कालक्रम और आधारभूत पर्यवेक्षणों की परिशुद्धता पर प्रकाश डालते हैं। हमने यह भी देखा है कि पिंग्री द्वारा निर्धारित कालक्रम अनेक स्थानों पर त्रुटियुक्त है। एक स्थान पर तो उनके कालक्रम निर्धारण में त्रुटि लगभग 500 वर्षों की थी।
ऋग्वेद में ज्योतिषीय विधा17 के उद्घाटन से यह स्पष्ट हो गया कि सैद्धान्तिक काल के पहले भी, वैदिक काल में भी भारतीय ध्यानपूर्वक पर्यवेक्षण करते थे।
कोई भी यह पूछ सकता है कि जब पिंग्री के शोध की अप्रामाणिकता सिद्ध हो चुकी है तो पुन: उस पर विचार करने की क्या आवश्यकता है? इसके पीछे का कारण यह है कि उनका शोध भारतीय एवं बेबिलॉन ज्योतिष की तुलना के लिए उचित सन्दर्भ प्रस्तुत करता है और दोनों के बीच भिन्नताओं एवं समानताओं पर चर्चा करता है। इससे यह भी पता चलता है कि किसी अयोग्य सिद्धान्त से यदि अनुसन्धान किया जाए तो कितने विषम परिणाम निकल सकते हैं ! यद्यपि मेरा मन्तव्य ज्योतिषीय ज्ञान में बेबिलॉन के स्थान पर भारत को पदस्थापित करना नहीं है।
मेरा मानना है कि पृथक-पृथक रूप से विकसित होने वाला सिद्धान्त एकपक्षीय है। पुरानी सभ्यताओं के बीच आपसी संपर्क बहुत अधिक था। मेरा यह भी मानना है कि पुरानी सभ्यताओं में एक-दूसरे से उधार लेने की प्रवृत्ति भी नितान्त शुद्ध रूप में और किसी भी काल से अधिक थी और ज्योतिषीय प्रणालियों में कुछ विशेष विशेषण आए, जो प्रत्येक प्रणाली को अद्वितीय बनाते हैं। किसी भी समूह विशेष में नवाचार की बात न भी करें तो हम विशेष भौगोलिक क्षेत्रों के बारे में विवेचन कर सकते हैं जहाँ सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक कारणों से ब्रह्माण्ड को देखने की नितान्त नवीन विधियाँ विकसित हुईं। ज्योतिषीय समस्या के लिए हम बेबिलॉन-भारतीय पूर्व साहित्य की उपेक्षा नहीं कर सकते। ठीक उसी प्रकार हम इस तथ्य की उपेक्षा भी नहीं कर सकते कि प्रथम शताब्दी ईसापूर्व के मध्य बेबिलॉन जन ध्यानपूर्वक गणितीय गणनाओं की क्षमता विकसित कर चुके थे, जिसके अभिलेख चकित करने वाले थे18 और गणितीय प्रारूपों का विकास भी तब तक हो चुका था। बेबिलॉन की ज्योतिषीय परंपरा द्वितीय शताब्दी ईसापूर्व या उससे भी पुरानी ठहरती है किन्तु यहाँ हम उनके ध्यानपूर्वक किए गए पर्यवेक्षणों के चकित करने वाले प्रमाणों के बारे में अधिक चर्चा नहीं करेंगे, वरन गणितीय ज्योतिष के आरम्भ के बारे में चर्चा करेंगे, जो प्रथम शताब्दी के मध्य में उभरा।
अगले खण्ड में हम वेदाङ्ग पूर्व भारतीय ज्योतिष का परिचय प्राप्त करेंगे और उसके पश्चात बेबिलॉन ज्योतिष के बारे में विवेचना करेंगे, जिससे कि भारतीय ज्योतिष एवं बेबिलॉन ज्योतिष के आपसी संबंधों की सम्यक प्रकार से विवेचना की जा सके। वेदाङ्ग पूर्व ज्योतिष सामग्री का संबंध मुख्यतः संहिताओं से हैं, जो द्वितीय सहस्राब्दी ईसापूर्व या उससे भी पहले के कालखण्ड के हैं। किसी भी प्रकार का बेबिलॉन ज्योतिष प्रभाव इन पर सम्भव ही नहीं हो सकता। हम ब्राह्मण ग्रंथों से भी सहायता लेंगे, जो सर्वाधिक रूढ़िवादी रीति से गणना करने पर भी बेबिलॉन ज्योतिष से पुराने काल के हैं।
