Consciousness चैतन्य व योगवासिष्ठ, चित्र आभार : pixabay.com
चैतन्य (consciousness) पर सनातन ग्रंथों में अद्भुत सिद्धांत हैं। जगत के मिथ्या होने की बात तो सनातन दर्शन की मूल स्थापनाओं में से है – ‘ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव ना परः’ तथा ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्’ तो सनातन उद्घोष ही हैं। ऐसे में यदि जगत के आभासी होने को नवीन सिद्धांत कहा जाय तो उसे अज्ञानता भी कहा जा सकता है। योगवासिष्ठ में कुछ विचार बारम्बार आते हैं मानो पूरा ग्रंथ उस एक सत्य को प्रकाशित करने के लिए लिखा गया हो। जटिल लगने वाली इस पुस्तक में ‘जगतभ्रम से निवृत्त ही जीवनमुक्त है’ आशय के श्लोक बहुधा आते है तथा जगतभ्रम की व्याख्या अनेक संदर्भो में विभिन्न रूपों में की गयी है।
भ्रमस्य जागतस्यास्य जातस्याकाशवर्णवत् । अपुनःस्मरणं मन्ये साधो विस्मरणं वरम् ॥
अर्थात यह संसार एक भ्रम है। उसी प्रकार से जिस प्रकार रूपरहित अंतरिक्ष का नीलवर्ण का होना भ्रम है। इसे इस प्रकार भुला देना चाहिए कि कभी इसका स्मरण न हो। (This world-appearance is a confusion: even as the blueness of the sky is an optical illusion. I think it is better not to let the mind dwell on it, but to ignore it.)
ग्रंथ में दृश्यभ्रम, जगतभ्रम की बात बारंबार अनेक रूपों में आती है। यह बात भी आती है कि मस्तिष्क के भ्रमित तथा पक्षपातपूर्ण होने से इस सत्य का सहज बोध नहीं होता।
मस्तिष्क की प्रवृत्ति को स्पष्ट करने के लिए एक काग का उदाहरण भी बारंबार आता है जिसके नारियल के पेंड़ पर बैठने और उसी क्षण पेंड़ से नारियल का फल गिरने में कोई कार्य-कारण सम्बंध नहीं होते हुए भी मस्तिष्क उनके सम्बंधित होने की कहानी बना लेता है। जीवन और जगत भी इसी प्रकार का है। मस्तिष्क हर ‘क्यों’के उत्तर के रूप में वास्तविक के स्थान पर भ्रमित तर्क से आभासी संरचनायें कर लेता है। ग्रंथ अनेक कहानियों और दृष्टान्तों के माध्यम से मस्तिष्क को पक्षपातों से परे हो प्रत्यक्ष एवं वास्तविक सत्य देखने की बात करता है – अनंत चैतन्य से अविभाज्य एकत्व। ग्रंथ में यह भी बारम्बार आता है कि मस्तिष्क के पक्षपाती होने से इस सत्य को समझना कठिन तो है परंतु इसका बोध होना असम्भव नहीं है।
कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के लोकप्रिय विज्ञान लेखक तथा संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के प्रो डॉनल्ड हॉफ़मैन ने ‘क्या हम वास्तविकता को उसी प्रकार देखते हैं (Do we see reality as it is?)’ विषय पर अध्ययन के साथ साथ अनेक लोकप्रिय व्याख्यान भी दिए हैं। प्रो हॉफ़मैन चैतन्य (consciousness) का अध्ययन गणितीय प्रतिरूपों (mathematical models) तथा प्रयोगों से करते रहे हैं। अपने अध्ययनों के सार समझाने के लिए वे उदाहरण देते हैं कि जिस प्रकार पृथ्वी के समतल होने की मान्यता मस्तिष्क स्वाभविक ही स्वीकार कर लेता है तथा अनेक वर्षों तक हम वही वास्तविकता समझते रहे उसी प्रकार जगत के लिए मस्तिष्क जो देखना चाहता है उसका निर्माण कर लेता है।
विकासवादी मनोविज्ञान तथा तंत्रिका विज्ञान की सहायता से उन्होंने एक सिद्धांत दिया जिसे वे ‘Fitness Beats Truth Theorem’ कहते हैं अर्थात मस्तिष्क वस्तुओं का ग्रहणबोध और प्रतिरूप निर्माण वास्तविकता के आधार पर नहीं करता परंतु इस आधार पर करता है जिससे हमारी उत्तरजीविता सुनिश्चित हो। मस्तिष्क वास्तविकता (यदि होती है) देखने के स्थान पर वह देखता है जो भ्रमित कर हमारी उत्तरजीविता सुनिश्चित करे। क्रीड़ा सिद्धांत तथा आनुवांशिक कलन विधि (game theory and genetic algorithms) का उपयोग कर अपने अध्ययनों में उन्होंने यह पाया कि मस्तिष्क का कार्य वास्तविकता देखना नहीं वरन उत्तरजीविता के लिए आभासी सत्य का निर्माण करना है।
सनातन संदर्भ में योगवासिष्ठ मात्र एक संदर्भ है। अनेक ग्रंथों में यह दर्शन उपस्थित है। कालांतर में नागार्जुन ने भी वस्तुओं और घटनाओं के घटित होने पर यही सिद्धांत दिया था कि निर्वात (space) इत्यादि के वास्तविक स्वरूप को परिभाषित करना कठिन है। वस्तुओं और घटनाओं का स्वरूप मस्तिष्क द्वारा निर्मित होता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वे वस्तुयें हैं नहीं परंतु यह है कि वे हमारे मस्तिष्क के लिए उस आभासी रूपों में हैं जिनमें उन्हें वह देखना चाहता है। प्रतीत होते हुए भी वे उन वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप नहीं हैं वरन वे उस रूप में भासती हैं। प्रो हॉफ़मैन के लोकप्रिय अध्ययन और इसमें भला क्या अंतर है?
