Fire ordeal अग्निपरीक्षा, पिछले अङ्क ४९ से आगे
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राक्षसाः कोपकर्शिताः। वेष्टयन्ति स्म लाङ्गूलं जीर्णैः कार्पासकैः पटैः॥[1]
कपि संवेष्ट्यमाने लाङ्गूले व्यवर्धत महाकपिः। शुष्कमिन्धनमासाद्य वनेष्विव हुताशनः॥
दुरात्मा रावण के आदेशोपरांत महाकपि हनुमान के लाङ्गूल पर क्रुद्ध राक्षसों द्वारा जीर्ण कपास लपेटी जाने लगी। राक्षसों द्वारा घोर उद्देश्य से किया जाने वाला यह कर्म कपि के उत्साह में वृद्धि का कारण हुआ, वे वैसे ही बढ़ गये जैसे सूखे इन्धन को पा कर आग बढ़ जाती है। यह आगत का सङ्केत था।
तैलेन परिषिच्याथ तेऽग्निं तत्राभ्यपातयन्। लाङ्गूलेन प्रदीप्तेन राक्षसांस्तानपातयत्॥
{2} लाङ्गूलं सम्प्रदीप्तं तु द्रष्टुं तस्य हनूमतः॥ सहस्त्रीबालवृद्धाश्च जग्मुः प्रीता निशाचराः।
स भूयः सङ्गतैः क्रूरैर्राक्षसैर्हरिसत्तमः॥ निबद्धः कृतवान्वीरस्तत्कालसदृशीं मतिम्।
कामं खलु न मे शक्ता निबद्ध[3]स्यापि राक्षसाः॥ छित्त्वा पाशान् समुत्पत्य हन्यामहमिमान्पुनः।
{4} यदि भर्तुर्हितार्थाय चरन्तं भर्तृशासनात्॥ बध्नन्त्येते दुरात्मनो न तु मे निष्कृतिः कृता।
राक्षसों ने लपेटी गयी कपास को तेल से भिगो कर उसमें आग लगा दी। हनुमान ने प्रदीप्त पूँछ से ही राक्षसों को पीटना आरम्भ कर दिया। तब क्रूर राक्षसों ने जुट कर महावीर वानर हनुमान को पुन: बाँध दिया। उन्होंने तत्काल जो करणीय था, उस पर विचार किया – यद्यपि ये राक्षस सक्षम नहीं हैं, तो भी मुझे बाँध दिये हैं। निश्चित ही मैं पुन: छलाँग भरूँगा और बंधन को छिन्न भिन्न कर इनका वध कर दूँगा।
सर्वेषामेव पर्याप्तो राक्षसानामहं युधि॥
किंतु रामस्य प्रीत्यर्थं विषहिष्येऽहमीदृशम्। लङ्का [5]चारयितव्या वै पुनरेव भवेदिति॥
रात्रौ न हि सुदृष्टा मे दुर्गकर्मविधानतः। अवश्यमेव द्रष्टव्या मया लङ्का निशाक्षये॥
कामं बद्धस्य मे भूयः पुच्छस्योद्दीपनेन च। पीडां कुर्वन्तु रक्षांसि न मेऽस्ति मनसश्श्रमः॥
मैं समस्त राक्षसों हेतु युद्ध में पर्याप्त हूँ किंतु राम काज हेतु यह सब सहूँगा। इस प्रकार लङ्का को एक बार पुन: देखने का अवसर भी मिल जायेगा। रात में मैं इनके दुर्गादि का विधान ठीक से नहीं देख पाया था। रात बीत जाने के कारण अब वह सब अवश्य ही देख पाऊँगा। राक्षस मेरी पूँछ में आग लगा कर चाहे जैसे यातना दें तो दें, बाँधें तो बाँधें, मैं थका नहीं हूँ।
ततस्ते संवृताकारं सत्त्ववन्तं महाकपिम्। परिगृह्य ययुर्हृष्टा राक्षसाः कपिकुञ्जरम्॥
शङ्खभेरीनिनादैस्तं घोषयन्तः स्वकर्मभिः। राक्षसाः क्रूरकर्माणश्चारयन्ति स्म तां पुरीम्॥
{6} अन्वीयमानो रक्षोभिर्ययौ सुखमरिन्दमः।
