स्टैंफ़र्ड विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध वैज्ञानिक तथा जीव विज्ञान एवं तंत्रिका विज्ञान (Neuroendocrinology) के प्रोफ़ेसर रॉबर्ट सपोल्सकी की एक अत्यंत लोकप्रिय एवं बहुचर्चित पुस्तक है Behave: The Biology of Humans at Our Best and Worst, जिसमें उन्होंने मानव व्यवहार का अत्यंत रोचक एवं महत्त्वपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक में जीव विज्ञान, मस्तिष्क की संरचना, अंतः स्रावों, तथा जीवों के उत्तरोत्तर विकास की प्रक्रिया और उसके मानव व्यवहार पर प्रभाव की विस्तृत चर्चा है। साथ ही समाज, आयु, गुण सूत्रों इत्यादि के मानव व्यवहार पर प्रभाव के क्षेत्र में हो रहे अत्याधुनिक शोधों की भी रोचक चर्चा है। पुस्तक यह स्पष्ट करती है कि व्यक्ति जो निर्णय लेते हैं, वे क्यों लेते हैं – मानव व्यवहार के क्षणिक, प्रतिक्रियात्मक से लेकर चिरकालिक कारणों की चर्चा इस पुस्तक में है। पुस्तक में अनेक अध्ययनों तथा उनसे व्युत्पन्न सिद्धांतों एवं परिकल्पनाओं की चर्चा है।
इस लेखांश में एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत का अवलोकन करते हैं जो ‘Feeling Someone’s Pain, Understanding Someone’s Pain, Alleviating Someone’s Pain’ शीर्षक अध्याय के अंतर्गत वर्णित है।
दूसरों के दुःख से दुखी होना तथा संवेदना, सहानुभूति एवं करुणा से जुड़े आधुनिक अध्ययन तथा मस्तिष्क के विभिन्न भागों के अध्ययनों से एक रोचक तथ्य उद्घाटित होता है। व्यक्ति यदि किसी अन्य व्यक्ति को पीड़ा में देखता है तो उसे भी उस पीड़ा की अनुभूति होती है। यथा, किसी दुर्घटना के पश्चात रक्त बहता देख मस्तिष्क में पीड़ा की अनुभूति से जुड़े भाग सक्रिय हो जाते हैं। मस्तिष्क के ये भाग हमें यह नहीं बताते कि पीड़ित व्यक्ति को कहाँ पीड़ा हो रही है या हमारे स्वयं के अंगों में पीड़ा होने पर मस्तिष्क के सक्रिय होने वाले भाग भी इस अवस्था में सक्रिय नहीं होते, परंतु एक प्रकार से हमें पीड़ा की परिभाषा की अनुभूति होती है। वे भाग सक्रिय होते है जो मानों हमें पीड़ा की व्याख्या बता रहे हों – संवेदना की अनुभूति सदृश। इस सक्रियता से जनित संदेश शरीर के अन्य भागों में भी पहुँचते हैं।
परंतु संवेदना एवं दूसरों की पीड़ा की अनुभूति (empathy) क्या व्यक्ति को उचित कर्म करने या अन्य व्यक्तियों की सहायता करने के लिए भी प्रेरित करते हैं?
अर्थात् क्या अति संवेदनशीलता का परिणाम करुणा (compassion) या नैतिक उचित कर्म के रूप में भी होता है? किसी को पीड़ा में देखकर भीड़ का कौन सा व्यक्ति सहायता करके के लिए आगे आता है और कौन सा व्यक्ति उसे उसी अवस्था में छोड़ आगे बढ़ जाता है?