“जैसे रस्सी में भ्रम से सर्प भासता है और मनुष्य भय से कम्पायमान होता है, काँपना भी तब तक है जब तक सर्प का अनुभव अन्यथा नहीं होता; जब रस्सी का अनुभव उदय होता है तब सर्पभ्रम नष्ट होता है। उसी प्रकार जैसा अनुभव चित्त संवित् में दृढ़ होता है उसी का अनुभव होता है।”
गणितीय सूत्रों से तथा मनोविज्ञान के उपयोग से भी निष्कर्ष तो शब्दश: यही है न? योगवासिष्ठ में तो अनेक रूपों में इस सिद्धांत का प्रतिपादन है। इंद्रियों से लेकर चैतन्य के विभिन्न स्तरों का भी वर्णन है (जिसकी चर्चा हमअन्य लेखांशों में कर चुके हैं)।
प्रो हॉफ़मैन के कृत्रिम प्रतिरूपों (simulation) से इन सिद्धांतों का समर्थन एवं प्रसार ही कहा जा सकता है। जगत के वास्तविक स्वरूप की समझ को जहाँ ये आधुनिक सिद्धांत समझ के परे मान ले रहे हैं, वहीं सनातन दर्शन में इसकी समझ को कठिन पर असम्भव नहीं कहा गया। एक अन्य रोचक अवलोकन यह भी है कि इस सिद्धांत पर मात्र योगवासिष्ठ में ही अनेक उदाहरण एवं कहानियाँ हैं परंतु आधुनिक पश्चिमी विज्ञान के लिए यह कितना नूतन एवं अज्ञात है, यह इस साक्षात्कार से स्पष्ट है :
There’s a metaphor that’s only been available to us in the past 30 or 40 years, and that’s the desktop interface. Suppose there’s a blue rectangular icon on the lower right corner of your computer’s desktop — does that mean that the file itself is blue and rectangular and lives in the lower right corner of your computer? Of course not. But those are the only things that can be asserted about anything on the desktop — it has color, position and shape. Those are the only categories available to you, and yet none of them are true about the file itself or anything in the computer. They couldn’t possibly be true. That’s an interesting thing. You could not form a true description of the innards of the computer if your entire view of reality was confined to the desktop. And yet the desktop is useful. That blue rectangular icon guides my behavior, and it hides a complex reality that I don’t need to know. That’s the key idea. Evolution has shaped us with perceptions that allow us to survive. They guide adaptive behaviors. But part of that involves hiding from us the stuff we don’t need to know. And that’s pretty much all of reality, whatever reality might be.
यह उदाहरण नवीन है परंतु अनेकोनेक उदाहरण सनातन ग्रंथों में भरे पड़े हैं! योगवासिष्ठ में ही अनेक हैं, यथा – समुद्र-तरंग, सर्प-रस्सी, घट-आकाश, काठकी यन्त्र पुतली, अनेक स्वाँग धरने वाला नटुआ, जैसे बालक दौड़ता है तो उसको सूर्य भी दौड़ता भासता है और स्थित होने पर स्थित भासता है, परन्तु सूर्य ज्यों का त्यों है, जैसे वर्षाकाल का एक ही मेघ नानारूप होकर स्थित होता है,
जैसे स्वप्न में कोई अपना शिर कटा देखता है, जैसे आकाश में काल्पनिक फूल की रचना भ्रमरूप है,
जैसे बालक को परछाहीं में बैताल भासता है, जैसे बन्ध्या के पुत्र और आकाश में वृक्ष, जैसे एक शिला में पुरुष प्रतिमा कल्पता है तो शिला में तो प्रतिमा कोई नहीं, ज्यों की त्यों शिला ही है! इत्यादि। अनगिनत।