हनुमांश्चारयामास राक्षसानां महापुरीम्॥
अथापश्यद्विमानानि विचित्राणि महाकपिः। संवृतान् भूमिभागांश्च सुविभक्तांश्च चत्वरान्॥
वीथीश्च[7] गृहसम्बाधाः कपिश्शृङ्गाटकानि च।
{8} तथा रथ्योपरथ्याश्च तथैव गृहकान्तरान्॥ गृहांश्च मेघसङ्काशान् ददर्श पवनात्मजः।
चत्वरेषु चतुष्केषु राजमार्गे तथैव च॥ घोषयन्ति कपिं सर्वे चारीक इति राक्षसाः।
{9} स्त्रीबालवृद्धाः निर्जग्मुस्तत्र तत्र कुतूहलात्॥ तं प्रदीपितलाङ्गूलं हनुमन्तं दिदृक्षवः।
दीप्यमाने ततस्तत्र लाङ्गूलाग्रे हनूमतः॥ राक्षस्यस्ता विरूपाक्ष्य श्शंसुर्देव्यास्तदप्रियम्।
तब उन राक्षसों ने सङ्कुचित हुये महाबली महाकपि हनुमान को पकड़ कर सहर्ष आगे बढ़े। शङ्ख, भेरी आदि का निनाद करते हुये एवं उनके द्वारा किये कर्म की घोषणा करते हुये क्रूरकर्मा राक्षस उन्हें लङ्कापुरी में घुमाने लगे। हनुमान राक्षसों की उस महापुरी में आगे बढ़े। महाकपि ने वहाँ सुविभक्त राजमार्गों एवं चत्वरों पर सर्वत्र सुरक्षित एवं विचित्र विमानयुक्त भवन देखे। वीथियों में भवन सङ्कुल थे एवं मनोरम अट्टालिकायें भी थीं। हनुमान के गुप्तचर होने की घोषणा करते हुये सभी राक्षस उन्हें राजमार्गों, चार खम्भों पर निर्मित वेदियों एवं चौराहों से हो कर घुमाने लगे।
जब हनुमान की पूँछ के अग्रभाग पर आग लगाई गई तब विरूपाक्षी राक्षसियाँ यह अप्रिय समाचार ले कर देवी सीता के पास पहुँचीं।
यस्त्वया कृतसंवाद स्सीते ताम्रमुखः कपिः॥ लाङ्गूलेन प्रदीप्तेन स एष परिणीयते।
हिंसक आनंद से भर राक्षसियों ने उन्हें सूचित किया – सीता, जिससे तुम बात कर रही थी न, तुम्हारे उस ललमुँहे वानर की पूंछ में आग लगा घुमाया जा रहा है!
सीता व्यग्र हो उठीं।
कवि कैसे समझाये उस पीड़ा की तीव्रता को? अभिधा, लक्षणा, व्यञ्जना सब व्यर्थ हैं। वाल्मीकि माता की पीड़ा को उस उपमा का सहारा देते हैं जो रामायण में संभवत: एक बार ही प्रयुक्त हुई है :
श्रुत्वा तत् वचनम् क्रूरम् आत्म अपहरण उपमम्।
सूचना देने वाले शब्द क्रूर हैं और उनसे जो पीड़ा हुई है वह वैसी ही है जैसी रावण द्वारा अपहरण के समय उन्हें हुई थी।
सीता देवी के हाथ हुताशन अग्नि से प्रार्थना में जुड़ गये – कपि के लिए शीतल हो जाओ। ‘कच्चित्’ शब्द को ले अद्भुत करने वाले कवि कुल श्रेष्ठ ‘यदि’ शब्द का साथ ले एक अतुलनीय प्रसंग रचते हैं।
माँ अपने समस्त पुण्य दाँव पर लगा देती है! सीता अपनी उस विशिष्टता को निकष पर रख देती हैं जिसके लिए आगे उन्हें युगों युगों तक आदर्श मान पूजा जाने वाला है।
वाल्मीकि कहते हैं – मङ्गलाभिमुखी! जिनका मुखमण्डल ही मङ्गल है, प्रार्थना तो बहुत बड़ी बात है!
