भारत में विवाह संस्था पर सङ्कट गहरा रहा है। इस लघु लेख में निकाह या मैरेज पर नहीं, विवाह पर बात की जायेगी, वह भी उसके केवल एक पक्ष ‘Decriminalise Hindu Polygyny बहुविवाह से अवैधानिकता हटनी चाहिये’ पर। उस विवाह पर जो दो विपरीतलिङ्गियों के बीच होता है (अब तो समलैंगिक भी होने लगे हैं और स्त्री-पुरुष के साथ रहने के जाने कितने विकल्प भी प्रचलित हो चुके हैं )।
सूचना क्रांति, तीव्र गति से बढ़ते नगरीकरण, सामाजिक सञ्चार माध्यम एवं समान अवसरों के प्रति जनसामान्य की सामान्य स्वीकृति ने विवाहसंस्था को तनाव दिये हैं, दे रहे हैं।
जब भी विवाह पर बात होती है तो निम्न बिंदु स्वाभाविक ही उठने लगते हैं –
(१) घरेलू हिंसा व अत्याचार
(२) समझौतों के भार तले पिसता व्यक्तित्व
(३) सम्पत्ति
(४) संतति
(५) विच्छेद
(६) विधिक प्रावधान
टुकड़ा टुकड़ा ये विषय लघु व बृहद स्तरों पर उठते रहे हैं। उस समाज में जिसमें विवाह-विच्छेद आज भी अपेक्षतया कठिन है और जो समय के साथ अपने को ढालने में आगे रहता है; इन समस्याओं पर पर्याप्त काम हो रहा है। हम इन बिंदुओं पर विचार नहीं करेंगे। हम केवल ‘बहुविवाह’ पर केंद्रित रहेंगे।
बहुविवाह कोई अनूठी बात नहीं है, जब विधिक प्रतिबंध नहीं था, तब भी बहुविवाह अत्यल्प ही प्रचलित थे, बहुधा जो समर्थ थे वही करते थे। संख्या उतनी नहीं थी कि उसे विवाह संस्था की सकल गुणवत्ता को प्रभावित करने वाला बड़ा कारक माना जा सके। विधिक प्रतिबंध लगाया क्यों गया? सरल सा उत्तर है, स्त्रीपक्ष को ध्यान में रख कर किंतु वहीं बहुनिकाह पर कुछ नहीं किया गया क्योंकि एक पुरुष हेतु चार निकाह अनुमन्य हैं। परंतु वहाँ भी आदेश नहीं है कि चार निकाह करने ही करने हैं! यही स्थिति विवाह के साथ भी थी, बहुविवाह करना ही करना है, ऐसा आदेश नहीं, अनुमन्य है, प्रतिबंध भी नहीं। जब दोनों स्थितियाँ समान थीं तो बहुनिकाह को छोड़ कर बहुविवाह पर ही प्रतिबंध क्यों लगाया गया? इसका उत्तर भी सरल है, जिसे स्वीकारते कष्ट होता है – स्त्री कल्याण की उत्साही बाढ़ पान्थिक जड़ता के आगे थम गई, उसे परिवर्तित करने का साहस न तब था, न आज है।
स्पष्ट है कि ऐसे कारक सदैव रहे और आज भी हैं जिनके आगे सारी प्रगतिगामिता पानी भरने लगती है। यह भेद-भाव है, और कुछ नहीं। बहुविवाह से प्रतिबंध उठाने की माँग से भेदभावमूलक विधिक प्रावधानों को हटाने हेतु दबाव बढ़ेगा और यही होना भी चाहिये। रक्षात्मक नीति से आक्रामक नीति अधिक उपयुक्त होगी। भेदभावमूलक प्रावधानों पर आक्रमण में एक नया पक्ष जोड़ा जाना चाहिये। अस्तु।
स्त्री हित हेतु बता कर बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाया गया। एक देशव्यापी सर्वेक्षण के अनुसार १.७७% स्त्रियों ने यह स्वीकार किया कि उनके पति बहुविवाह किये हैं। प्रश्न यह है कि प्रतिबंध नहीं होता तो क्या यह प्रतिशत इससे अधिक होता? पूरी सम्भावना है कि नहीं होता और यदि होता भी तो कितना अधिक हो जाता? स्पष्ट है कि विधिक प्रावधान बहुविवाह को रोकने में असफल रहे हैं, जहाँ आवश्यकता है वहाँ लोग कर रहे हैं, साथ ही ‘विधिक अपराधी’ भी बन रहे हैं। यह पूर्णत: भ्रामक है कि बहुविवाह पर रोक से स्त्रियों की दशा में सुधार हुआ।
यौन जिहाद, सम्पत्ति हड़पने की कूट योजनाओं आदि को देखें तो वस्तुस्थिति उलट है। स्त्री प्रताड़ित ही हो रही है। अत्यल्प अपरिहार्य परिस्थितियों में उसे जो सुरक्षा वैधानिक बहुविवाह से मिलती, वह नहीं मिल पा रही। यह उपयुक्त समय है कि हिन्दू पुरुषों हेतु दो विवाहों को वैधानिक रूप से अनुमन्य किया जाय, जाने कितने जीवन नरक होने से बच जायेंगे। संख्या को दो तक सीमित रखने से जटिलता की सम्भावनायें अल्प होंगी तथा जो सक्षम होंगे वे ऐसा कर जाने कितने अनर्थ रोक सकेंगे।
पहली पत्नी व उसकी संतानों के हित सुनिश्चित करने हेतु कठोर विधिक प्रावधान व पूर्व-निकष रखे जा सकते हैं। दुहरा दूँ कि तब भी बढ़ती हुये नगरीकरण एवं विकासपरक जटिलताओं के कारण नियंत्रण स्वत: ही रहेगा और बहुविवाहों की संख्या अत्यल्प ही रहेगी। जो सक्षम होंगे, वही करेंगे। नगरीकरण बढ़ने एवं कृषि पर निर्भरता घटने के साथ ही बहुविवाह की सम्भावनायें वैसे ही घटती जायेंगी, इसे वैधानिक रूप से अपराध बना कर रखने का कोई औचित्य नहीं है, अनावश्यक भी है।
यह एक ऐसा विषय है जिस पर विचार किये जाने की आवश्यकता है। प्रतिक्रियावादियों की ओर से स्वर उठेंगे कि स्त्री को भी यह स्वतंत्रता मिलनी चाहिये जिसका बहुत ही सरल सा उत्तर है कि इस लेख में ‘आमूल चूल क्रांति’ की कोई प्रस्तावना नहीं लिखी गयी है, यथास्थिति के भीतर एक बड़ी समस्या पर ध्यान आकर्षित कराया गया है।
संक्षेप में ही स्पष्ट करने पर भी फेमिनिस्टों एवं कथित प्रोग्रेसिव जन की आपत्तियाँ आयेंगी, अधिकांश तो उठाये गये बिंदुओं पर बिना विचार के आयेंगी। उन पर अधिक ध्यान न दे, वास्तविकता पर ध्यान दिया जाना चाहिये।