एक बार जब हम इस प्रारंभिक ज्योतिष का स्वरूप ठीक से समझ लेंगे, तब हम इसका संबंध वेदाङ्ग ज्योतिष एवं बेबिलॉन ज्योतिष के सापेक्ष देख सकते हैं।
वेदाङ्गपूर्व ज्योतिष खगोलविद्या
वेदाङ्गपूर्व ज्योतिष खगोलविद्या के बारे में कुछ विस्तृत सामग्री मेरी पुस्तक19 के पहले भाग के निबंध Astronomy and its role in Vedic culture में है जहाँ इस विज्ञान के आनुष्ठानिक कर्मकाण्डीय आधार रेखाङ्कित किये गये हैं। उसमें यह दर्शाया गया है कि वैदिक ग्रंथों की गढ़न एवं वेदिका अनुष्ठान में कुछ सौर एवं चंद्र वर्षों से संबंधित विशेष ज्योतिषीय तथ्य संग्रहित थे। इससे सिद्ध होता है कि पर्यवेक्षण सम्बन्धित ज्योतिष वैदिक काल से ही परम्परा का अङ्ग रहा किन्तु हम यहाँ उक्त ज्ञान पर चर्चा न करके केवल संहिताओं एवं ब्राह्मण ग्रंथों के सिद्धान्तों तक ही सीमित रहेंगे।
वेदाङ्ग पूर्व सामग्री से जो तथ्य निकलकर सम्मुख होते हैं, उनमें सम्मिलित हैं – वर्ष की अवधि का भान, तिथि की सङ्कल्पना, देवताओं के नाम पर क्रांतिवलय खंडों का नामकरण, अनुष्ठानों के लिए अयनान्त बिन्दुओं का ज्ञान, क्रान्तिवलय का 27 एवं 12 खण्डों में विभाजन एवं सूर्य तथा चन्द्रमा की गतियों का ज्ञान।
इस वैदिक तन्त्र के अन्तर्गत ही अनेक परम्परायें थीं जैसे कि एक में महीने के प्रारम्भ की अमावस्या से गणना की जाती थी, दूसरे में पूर्णिमा से।
(सम्पादकीय टिप्पणी – वस्तुत: पश्चिमी शब्दावली में अमावस्या व कृष्ण प्रतिपदा हेतु रूढ़ शब्द नहीं हैं, अत: वे इनके लिये क्रमश: new moon एवं full moon का प्रयोग करते हैं। अनुवाद से पुन: अनुवाद में स्थिति गड़बड़ हो जाती है। भारतीय संदर्भ में मास आरम्भ दोनोंं प्रतिपदाओं से ही समझा जाना चाहिये।)
नक्षत्र
नक्षत्र तारों, तारा समूहों एवं क्रांतिवलय के लिए प्रयुक्त किए जाते थे। पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए चंद्रमा आने वाले दिनों में विविध 27 नक्षत्रों से मिलता है, जबकि वास्तविक चक्र 27⅓ दिनों का है। अतिरिक्त एक-तिहाई दिन के अंतर के कारण संयोजन में जो त्रुटि होती है, उसे तीन चक्रों में सुधारा जाता है। साथ ही, चंद्र वर्ष के सौर वर्ष से 11 एवं कुछ दिन छोटे होने का अर्थ यह है कि आगे नाक्षत्रिक स्थितियों में और विचलन होता है जिसे अधिमासों द्वारा ठीक किया जाता है।
वैदिक ग्रन्थों में नक्षत्रों की सबसे प्राचीन सूचियाँ कृत्तिका से आरम्भ होती हैं; बहुत आगे की, वर्तमान की छठी शताब्दी से उपलब्ध सूचियाँ अश्विनी से आरम्भ होती हैं जब वसन्त विषुव रेवती एवं अश्विनी की सीमा पर पड़ा करता था। जैसा कि अन्य प्रमाणों से भी पता चलता है, यह मानने पर कि किसी सूची का आरम्भ नक्षत्र एक ही नाक्षत्रिक घटना से जुड़ा है, सबसे पुरानी सूचियाँ ईसापूर्व तीसरी सहस्राब्दी उससे पहले के काल की होनीं चाहिये। तैत्तिरीय संहिता (4.4.10) के अनुसार प्रत्येक नक्षत्र का एक अधिष्ठाता देवता होता है। वेदाङ्ग ज्योतिष में नक्षत्र एवं उनके अधिष्ठाता देवताओं के नामसञ्ज्ञा प्रयोग एक दूसरे के स्थान पर किये गये हैं। यह मानना तार्किक प्रतीत होता है कि ऐसे प्रयोग परम्परासम्मत थे।
