आदिकाव्य रामायण – 25 (सुन्दरकाण्ड) से आगे …
ऐश्वर्य, विशाल प्रहरी तन्त्र एवं राक्षसी अत्याचार की बंदिनी अपहृता सीता की आयु उस समय तीस पार की रही होगी। रावण की चाहे जो रही हो, निश्चित रूप से उनकी तुलना में अत्यधिक वय का था। प्रलोभन, हत्या की धमकियों, प्रिय से विछोह एवं सम्भाव्य बलात्कार से दिन प्रतिदिन गुम्फित समय से जूझती वह लोहा लेती रहीं, अटल रहीं, रावण की प्रत्येक बात का एक स्वाभिमानी तापसी की भाँति प्रत्युत्तर देती रहीं किन्तु अब सब कुछ असह्य हो चला था। अपनी दृढ़ता में वह आत्मघात की भी सोचने लगी थीं – जो तारणहार होते, उन राम लक्ष्मण का कोई अता पता भी तो न था, अन्य कौन मार्ग शेष था?
रावण ने येन केन प्रकारेण सीता को उसकी शय्या तक पहुँचाने का जो निर्देश प्रहरी राक्षसियों को दिया था, उसके जाने के पश्चात उस पर त्वरित कार्रवाई हुई। जिनका सकल जीवन पशुवत खाने, पीने, भोग तक ही सीमित रह गया था, ऐसी प्रहरियों का मनोविज्ञान राक्षसियों द्वारा सीता से किये व्यवहार में परिलक्षित होता है। स्त्रीत्त्व की मूलभूत गरिमा कि बलात संसर्ग हेतु बाध्य होना सर्वथा अवांछित है, के प्रति उनके मन में कोई संवेदना नहीं थी। उनकी बातों में, धमकियों में, साम में, भेद में, मानव एवं राक्षस संस्कृति का यह भेद स्पष्ट परिलक्षित होता है। जो अपने भरण पोषण के लिये निज भर्तार पर ही निर्भर होती है, ऐसी स्त्री के सुख, वस्त्र, आभूषण आदि के प्रति सहज आकर्षण का भावनादोहन करने के प्रयास स्पष्ट दिखते हैं। कैसे स्त्री स्त्री की ही शत्रु हो जाती है, वे सङ्केत भी। प्रशंसा मिश्रित धौंस धमकी का ऐसा प्रयोग स्यात ही अन्यत्र हुआ हो – तुम अपूर्व सुंदरी हो, कहाँ वन वन भटकते श्रीहीन राम के चक्कर में पड़ी हो!
मानवी सीता को अपने कुल का बहुत अभिमान था अत: पहला मनोवैज्ञानिक आक्रमण रावण की कुल प्रशस्ति से हुआ।
क्रोध से कुण्ठित हुई चेतना के साथ सभी राक्षसियों ने सीता को घेर एक एक कर चिल्लाना आरम्भ कर दिया – क्या तुम पुलस्त्य वंशज, वरिष्ठ, महात्मा रावण की भार्या बनने को सुअवसर नहीं समझती जोकि बहुतों द्वारा अभिनंदित होगी?
ब्रह्मा मे छ: मानसपुत्र प्रजापतियों में से चौथे पुलस्त्य के मानसपुत्र विश्रवा हुये। शत्रुओं को रुलाने वाले रावण उनके पुत्र हैं! – तस्य पुत्रो विशालाक्षि रावणः शत्रुरावणः। राक्षसी एकजटा के संबोधन में सीता के रूप प्रशंसात्मक शब्द भी प्रयुक्त हुये कि तुम जैसी रूपवती के लिये कुलीन रावण सर्वथा उपयुक्त हैं – विशालाक्षी, चारुसर्वाङ्गी।
हरिजटा ने कहा कि तुम्हें रावण की भार्या हो जाना चाहिये जिन्होंने 33 देवताओं को उनके राजा इंद्र के साथ पराजित कर दिया था।
आँखें नचाती प्रघसा ने धमकाया – बली एवं शूर रावण की पत्नी तुम क्यों नहीं होना चाहती जिन्होने रणभूमि में कभी पीठ न दिखाई? वह तो तुम्हारे लिये नाना रत्न सुशोभित अंत:पुर की सहस्रों स्त्रियों को भी तज देना चाहते हैं! समृद्धं स्त्रीसहस्रेण नानारत्नोपशोभितम्।
विकटा ने कहा – जिसने देवता, नाग, गंधर्व, दानव, इन सबका युद्ध में नाश कर दिया, वह तुम्हारे पार्श्व होना चाहता है, तुम क्यों नहीं मानती? ओ अधमा! तुम सर्वसमृद्ध महात्मा रावण की भार्या क्यों नहीं होना चाहती? – तस्य सर्वसमृद्धस्य रावणस्य महात्मनः।
दुर्मुखी ने रावण की शूरता को अतिशयोक्ति की ऊँचाई दी – जिसके भय से सूर्य चमकते नहीं, मरुत डोलते नहीं, हे आयत कटाक्ष वाली सीता! तुम उनकी क्यों नहीं हो जाती? – यस्य सूर्यो न तपति भीतो यस्य च मारुतः, न वाति स्मायतापाङ्गे किं त्वं तस्य न तिष्ठसि।
सुभ्रु भामिनी! जिसके भय से वृक्ष पुष्पवृष्टि करने लगते हैं तथा जिसकी इच्छा होने पर शैल मेघ पानी छोड़ने लगते हैं, दक्षिण पश्चिम दिशा के राजराजा रावण की भार्या होने का तुम मन क्यों नहीं बनाती?
