The Gundestrup Cauldron and its Indian Connection (मूल अंग्रेजी आलेख – सुभाष काक, अनुवादक – अनुराग शर्मा)
पिछले भाग से आगे …
डेनमार्क के युट्लैण्ड (Jutland) प्रायद्वीप के रण/दलदली क्षेत्र में स्थित गूण्डेस्ट्रप नामक पुरवे में एक शती पहले मिला रजत घर्मपात्र (भगौना, Cauldron), सम्भवतः संसार के सर्वप्रसिद्ध पात्रों में से एक है। इसे द्वितीय शती ई.पू. में निर्मित माना जाता है। इसके पार्श्व/भित्ति में युद्ध और बलि के दृश्यों के साथ-साथ, पशुओं से मल्लयुद्धरत देव, (गजलक्ष्मी जैसे,) हाथियों से घिरी देवी, तथा बारहसिंघे जैसे शिरस्त्राण वाला ध्यानरत योगी उकेरे गये हैं।
इस बर्तन की चित्रावली में हाथियों की उपस्थिति उसे यूरोप से असंबद्ध करती है और आसन में बैठा योगी पशुपति लगता है।
कुछ इतिहासकारों का मत है कि इसका निर्माण थ्रेस (तुर्की/यूनान क्षेत्र) में भारतीय मूल के ठठेरों ने किया होगा। डेनमार्क के राष्ट्रीय संग्रहालय का प्रश्न सहित परिचय है – गूण्डेस्ट्रप भगौने की कला दर्शक का ध्यानाकर्षण, उसे रण में रखने वाले समुदाय से दूर एक अछूते ब्रह्माण्ड की ओर करता है। एक विदेशी शैली का प्रतिनिधित्व करते हाथी, सिंह, अज्ञात देव, दर्शाते हैं कि यह भगौना दक्षिण, या दक्षिण-पूर्व के सुदूर क्षेत्र से आया है। इसका निर्माणस्थल अभी भी अज्ञात है। सम्भवतः यह किसी प्रमुख नायक को उपहार था, या क्या यह युद्ध की लूट का भाग था?
साइंटिफ़िक अमेरिकन (Scientific American) में कला-इतिहासकार टिमथी टेलर (Timothy Taylor) ने लिखा – एक साझा कला और तकनीक परम्परा भारत से थ्रेस (जहाँ यह भगौना बना), और थ्रेस से डेनमार्क तक प्रसारित हुई । बारहसिंघे के सींग वाले व्यक्ति की यौगिक रीतियाँ, तथा बैल की मुखाकृति मोइन-जो-दारो के भारतीय नगर से प्रभावित हैं। तीन अन्य भारतीय सम्बंध – देवी का गजस्नान (भारतीय देवी लक्ष्मी है); चक्रपाणि देवता (भारतीय विष्णु); पक्षी के जोड़े और चोटी गुंथी देवी (भारतीय हरिति)।
मैं टेलर द्वारा किये गये अभिजानों में एक को संशोधित करना चाहूँगा । मेरा प्रस्ताव यह है कि दाँये हाथ में एक पक्षी एवं कंधों पर जोड़े पक्षी सहित चोटी गुँथी देवी हरिति न हो कर स्कन्दमहिषी षष्ठी हैं कयो कि भारत एवं मध्य एशिया के तत्कालीन शिल्प में स्कन्द जिस प्रकार से हाथ में कुक्कुट लिये दर्शाये जाते हैं, यह चित्रण उसी के समान है। टेलर का अनुमान है कि घुमंतू भारतीय ठठेरे समुदाय ने यह भगौना बनाया होगा।
इस भगौने के कई लक्षण बल्गेरिया के स्टारा ज़गोरा (Stara Zagora) स्थित थ्रेसियन (?) गर्त (grave, क़ब्र) में मिली अलङ्कृत थाली से समानता के कारण इसके थ्रेस में निर्माण का अनुमान लगाया जाता है। घर्मपात्र में दर्शाये गये आड़ी बुनाई वाले निबिडित परिधान एवं स्त्री-पुरुषों द्वारा पहने जाने वाले कटिबंध आदि परिधान भारतीय लगते हैं।