सारणी 1 में इस लेख हेतु प्रासङ्गिक कुछ चयनित नक्षत्र, उनके अधिष्ठाता देवता एवं उनके मध्यमान पर सम्पाती शीत अयनान्त एवं वसन्त विषुव की अनुमानित कालावधियाँ दी गई है। यह ध्यान देने योग्य है कि प्राचीनतम वैदिक ग्रंथों में अयनान्त बिंदुओं के नए नक्षत्रों में गति सम्बन्धित अभिजान के कथ्य उपलब्ध हैं। इन ग्रंथों के सहारे हम इन ग्रंथों की संभावित तिथियों तक पहुँच सकते हैं। नक्षत्रों के अभिजान की हमारी क्षमता को बढ़ाने में सर्वाधिक योगदान नरहरि आचार का है20, जिनके द्वारा विकसित सॉफ्टवेयर में शक्तिशाली प्रतिरूप विधान (सिम्यूलेशन) का प्रयोग हुआ है, और जिसकी सहायता से आकाश में स्थित ग्रह एवं नक्षत्रों को उसी रूप में हम देख सकते हैं, जिस रूप में वैदिक जन देखा करते थे। इस युक्ति का प्रयोग करते हुए उन्होंने दर्शाया कि कुछ ऐसे पुराने सायुज्य, जो अयनांश के अभाव में किये गये, उनकी कालावधि गणना में भी सुधार किया जा सकता है।
वेदाङ्ग ज्योतिष में नक्षत्रों को 27 सम भागों में प्रदर्शित करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह परंपरा बहुत पुरानी रही होगी, क्योंकि संहिताओं (काठक एवं तैत्तिरीय) में स्पष्टतया यह संदर्भ आता है कि सोम ने सभी नक्षत्रों से विवाह किया और सभी के साथ समान समय बिताता है। इस प्रकार नक्षत्रों के तारे क्रान्तिवलय को समान भागों में विभक्त करने के प्रदर्श मात्र हैं। प्रत्येक नक्षत्र 13⅓ अंश की परास दर्शाता है।
नक्षत्रों एवं उनकी अवस्थिति की सूची निम्न है :
1. कृत्तिका, कृत्(काटना) से। ये हैं Pleiades, η Tauri, देवता – अग्नि ।
2. रोहिणी, रक्त वर्ण से, α Tauri, Aldebaran, देवता – प्रजापति ।
3. मृगशिरस, मृग का सिर, β Tauri, देवता – सोम ।
4. आद्रा, आर्द्रता से, γ Geminorum (पहले इसे Betelgeuse, α Orionis माना गया था), देवता – रूद्र ।
5. पुनर्वसु, ‘ जो पुन: वसु अर्थात सम्पत्ति का प्रदाता है’, Pollux, or β Geminorum। देवता – अदिति ।
6. तिष्य, ‘प्रसन्न’ अथवा पुष्य ‘पुष्पित’, Cancer के अन्य तारों के बीच δ Cancri, देवता – बृहस्पति ।
7. आश्रेषा या आश्लेषा, ‘आलिंगन कर्ता’, δ, ε, ζ Hydrae। देवता – सर्पा: ।
8. मघा, ऐश्वर्य-धन-पुरस्कार, Regulus के निकट का तारकसमुच्चय or α, η, γ, ζ, μ, ε, Leonis, देवता – पितर: ।
9. पूर्वा फाल्गुनी, ‘कान्तियुक्त’, δ and θ Leonis, देवता – अर्यमन् (भग)
10. उत्तरा फाल्गुनी, ‘कान्तियुक्त’, β and 93 Leonis, देवता – भग (अर्यमन्)
11. हस्त, ‘हाथ’, सम्यक अभिज्ञान γ Virginis (पहले इसे δ, γ, ε, α, β Corvus माना जाता था, किन्तु वस्तुत: ये सभी क्रांतिवलय से बहुत दूर हैं अत: इस नक्षत्र हेतु उनकी स्थिति ठीक नहीं है)। देवता – सवितर् ।
12. चित्रा, ‘कान्तिमान’, Spica or α Virginis, देवता – इन्द्र (त्वष्टृ) ।
13. स्वाति, ‘आत्म-बन्धित’ अथवा निष्ट्या, π Hydrae (पूर्ववर्ती अभिजान Arctutus या α Bootis क्रांतिवलय से बहुत दूर) , देवता – वायु ।
14. विशाखा, ‘शाखारहित’, α2, β, σ Librae, देवता – इन्द्राग्नि ।
15. अनुराधा, ‘शोभन या अनुकूल’ या ‘जो राधा का अनुगमन करता है’, β, δ, π Scorpii, देवता – मित्र ।
16. रोहिणी, ‘लाल’, अथवा ज्येष्ठा, ‘वरिष्ठतम’, Antares, α Scorpii, देवता – इन्द्र (वरुण)