वैदेही शोकसंतप्ता हुताशनमुपागमत् । मङ्गलाभिमुखी तस्य सा तदासीन्महाकपेः ॥
उपतस्थे विशालाक्षी प्रयता हव्यवाहनम् ।
यद्यस्ति पतिशुश्रूषा यद्यस्ति चरितं तपः ॥
यदि चास्त्येकपत्नीत्वं शीतो भव हनूमतः ।
यदि कश्चिदनुक्रोशस्तस्य मय्यस्ति धीमतः ॥
यदि वा भाग्यशेषं मे शीतो भव हनूमतः ।
यदि मां वृत्तसंपन्नां तत्समागमलालसाम् ॥
स विजानाति धर्मात्मा शीतो भव हनूमतः ।
यदि मां तारयत्यार्यः सुग्रीवः सत्यसंगरः ॥
अस्माद्दुःखान्महाबाहुः शीतो भव हनूमतः ।
यदि मैं पति के प्रति एकनिष्ठ हूं, यदि पति की शुश्रूषा की है, यदि मैं तपस्विनी चरित्र की हूँ, यदि श्रीराम के मन में मेरे लिए थोड़ी भी दयालुता शेष है, यदि मेरे भाग्य में थोड़ा भी कुछ शुभ शेष है, यदि श्रीराम मुझे उदात्त नैतिक चरित्र की मानते हैं जिसके भीतर उनसे मिलन की लालसा है, यदि सत्यशील सुग्रीव के नेतृत्व वाली सेना मुझे मुक्त कराने वाली है, तो हे अग्निदेव! हनुमत के लिए शीतल हो जाओ।
अग्नि कहाँ ऐसी के समक्ष ठहर सकते थे? अद्भुत दैवी प्रभाव का सृजन होता है। शिखाओं द्वारा प्रदक्षिण हो अग्नि सीता को उनकी प्रार्थना का मान रखने की सूचना देते हैं। पवन देव भी शीतल वायु हो हनुमान को लपेट लेते हैं और हनुमान को आश्चर्य हो रहा है, चिन्ता हो रही है कि लांगूल दहक रहा है, आग चारो ओर इतनी प्रदीप्त है किंतु मुझे जला क्यों नहीं रही?
तस्तीक्ष्णार्चिरव्यग्रः प्रदक्षिणशिखोऽनलः
जज्वाल मृगशावाक्ष्याः शंसन्निव शिवं कपेः
हनुमज्जनकश्चापि पुच्छानलयुतोऽनिलः
ववौ स्वास्थ्यकरो देव्याः प्रालेयानिलशीतलः
दह्यमाने च लाङ्गूले चिन्तयामास वानरः
प्रदीप्तोऽग्निरयं कस्मान्न मां दहति सर्वतः
पूँछ आग में है परंतु इतनी शीतल जैसे कि उस पर शिशिर ऋतु का संपात हुआ हो! हनुमान हेतु अग्नि का ताप शीतल हो गया।
शिशिरस्य इव सम्पातो लाङ्गूल अग्ने प्रतिष्ठितः!
…
जो देवी सीता हैं न, हम सबकी आदर्श, उनके सतीत्व की अग्निपरीक्षा यह है। कोई और अग्निपरीक्षा कभी नहीं हुई। युद्ध पश्चात जो अग्निपरीक्षा का क्षेपक है, वह किसी की कल्पना मात्र है।
पाठभेद :
[1] वेष्टन्ते तस्य लाङ्गूलं जीर्णै: कार्पासिकै: पटै:
[3] निबध
[5] चरयितव्या मे पुनरेव
[7] रथयाश्च
वे अंश जो रामायण के चिकित्सित पाठ में नहीं हैं अर्थात जिनकी प्राचीनता संदिग्ध है :
{2}, {4}, {6}, {8} एवंं {9}