इस नैतिक प्रश्न का उत्तर मनोविज्ञान एवं जीव विज्ञान के आधुनिक शोधों से मिलता है – जितनी तीव्रता से व्यक्ति को संवेदना की अनुभूति होती है, सहायता के लिए कर्म करने की प्रवृत्ति उस व्यक्ति में उतनी ही अल्प होती है।
पीड़ा का दृश्य देखकर जिस व्यक्ति की हृदयगति बढ़ जाती है, रक्तचाप में अतिशय वृद्धि हो जाती है तथा जिनके सहानुभूति वाले तंत्रिका तंत्र अतिशय रूप से सक्रिय हो जाते हैं, ऐसे व्यक्ति सहायता के लिये सक्रिय न हो अचेतन में ऐसा सोचने लगते हैं कि उन्हें ऐसी अवस्था में स्वयं कितनी पीड़ा होती और वे वहाँ से दूर हो जाते हैं। वे यह दृश्य अधिक समय तक देख नहीं पाते।
इसके विपरीत जो व्यक्ति निष्पक्ष रूप से, अनासक्त भाव से, अवस्था का आकलन कर पाते हैं, वे कठिन अवस्था में मुँह न मोड़ समुचित कार्य करते हैं। अर्थात् संवेदना तथा अनुभूति के अतिशय प्रवाह से जो प्रभावित नहीं होते, वे ही साहस कर समुचित कार्य कर पाते हैं। इसे ऐसे भी सोचा जा सकता है कि दूसरों की विपदा के समय अत्यंत सहानुभूति दर्शाने वाले तथा चिंतामग्न हो जाने वाले व्यक्ति बहुत कुछ नहीं कर पाते। अर्थात् संवेदना के साथ अनासक्त होना अति आवश्यक है।
पुस्तक में इस निष्कर्ष को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है। प्रो सपोल्सकी स्वयं भी इस सिद्धांत को सनातन दर्शन से जोड़े बिना नहीं रह पाते –
…saying “I feel your pain,” becomes a New Age equivalent of the unhelpful bureaucrat saying, “Look, I sympathize with your situation, but . . .” The former is so detached from action that it doesn’t even require the “but” as a bridge to the “there’s nothing I can/will do.”
…In other words, empathic states are most likely to produce compassionate acts when we manage a detached distance. This brings to mind the anecdote about the Buddhist monk I encountered… And this is certainly in line with the Buddhist approach to compassion, which views it as a simple, detached, self-evident imperative rather than as requiring vicarious froth. You act compassionately toward one individual because of a globalized sense of wishing good things for the world.
पुस्तक बौद्ध भिक्षुओं पर कराए गए अध्ययनों का संदर्भ भी देती हैं जिनमें विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय तथा जर्मनी के मैक्स प्लैंक सस्थान में सामान्य अवस्था तथा ध्यान की अवस्था में बौद्ध भिक्षुओं के मस्तिष्क का अध्ययन किया गया। इन अध्ययनों में विभिन्न अवस्थाओं में मस्तिष्क के विभिन्न भागों में सक्रियता से स्पष्ट हुआ कि किस प्रकार सनातन दर्शन इन आधुनिक आविष्कारों से मेल खाता है। सामान्य मस्तिष्क में सहानुभूति से असहनीय पीड़ा होने के स्थान पर बौद्ध भिक्षुओं में ‘a warm positive state associated with a strong prosocial motivation’ का अवलोकन किया गया।
अर्थात् अर्थपूर्ण एवं नैतिक कार्य वही कर पाता है जो अनासक्त होकर यथास्थिति का अवलोकन कर पाता है। अपने प्रिय व्यक्तियों के पीड़ित होने की अवस्था में तथा स्वयं के कार्यों में भी एक स्तर की अनासक्ति हमें उचित कर्म करने को प्रेरित करती है। कर्म करने के लिए अनासक्त होने की इस मानसिक अवस्था के अध्ययन के लिए सनातन दर्शन से उत्तम स्रोत क्या हो सकता है? यह सिद्धांत मस्तिष्क एवं तंत्रिका तंत्र के अध्ययन से भले आया हो, प्रो रॉबर्ट सपोल्सकी स्वयं इसके लिए एक साक्षात्कार में कहते हैं –
In a sense that that’s the autonomic nervous system equivalent of sort of Buddhist views of you need a certain detachment, you need a certain distance. परंतु साथ में वह इसकी कठिनाई भी बताना नहीं भूलते – And all-star Buddhist monks apparently meditate eight hours a day, not a trivial path to take. The point is merely to emphasize this scenario of detachment.
Detachment अर्थात् अनासक्ति। इसका एक निष्कर्ष यह भी है कि आसक्ति में एवं भावना में बहकर कभी अर्थपूर्ण निर्णय और कार्य नहीं किए जा सकते। सहानुभूति के साथ-साथ अनासक्त अवलोकन की कहीं अधिक आवश्यकता है। तभी उसे करुणा तथा समुचित कर्म में परिवर्तित किया जा सकता है – स्वजनों के लिए भी एवं बृहत् स्तर पर मानवता के लिए भी, अन्यथा व्यक्ति सोचता ही रह जाएगा और चिंतित भी रहेगा। ‘अनासक्ति’ सनातन दर्शन के एक स्तम्भ सदृश है, जिसकी परिचर्चा हमने अनेक पूर्व के लेखांशों में भी की है, जिसका दैनिक जीवनचर्या में विनियोग कर स्वतः ही व्यक्तित्व का भाग बना देना वरेण्य है।
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