17. विचृतौ, ‘दो मुक्तिदाता’ अथवा ‘मूल’, ‘जड़, स्रोत’, ε से λ, ν Scorpii, देवता – पितर: (निरृति)
18. पूर्वा आषाढा, ‘अजित’, δ, ε Sagittarii, देवता – आप: ।
19. उत्तरा आषाढा, ‘अजित’, σ, ζ Sagittarii, देवता – विश्वे देवा:
अभिजित, ‘विजयोन्मुख’, यह नाम नक्षत्र प्रणाली के संतोषजनक रूप से पूर्ण होने का संकेत करता है। Vega, तेजोमय α Lyrae। यही वह तारा है जो उन सूचियों में नहीं मिलता जिनमें नक्षत्र संख्या 27 है। देवता – ब्रह्मा ।
20. श्रोणा, ‘लङ्गड़ा’ अथवा श्रावण, ‘कान’, β Capricornus ( Altair, α Aquillae के स्थान पर), देवता – विष्णु ।
21. श्रविष्ठा, ‘सर्वख्यात’, आचार का तर्क है कि इसे δ Capricornus होना चाहिए, न कि पहले माना गया β Delphini । कालान्तर में इसे धनिष्ठा नाम से पुकारा गया – ‘सर्वाधिक संपन्न’, देवता – वसव: ।
22. शतभिषज, ‘सौ वैद्यों वाला’, λ Aquarii एवं उसके चतुर्दिक तारे, देवता – इन्द्र (वरुण)
23. प्रोष्ठपदा, ‘पिढ़ई के पाये’, α Pegasi के निकटस्थ तारे, देवता – अज एकपाद ।
24. उत्तर प्रोष्ठपदा, ‘पिढ़ई के पाये’ अथवा कालान्तर का भद्रपदा, ‘शुभ पाँव’, γ Pegasi एवं पास के तारे। देवता – अहिर्बुध्न्य ।
25. रेवती, ‘धनी’, η Piscium, देवता – पूषन् ।
26. अश्वयुजौ, ‘दो अश्वारोही’, β एवं α Arietis, कालान्तर का नाम अश्विनी, देवता – अश्विनौ ।
27. अपभरणी, ‘धारक’, δ Arietis को घेरे तारे, देवता – यम ।
नक्षत्र पद्धति की पुरातनता तब स्पष्ट हो गई जब इस तथ्य का उद्घाटन (नरहरि आचार की अन्तर्दृष्टि21 के) हुआ कि ऋग्वेद 5.51 में इन देवताओं के नाम आए हैं। स्वस्त्यात्रेय आत्रेय द्वारा इस मंत्र में निम्न देवताओं के नाम आए हैं :
अश्विन, भग, अदिति, पूषन्, वायु, सोम, बृहस्पति, सर्वगण:, विश्वे देव:, अग्नि, रूद्र, मित्र, वरुण, इन्द्राग्नि ।
सर्वगण: समूह (गण) हैं यथा वसव:, पितर:, सर्प: (अहि एवं अज सम्मिलित), आप: एवं आदित्यगण: (दक्ष प्रजापति, अर्यमन्, विष्णु, यम, इन्द्र) जो सूची को पूर्ण करते हैं। निस्संदेह क्रांतिवलय का कुछ तात्पर्य था क्योंकि इस मंत्र के अंतिम छंद में स्पष्टतया सूर्य एवं चंद्रमा की निष्ठा का उल्लेख किया गया है, जिससे वे अपने परिपथ क्रान्तिवलय पर परिक्रमाएं पूरी करते हैं।
किसी वलय के 360 अथवा 720 सम भागों में विभाजन को नक्षत्रों के रूप में देखा गया, जिसका आधार प्रत्येक नक्षत्र को 27 उपनक्षत्र प्रदान करके था (शतपथ ब्राह्मण 10.5.4.5)। यह एक उत्तम अनुमान है क्योंकि 27×27 = 729 होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रत्येक नक्षत्र को पुन: 27 अन्य भागों में कल्पना करके देखने पर आकाश को देखते हुए अर्द्ध अंश जितनी परिशुद्धता से संकल्पना समझने में सुविधा होती है।
नक्षत्रों का अभिज्ञान उनके दो वर्गों, देव एवं यम नक्षत्रों में विभाजन के सापेक्ष है, जैसा कि तैत्तरीय ब्राह्मण 1.5.2.7-9 में कहा गया है :
कृत्तिका प्रथम एवं विशाखा अंतिम है, जो कि देव नक्षत्र हैं। अनुराधा प्रथम एवं अपहरणी अंतिम यम नक्षत्र हैं। देव नक्षत्र दक्षिण से परिक्रमा करते हैं, जबकि यम नक्षत्र उत्तर से परिक्रमा करते हैं।