आइये थ्रेस के सम्बंध की जाँच करें। छठी शती ई.पू. में, जीटाय (the Getae, Jat, जट) निम्न डेन्यूब क्षेत्र तक आ चुके थे । अधिकांश प्राचीन लेखक डेशियन (Dacians) तथा जीटाय (Getae) समुदायों को थ्रेस से सम्बंधित (Thracian) मानते हैं। थ्रेस की भाषा (Thracian) का कोई लेख उपलब्ध नहीं है परंतु भाषाविदों की सहमति है कि यह भारोपीय परिवार की सेटम (satem) श्रेणी की ही एक भाषा थी।
इस निबंध के प्रथम भाग में कहा गया था कि थ्रेस में डायोनिसस (Dionysus) की पूजा होती थी। अब उसके भारतीय मूल के प्रमाण की चर्चा करते हैं। निकोमीडिया के एरियन (Arrian of Nicomedia) ने अनाबेसिस (Anabasis 5.1.1) में कहा है: “सिकंदर के भारत अभियान के मार्ग में कोफ़ेन और सिंधु नदियों के मध्य स्थित नाय्सा (Nysa) नगर, डायोनिसस द्वारा स्थापित था।” 5.1.6 में सिकंदर के भेदिये बताते हैं कि डायोनिसस मेरु पर्वत से था, जो कि पौराणिक भूगोल का उत्तरी ध्रुव अर्थात कैलाश पर्वत है। डायोनिसस और शिव की एक यह समानता भी दर्शाती है कि थ्रेस में पूजित देवी बेण्डिस (Bendis) दुर्गा ही हैं।
थ्रेस के ठठेरों द्वारा भगौने पर पशुपति का चित्र उकेरना उनकी धार्मिक व्यवस्था के अनुकूल ही है। क्या उसे जाटों (Getae, Jat) द्वारा युटलैण्ड (Jutland) ले जाया गया, जैसा कि इस लेख के प्रथम भाग में अर्नॉल्ड टॉयनबी द्वारा अनुमानित किया गया था?
किन्तु उन्होंने पशुपति का वह स्वरूप ही क्यों उकेरा जो हड़प्पा युग के पश्चात शताब्दियों तक लुप्त था?
इसका उत्तर इस तथ्य में है कि वे पश्चिमोत्तर भारत के हड़प्पा युग के वह समुदाय थे जिनके पूज्य देवता शिव उनकी स्मृति में रहे। यह भी एक तथ्य है कि आज भी जाट हड़प्पा क्षेत्र के प्रमुख निवासी हैं।
निष्कर्षतः भारत से पश्चिम की दिशा में दो प्रमुख पथ थे। पहला ईरान तथा आगे की ओर, जहाँ सीरिया के संस्कृत नामधारी मितानी (Mitanni) शासक शताब्दियों तक राज्य करते रहे। दूसरा पथ यूरेशियन समभूमि तक जाने वाला मार्ग था जहाँ जाट और अन्य शक थे जो बौद्ध ग्रंथों का प्रसार चीन में, तथा पश्चिम दिशा में यूरोप में वैदिक ज्ञान का प्रसार किये।
सम्पादकीय टिप्पणी :
अथर्ववेद शौनक शाखा का एक सूक्त (७.७३) घर्मसूक्त कहलाता है। देसज घाम से घर्म को समझा जा सकता है जिसका अर्थ सूर्य की ऊष्ण उपस्थिति वाली धूप से है। वैदिक काल में घर्म का प्रयोग तप्त या ऊष्ण के सामान्य अर्थ में होता था। ऊष्ण दूध घर्म, ऊष्ण घृत युक्त दूध भी घर्म एवं जिस पात्र में वे देवता को अर्पित किये जायें, वह भी घर्म। घर्मसूक्त में अश्विनों को घर्म अर्पण किया गया है।
