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सेवा में,
श्रीमान मुख्यमन्त्री जी
संयुत प्रान्त
महोदय,
मैं संजय कुमार, पुत्र श्री हरिहर दास, ग्राम – अजनाउर, जिला – नौरुख के लघु माध्यमिक विद्यालय में नवनियुक्त शिक्षक हूँ। मैं यह पत्र जिस चौकी पर बैठ कर लिख रहा हूँ, वह विद्यालय के परित्यक्त पुराने भवन के ओसारे में रखी है जिस पर बैठे दो अन्य जन मेरे साक्षी हैं। आज विद्यालय में मेरा पहला दिन था । कुल पाँच अध्यापकों में से तीन उपस्थित थे । जिस समय मैं लिख रहा हूँ, उस समय के लिये ‘था’ लिखना ठीक नहीं क्यों कि समय सरिणी अनुसार विद्यालय अभी भी खुला हुआ है, परित्यक्त भवन में एक शिक्षक उपलब्ध है जिसने आज दो कक्षाओं में पढ़ाया ।
मुझे ज्ञात नहीं कि ठीक किया या नहीं, पहली घण्टी में जब पढ़ाने गया तो आगे बैठी बालिका की आँखों में ऐसा कुछ दिखा कि मैं गणितज्ञ भास्कर की लीलावती पर चर्चा करने लगा । विश्वविद्यालय के अपने छात्र जीवन में मैंने जाने कितनी भावी लीलावतियों को समाज के प्रति उलाहने एवं नकारात्मकता से गहराई तक भरा जाता देखा, तब जब कि उन्हें वे समस्त अवसर एवं सुविधायें प्राप्त थीं जिनका उपयोग वे अपने को निखारने में कर सकती थीं।
मेरे समक्ष बैठी लीलावती जब विश्वविद्यालय पहुँचे तो भावना दोहन एवं दुष्प्रचार के बहाव में ऊर्जा एवं समय का दुरुपयोग न करे, यह सुनिश्चित करने हेतु वह मेरा लघु प्रयास मात्र था । मुझे नहीं पता कि पाठ्यक्रम से परे पढ़ा कर मैंने उचित किया या नहीं, साथ ही मुझे यह भी समझ में नहीं आता कि विद्यालयों में भास्कराचार्य की रचना लीलावती पढ़ाई क्यों नहीं जाती ? आप को ज्ञात हो तो किसी सार्वजनिक मञ्च से भाषण में ही बता दें तो कृपा होगी ।
गणित एवं जम्हाइयों के सम्बन्ध में मैंने सुना ही नहीं, देखा भी है । दूसरी कक्षा में मुझे रेखागणित पढ़ाना था, लीलावती में खोया मैं वृत्त की परिधि एवं व्यास के अनुपात π के बारे में पढ़ाने लगा ।
व्यासे भनन्दाग्नि हते विभक्ते , खबाणसूर्यैः परिधिस्तु सूक्ष्मः ।
भ अर्थात नक्षत्र 27 होते हैं, इतिहास में 9 नन्द हुये, अग्नि 3 प्रकार की होती है। अङ्कानां वामतो गति: अर्थात उल्टे क्रम में लिखने पर मिलता है 3927 । ख आकाश है 0, कामदेव के बाण 5 पुष्प होते हैं, बारह महीनों में सूर्य के 12 नाम हैं। उल्टे क्रम में लिखने पर मिलता है 1250 । 3927 को 1250 से भाग देने पर π का चार स्थानों तक शुद्ध मान 3.1416 प्राप्त होता है ।
मुझे सन्तोष है कि π के बारे में बताते हुये मैंने उन विद्यार्थियों के मन में खगोलविद्या, इतिहास, भौतिकी, आयुर्वेद, वनस्पतिशास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र एवं संस्कृत के प्रति उत्सुकता भर दी है । गणित की कक्षा में जम्हाइयाँ नहीं थीं एवं उत्साहित बच्चे प्रश्न पूछते ही जा रहे थे । रेखागणित की शासनमान्य पुस्तक रखी ही रह गई, न मैंने खोली, न उन्हों ने ।
मैं अपनी धुन में तीसरी कक्षा में जा ही रहा था कि छुट्टी की घण्टी बज गयी । दबे ढके से पता चला कि आकस्मिक निरीक्षण होने वाला है अत: छुट्टी करनी पड़ेगी । आकस्मिक निरीक्षण का पहले ही पता पड़ जाय ! सूचना तन्त्र की दक्षता पर गर्व हो आया कि मैं ऐसे तन्त्र का भाग हूँ कि तभी भीतर ज्यों पानी का एक सोता सा फूट पड़ा जो मेरे समस्त उत्साह, समस्त प्रसन्नता एवं गर्व को बहाता चला गया । बुझे मन से मैंने पूछा कि जब यहाँ कोई नहीं मिलेगा तो पूछने पर उत्तर क्या देंगे ? अन्य सहयोगी अध्यापक मुझे ऐसे देखने लगे मानों मुझसे बड़ा कोई मूर्ख नहीं – नये हो, धीरे धीरे सब पता पड़ जायेगा !
मैं लीलावती रूपी आकाश से सीधे यथार्थ रूपी धरती पर आ गिरा परन्तु भीतर कुछ बचा था जो मैंने कह दिया कि मैं यहीं रहूँगा , विद्यालय बन्द होने के समय तक । प्रतीक्षा के समय का उपयोग मैंने इस पत्र को लिखने में किया है ।
सोच रहा हूँ कि जिस शिक्षा तन्त्र से हम गढ़े जाते रहे हैं, गढ़े जा रहे हैं, मैं भी उस की धारा में बहा होता तो क्या आज लीलावती से पढ़ा पाता ? आत्ममुग्धता या प्रशंसा नहीं किन्तु कितने विश्वविद्यालयीय विद्यार्थी ऐसे शिक्षक हो सकते हैं ? जो हैं भी, उनका उत्साह कितने समय तक बना रह सकता है ?
मुझे नहीं पता कि आज आगे क्या होगा, न यह कि कल सहयोगियों का व्यवहार मेरे प्रति कैसा रहेगा किन्तु परित्यक्त भवन में ही सही, मैंने विद्यालय खुला रखा है । कन्हैया हो या कृष्णा, पढ़ने आ सकते हैं । इस आशा के साथ कि आप का कार्यालय भी खुला हुआ है,
सादर,
संजय
why we indians have kept this ” leelawati ” as something mysterious .
you should talk more openly , frequently on the sutras given in this book .
bahut badhiya !
aapka utsah yoon hi bna rhe !
next time pl give more examples from leelawati .