कृत्तिका एवं विशाखा देव नक्षत्र हैं क्योंकि वे भूमध्य रेखा के उत्तर में स्थित हैं, जबकि अन्य यम नक्षत्र हैं क्योंकि वे भूमध्य रेखा के दक्षिण में हैं। चूंकि देवताओं का वास उत्तरी ध्रुव में माना गया है और यमों का दक्षिणी ध्रुव में, देव नक्षत्र देवों के निवास के दक्षिण में परिक्रमा करते हैं एवं यम अपने निवास के उत्तर में परिक्रमा करते हैं। इस वर्गीकरण से नक्षत्रों के अभिजान में सहायता मिलती है।
सारणी 1 : अपने संबंधित देवताओं के नाम के साथ नक्षत्र एवं प्रत्येक खण्ड के मध्य में शीत अयनान्त एवं वसंत विषुव की अवधियाँ
उक्त सारणी में उन्नीसवें एवं बीसवें के बीच आने वाला अभिजित नक्षत्र तैत्तिरीय संहिता में दी गई 27 नक्षत्रों की सूची में नहीं आता है, न ही वेदाङ्ग ज्योतिष में। मैत्रायणी एवं काठक संहिताओं एवं अथर्ववेद में कुल 28 नक्षत्रों की सूची है।
जब कृत्तिका एवं विशाखा नक्षत्र क्रमश: वसंत एवं शरद विषुव के सूचक थे, तब मघा एवं श्रविष्ठा नक्षत्र क्रमश: ग्रीष्म एवं शीत अयनान्त से सम्बन्धित थे ।
वर्ष एवं अयनान्त अवधियाँ
दो प्रकार के वर्षों के विषय में हम जानते हैं। पहले प्रकार का वर्ष शीत अयनान्त से आरम्भ होता है और अगले शीत अयनान्त तक जाता है। दूसरे प्रकार के वर्ष में एक वसन्तविषुव से दूसरे वसन्तविषुव तक का मापन किया जाता है। निश्चित रूप से ये दोनों सौर प्रकार वर्ष हैं एवं ऋतुओं से संबंधित हैं (सायण)।
समय के चक्र में 360 भागों की आवधिक गणना है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस संख्या का चुनाव करते समय चंद्र वर्ष के औसत 354 दिनों एवं सौर वर्ष के 366 दिनों की संख्या का ध्यान रखा गया है।
तैत्तिरीय संहिता (6.5.3) में कहा गया है कि सूर्य छह माह में उत्तर दिशा में एवं छह माह दक्षिण दिशा में यात्रा करता है। ब्राह्मण वाङ्मय में ऐसे अनुष्ठान का वर्णन है, जो शीत अयनान्त से आरम्भ होने वाले वर्ष का अनुकरण करता है। उदाहरणस्वरूप, पञ्चविश ब्राह्मण में अनेक दिनों की अवधि के सत्र, एक वर्ष (25.1), 12 वर्ष, 1000 दिन एवं 100 वर्षों तक चलने वाले सत्रों का वर्णन है। इस प्रकार के अनुष्ठानों में दिवसों की संख्या को अभिलिखित किया जाता था, जो एक सौर वर्ष के परिशुद्ध मान निर्धारण के साधन की भाँति प्रयुक्त होते थे। 100 वर्षों का सत्र सप्तर्षि पञ्चाङ्ग में शताब्दी तंत्र (सौ तक गणना का तंत्र) से संबंधित प्रतीत होता है।
अयनान्त दिवस का निर्धारण सम्भवत: दुपहर में किसी लंबवत स्तंभ की छाया को देखकर कर किया गया होगा। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार सूर्य लगभग 21 दिवसों तक उत्तरी गोलार्द्ध के अंतिम कोण में एक ही स्थान पर स्थिर रहता है (ग्रीष्म अयनान्त) और इसी प्रकार शीत अयनांत के दिनों में दक्षिणी गोलार्द्ध के अंतिम बिन्दु पर। इससे संकेत मिलता है कि सूर्य की गति को सार्वकालिक समान नहीं माना जाता था।
माह
वर्ष को 12 माहों में विभक्त किया गया, जो नक्षत्रों के अनुसार एवं चंद्र की गतियों के आधार पर निर्धारित किए गए।
(Babylonian and Indian Astronomy अनुवाद काअगला भाग)
सन्दर्भ :