ऐसा पात्र या भगौना देवअर्पण में प्रयुक्त आनुष्ठानिक पात्र हो सकता है। सरस्वती सिन्धु सभ्यता से प्राप्त संश्लिष्ट पशु प्रतीक देवताओं से युक्त मुद्राओं में उनके समक्ष अलङ्कृत पात्र समान वस्तु एक ऊँचे आधार पर रखी प्रतीत होती है। ऊपर दिखती आकृति छानने हेतु या उड़ेलने हेतु प्रयुक्त कोई युक्ति हो सकती है।
अथर्ववेदीय सूक्त का सम्पूर्ण पाठ इस प्रकार है :
समिद्धो अग्निर्वृषणा रथी दिवस्तप्तो घर्मो दुह्यते वामिषे मधु ।
वयं हि वां पुरुदमासो अश्विना हवामहे सधमादेषु कारवः ॥१॥
समिद्धो अग्निरश्विना तप्तो वां घर्म आ गतम् ।
दुह्यन्ते नूनं वृषणेह धेनवो दस्रा मदन्ति वेधसः ॥२॥
इवाहाकृतः शुचिर्देवेषु यज्ञो यो अश्विनोश्चमसो देवपानः ।
तमु विश्वे अमृतासो जुषाणा गन्धर्वस्य प्रत्यास्ना रिहन्ति ॥३॥
यदुस्रियास्वाहुतं घृतं पयोऽयं स वामश्विना भाग आ गतम् ।
माध्वी धर्तारा विदथस्य सत्पती तप्तं घर्मं पिबतं दिवः ॥४॥
तप्तो वां घर्मो नक्षतु स्वहोता प्र वामध्वर्युश्चरतु पयस्वान् ।
मधोर्दुग्धस्याश्विना तनाया वीतं पातं पयस उस्रियायाः ॥५॥
उप द्रव पयसा गोधुगोषमा घर्मे सिञ्च पय उस्रियायाः ।
वि नाकमख्यत्सविता वरेण्योऽनुप्रयाणमुषसो वि राजति ॥६॥
उप ह्वये सुदुघां धेनुमेतां सुहस्तो गोधुगुत दोहदेनाम् ।
श्रेष्ठं सवं सविता साविषन् नोऽभीद्धो घर्मस्तदु षु प्र वोचत्॥७॥
हिङ्कृण्वती वसुपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसा न्यागन् ।
दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं सा वर्धतां महते सौभगाय ॥८॥
जुष्टो दमूना अतिथिर्दुरोण इमं नो यज्ञमुप याहि विद्वान् ।
विश्वा अग्ने अभियुजो विहत्य शत्रूयतामा भरा भोजनानि ॥९॥
अग्ने शर्ध महते सौभगाय तव द्युम्नान्युत्तमानि सन्तु ।
सं जास्पत्यं सुयममा कृणुष्व शत्रूयतामभि तिष्ठा महांसि ॥१०॥
सूयवसाद्भगवती हि भूया अधा वयं भगवन्तः स्याम ।
अद्धि तृणमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती ॥११॥
मानव गृह्यसूत्र में षष्ठि देवी से सम्बंधित एक अनुष्ठान का विवरण आता है । आज का शिशु जन्म के छ्ठे दिन होने वाला उत्सव छठिहार उसी पुराने अनुष्ठान षष्ठिकल्प का अवशेष है। उन्हें श्री आदि विविध देवी नामों से भी सम्बोधित किया गया है। सामान्यत: यह शिशु की रक्षा करने से सम्बंधित देवी थीं । काठक गृह्यसूत्र में इनके भद्रकाली के समान ही घोर रूप का सङ्केत मिलता है जो आराधना से प्रसन्न एवं तुष्ट हो जाती हैं। बौधायन गृह्यसूत्र श्री के नामों में षष्ठि नाम भी गिनाता है। ऋषियों एवं देवताओं को तर्पण करते समय कहे जाने वाले नामों में षष्ठि देवी का नाम विविध कल्पसूत्रों में मिलता है। स्कन्द के साथ उनका घनिष्ठ सम्बंध इन्हीं सूत्रों में मिलता है। अपनी पुस्तक Goddesses in Ancient India में डॉ. पी. के. अग्रवाल ने बताया है कि आगे चल कर षष्ठि देवी नियमित रूप से स्कन्द के साथ सम्बद्ध हो गयीं।
इसी घर्मपात्र पर एक अन्य अंग्रेजी लेख यहाँ भी देखा जा सकता है ।