Do Animals have Moral मानवेतर जीव-चेतना होती है? क्या अन्य जीवों को भी अनुभूति होती है? क्या वेे भी सोच पाते हैं? ये प्रश्न या तो अन्य परम्पराओं में उठे ही नहीं या इनके उत्तर सकारात्मक नहीं रहे। वहीं इन प्रश्नों के उत्तर सनातन दर्शन में सहज ही स्पष्ट हैं।
सनातन परम्परा में जीव जन्तुओं के प्रति दया सर्वश्रेष्ठ आचरण माना गया है। अन्य धर्मों में जहाँ मानवेतर जीवों को मनुष्य के लाभ के लिए निर्मित माना गया वहीं सनातन धर्मों में अन्य जीवों को भी समान प्राण-धारी मान कर उन पर समभाव से दया करने की शिक्षा दी गयी। हर प्रकार के जीवों में एक ही प्राण ऊर्जा धारी मात्र, विभिन्न योनियों में होने का दर्शन है। सनातन दर्शन के परे पशुओं को मानव उपभोग की वस्तु माना गया और यह भी कि उनमें कोई चेतना नहीं होती। क्या अन्य जीवों को भी अनुभूति होती है? क्या वे भी सोच पाते हैं? ये प्रश्न या तो अन्य परम्पराओं में उठे ही नहीं या इनके उत्तर सकारात्मक नहीं रहे। वहीं इन प्रश्नों के उत्तर सनातन दर्शन में सहज ही स्पष्ट हैं।
अधिक क्या, ग्रंथों में मानव के ही अनेक योनियों में जन्म लेने के दृष्टांत मिलते हैं। पशुओं की सेवा तथा यज्ञ एवं नित्य कर्म में पशुओं को भोजन का एक अंश, बलिभाग, देने का विधान है। संस्कारों के अनुसार पशुओं से सम्बंधित इन प्रश्नों के उत्तर मनुष्य के पास विभिन्न होते हैं। सनातन ग्रंथों में तो इन प्रश्नों के उत्तर के लिए संदर्भ की भी क्या आवश्यकता? सारे ही ग्रंथों में अहिंसा, जीवों के प्रति दया की बात है। कहानियों में भी जीवों के पुनर्जन्म इत्यादि के अनेकोनेक संदर्भ हैं। जैन दर्शन में तो अन्य जीवों के प्रति जिस भावना की बात है, वह तो अद्वितीय ही है। बौद्ध दर्शन में भी करुणा मुख्य है। धम्मपद से लेकर जातक कथाओं में अनेक योनि के जीवों की अनेक कथाएँ हैं।
अहिंसा पर महाभारत का एक प्रसिद्ध श्लोक है –
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दमः। अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः॥
धर्म का लक्षण ही अहिंसा कहा गया है तथा प्राणियों का वध अधर्म –
अहिंसा लक्षणो धर्मोऽधर्मश्च प्राणिनां वधः। तस्मात् धर्मार्थिभिः लोकैः कर्तव्या प्राणिनां दया॥
सभी शास्त्रों में अनुमोदित मनुष्य के कल्याण के मार्ग के सार रूप में प्राणी हिंसा से दूर रहना तथा जीवों पर दया करने को भर्तृहरि इस प्रकार बताते हैं –
प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम्।
तृष्णास्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसामेष पन्थाः॥
इस दर्शन के लिए संदर्भों की भला क्या आवश्यकता, यह तो सनातन दर्शन का मूल ही है। चाणक्य भी लिखते हैं – जिस मनुष्य का हृदय सभी प्राणियों के लिए दया से द्रवीभूत हो जाता है, उसे भला ज्ञान, मोक्ष, जटा, भस्म-लेपन इत्यादि से क्या लेना!
यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु। तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलेपनैः॥
अन्य योनियों में पड़े जीवों की चेतना, उनके उत्तरोतर उत्थान, पतन एवं उनकी नैतिकता की भी अनेकों कहानियाँ हैं। अर्थात जीवों के सोचने, सामाजिक होने, उनके भीतर भी चेतना होने का दर्शन सनातन दर्शन के मूल में है।
आधुनिक मनोविज्ञानियों तथा जीव विज्ञानियों ने इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने के प्रयास किये हैं। वर्षों तक जहाँ जीवों को बिना भावना के समझा जाता रहा, वहीं विगत वर्षों में हुए अनेक शोधों में सनातन दर्शन के बातों की अक्षरश: पुष्टि होती है। वर्ष २०११ में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक जोशुआ प्लोटनिक और उनके सहयोगियों ने एक अध्ययन में पाया कि हाथियों के झुण्ड न केवल सोच पाते हैं, वरन सामाजिक सहयोग भी करते हैं। नयी परिस्थिति को समझ व मिल-जुल कर उसका हल भी ढूँढ लेते हैं।
कोको नामक गोरिल्ला सांकेतिक भाषा सीखने के लिए प्रसिद्ध हुआ तो ऐलेक्स नामक तोते पर अध्ययन से यह स्थापित हुआ कि विशाल जीव ही नहीं, पक्षी भी भाषा और समझ की जटिलताएँ समझ लेते हैं। पश्चिमी जनमानस में इन अध्ययनों से पहले यह मान्यता थी कि पक्षियों में बुद्धि नहीं होती तथा वे मात्र अनुकरण कर पाते हैं। सनातन परम्परा के इतर यदि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो अन्यत्र यही मान्यता रही कि उपकरणों तथा भाषा का उपयोग केवल मनुष्य ही कर सकते हैं। पशुओं में सामाजिक गुण होना तो भला इन समाजों में कौन सोच सकता था?
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से ये मान्यतायें परिवर्तित होनी शुरू हुई। विगत वर्षों के अध्ययनों से पता चलता है कि जीव जंतु सामाजिक सहयोग तो करते ही हैं, वे इसका उपयोग अपनी उत्तरजीविता के लिए भी करते हैं। समाजिकता और सम्बन्धों के लिए मानवी अंत:स्राव के ही समरूप वर्ष २००९ में जीवविज्ञानियों ने पक्षियों में भी एक अंत:स्राव ढूँढ निकला। इसी प्रकार ऐसे हार्मोन अन्य अनेक जीवों में भी पाए गए। अध्ययनों में यह भी पाया गया कि किस प्रकार अनेक जीव न केवल सामाजिक होते हैं, वरन वे एक दूसरे को वंंशानुक्रम में आवश्यक गुणों में प्रशिक्षित भी करते हैं।
इसी प्रकार एक अध्ययन में पाया गया कि बंदर एक दूसरे को धोखा देना भी जानते हैं। मनोवैज्ञानिक फ़्रेड्रीका अमिचि ने एक प्रयोग में दिखाया कि किस प्रकार बंदरों की एक प्रजाति डब्बे से भोजन निकालने की कला सीख लेने के उपरान्त एकांत में तो भोजन निकाल लेते, पर अन्य प्रतिस्पर्धी बंदरों के समक्ष अनजान बने रहते। मुद्रा के प्रयोग, समान कार्य करने पर अल्प भुगतान के लिए रोष जैसे अनेक प्रयोगों ने पशुओं में बुद्धिमता होने की पुष्टि की है। ऐसे प्रयोगों में जीव जन्तुओं के सामाजिक तथा तार्किक होने के अनेकों प्रमाण मिले हैं। विविध प्रजातियों में नैतिकता के भी स्पष्ट प्रमाण मिले हैं।
चिम्पांज़ी अपने समूह के अनाथ बच्चों को गोद ले लेते हैं तथा उनका पालन पोषण करते हैं। मनोविज्ञान में ऐसे अनेक अध्ययन हैं जो मानवेतर प्राणियों में भावनाओं की पुष्टि करते हैं। लम्बी सूची है। उनके सोचने की क्षमता और उन्हें अनुभूति होने की बात करने वाले भी अनेक शोध हैं। स्वाभाविक सी प्रतीत होने वाली ये बातें अनेकों धर्मों तथा संस्कृति के लोगों को समझ आनी इतनी स्वाभाविक भी नहीं हैं। वर्ष २०१२ में वैज्ञानिकों के समूह ने अधिकारिक रूप से घोषित किया कि अन्य जीव जंतुओं में भी चेतना होती है।
सनातन परम्परा से परिचित व्यक्ति के लिए इन अनेकोनेक शोधों में भला नया क्या है?