प्रतीत होता है कि दुर्मुखी ऐसे स्थान से लायी गयी थी जहाँ से रावण की लङ्का दक्षिण पश्चिम दिशा में थी। उसने आगे कहा कि हे सुस्मिते! हे भामिनी! हम तुम्हारी शुभेच्छा में शुभ कह रहे हैं, मान जाओ, अन्यथा बचोगी नहीं! – साधु ते तत्त्वतो देवि कथितं साधु भामिनि,
गृहाण सुस्मिते वाक्यमन्यथा न भविष्यसि।
विकृत मुख वाली सभी राक्षसियाँ एक साथ सीता को कोसने लगीं – समस्त प्राणियों के मन को मोह लेने वाले एवं सुंदर विशाल बिछावन से सुसज्जित रावण के अंत:पुर में विहार करने की तुम्हें इच्छा क्यों नहीं होती? मानुषी हो, मानुष की भार्या होने को ही बहुत बड़ी बात मानती हो – मानुषी मानुषस्यैव भार्यात्वं बहुमन्यसे। राम से अपना मन हटा लो अन्यथा मारी जाओगी।
राक्षसेश्वर रावण को भर्तार बना, उनके अङ्ग लग त्रिलोक के भोग यथेच्छा, यथासुख भोगती विहार करो। शोभने! अनिंदिते!! जो राज्य से भ्रष्ट हो चुका है, जो असिद्धार्थ है, तुम मानुषी ऐसे विकल मानुष राम की ही कामना क्यों करती हो? मानुषी मानुषं तं तु राममिच्छसि शोभने,
राज्याद्भ्रष्टमसिद्धार्थं विक्लवं त्वमनिन्दिते।
पद्मनेत्रा सीता ने तब उन्हें अश्रुपूरित उत्तर दिया – तुम सभी जुट कर ये जो लोकनिंदित बातें मेरे लिये कह रही हो, तुम्हें वे पापपूर्ण नहीं लगतीं?
यदिदम् लोकविद्विष्टमुदाहरथ संगताः,
नैतन्मनसि वाक्यं मे किल्बिषं प्रतिभाति वः?
मानव संतति होने का तेहा सीता के स्वर में भभक उठा – एक मानुषी को राक्षस की भार्या नहीं होना चाहिये। तुम सब जैसे चाहो, मुझे खा जाओ, मुझे तुम्हारी बात नहीं माननी! – कामं खादत मां सर्वा न करिष्यामि वो वचः! दीन हों या राज्यहीन, वह राम ही मेरे स्वामी हैं। मैं उनमें नित्य अनुरक्त हूँ।
जिस ऋषि एवं देव संस्कृति के प्रति राक्षसों में मनसा, वाचा, कर्मणा केवल तिरस्कार ही भरा था, सीता उस संस्कृति की महान आदर्श महिलाओं के उदाहरण सोपान चढ़ती चली गईं:
तं नित्यमनुरक्तास्मि यथा सूर्यं सुवर्चला
यथा शची महाभागा शक्रं समुपतिष्ठति
अरुन्धती वसिष्ठं च रोहिणी शशिनं यथा
लोपामुद्रा यथागस्त्यं सुकन्या च्यवनं यथा
सौदासं मदयन्तीव केशिनी सगरं यथा
जैसे सुवर्चला सूर्य के प्रति, जैसे महाभागा शचि इंद्र के प्रति, जैसे अरुंधती वसिष्ठ के प्रति, जैसे रोहिणी चंद्र के लिये, जैसे लोपामुद्रा अगस्त्य हेतु, जैसे सुकन्या च्यवन के लिये, मदयंती सौदास हेतु, केशिनी सगर के प्रति हैं –
उन जाज्वल्यमान नारियों के उदाहरण सीता ने दिये, जो भार्या मात्र नहीं रहीं, अपने सङ्गियों के साथ प्रत्येक पग जीवनादर्शों हेतु संघर्षरत रही थीं। ऐसा कर मानुषी सीता ने भोग एवं भार्या मात्र होने के प्रलोभन की तुच्छता स्पष्ट कर दी थी। जिसने राज्य भोगने के स्थान पर पति के सङ्ग वनवास स्वयं चुना था, वन वन अपने राम के साथ वर्षों तपरत रही, उस तपस्विनी को यह कहना ही था! उल्लेखनीय है कि राम वनवास से क्षुब्ध गुरु वसिष्ठ ने एक समय तो उनके स्थान पर सीता देवी को अभिषिक्त करने का प्रस्ताव भी रख दिया था।
समस्त वाचा प्रहारों के प्रत्युत्तर में उन रक्ष संस्कृति अनुयायी स्त्रियों के समक्ष मानव आदर्शों की झड़ी लगाते हुये वैदेही ने अंत में मानो घण्टनिनाद किया। ससुराल इक्ष्वाकु कुल के गौरवशाली नाम एवं पति राम के प्रति अपनी एकनिष्ठा को एक साथ करते हुये उस दारुण परिस्थिति में भी उन्होंने वास्तविक शूरता का प्रतिमान धर दिया!
तथाऽहमिक्ष्वाकुवरं रामं पतिमनुव्रता
उसी प्रकार मैं इक्ष्वाकुकुलश्रेष्ठ पति राम की अनुव्रता हूँ, पतिव्रता हूँ।
विश्रवा कुल का हो कर भी पापी राक्षस हो जाने वाले रावण की कुल अहमन्यता का यह उपयुक्त उत्तर था।
(क्रमश:)
अगले अङ्क में :
स्वप्नो ह्यद्य मया दृष्टो दारुणो रोमहर्षणः।
मैंने आज दारुण रोमहर्षक स्वप्न देखा है।