बीते सौर दिनाङ्क १६ अगस्त को सूर्य मघा नक्षत्र में प्रविष्ट हुये। शुद्ध सौर होने से ग्रेगरी कैलेण्डर में यह घटना प्रत्येक वर्ष १६/१७ अगस्त को होती है। आज अमावस्या के दिन सूर्य चंद्र के साथ मघा नक्षत्र पर विराजमान हैं। सिंह राशि में पड़ने वाले मघा नक्षत्र का प्रतीक है राजसिंहासन और इसके नाम के मूल मघ को समृद्धि, सम्पदा, ऐश्वर्य आदि से समझा जा सकता है। उससे पूर्व का अश्लेषा आलिङ्गन है।
वर्तमान भारत का स्वतंत्रता दिवस अगस्त में पड़ता है और गत ५ अगस्त को समस्त वसुन्धरा के राजा ‘सूर्य’वंशी श्रीराम’चन्द्र’ के जन्मस्थान के उद्धार हेतु भूमिपूजन सम्पन्न हुआ। प्रत्येक वर्ष जब सूर्य और चंद्र एक साथ सिंहासन मघा पर होते हैं तो हम साहित्य विशेषाङ्क निकालते हैं। इस बार तो विशेष अवसर है!
प्रागैतिहासक काल में जब कि समुद्र यात्रा करने पर दोष, पाप आदि बता कर निषेध नहीं लगाये गये थे, जब राजा राम के इक्ष्वाकुवंशी पुरखों द्वारा सेवित वसुंधरा के सार्थवाह, व्यापारी, उत्साही राजन्य, पुरोहितादि सुदूर बेबिलॉन तक की यात्रायें करते थे; किसी समय वे अपने साथ द्वादश आदित्य व विशिष्ट देवताओं वाली वैदिक नाक्षत्रिकी भी दूर देशों में ले गये जिसका परवर्ती रूप राशि आधारित सैद्धांतिक ज्योतिष हुआ।
संस्कृत शब्द ‘साहित्य’ का अर्थ वही है जिसे अंग्रेजी में harmony कहते हैं। यह समाज का भी पर्याय है, वह मानव समूह जहाँ विविध जन परस्पर साम्मनस्य, अविरोध, सहचार व सम्पद् में रहते हुये विविध सम्पदाओं का सृजन व भोग करते हैं। साहित्य वह जो सीमाओं के रहते हुये भी एक सीमाहीन वितान में अंतत: समस्त जन को जोड़ दे।
प्रागैतिहासिक काल की तो नहीं किंतु हम उस ऐतिहासिक पुरातन भारत-भू पर इस विशेषाङ्क में केंद्रित होंगे जिसकी पश्चिमी सीमा आज के अफगान व ईरान की सीमा से मिलती थी।
आज का बंदर अब्बास क्षेत्र तब भारत के उद्योगी भारतीय समुद्री व्यापारियों के वर्चस्व का था जहाँ से सुदूर पश्चिम, उससे भी दूर उत्तर में रोम व यवन साम्राज्यों तक वे व्यापार करते थे। उनके क्षात्ररक्षित स्कन्धावारों के अवशेष आज भी पुरातत्व के क्षरित होते पन्नों में मढ़े हुये हैं, अभिज्ञान की आवश्यकता है। अफगान पुरातन ‘उपगण’ हैं, वराहमिहिर के ‘अवगण’ हैं और उससे भी पहले के ‘अश्वक’ हैं। जिसे बर्बर आक्रांताओं द्वारा हिंदूकुश नाम दिया गया, वहाँ के लोग कभी अश्वक कहे जाते थे। इन अश्वारोहियों के सैंधव अश्व उत्पन्न करने वाले सिंधुदेश, आज के सिन्ध से घनिष्ठ सम्बंध रहे होंगे।
आक्रान्ताओं के कारण सम्पूर्ण संस्कृति गँवा चुके अफगानिस्तान में कभी वेदों की मंत्रध्वनि व्याप्त रहती थी। जिस अफगानिस्तान में आज अपना प्रेम व अपनी भावनायें व्यक्त करने पर स्त्रियाँ मणिबन्ध काट कर धीमी मृत्यु हेतु छोड़ दी जाती हैं, विडम्बना ही है कि वहाँ अनाम कवयित्रियों के प्रेम व काम भावना के छंद आज भी बड़े प्रचलित हैं और उनकी लय योजना सीधे उस वैदिक छांदस की है जिसमें कभी कोई रोमसा अपनी वय का उद्घोष करती थी, कोई अपाला इन्द्र से अनुनय करती थी, कोई इन्द्राणी अपने को साम्राज्ञी घोषित करती थी तो कोई वागम्भृणी धनुष की तनी प्रत्यञ्चा के रूपक में वह उदात्त स्वरघोष करती थी जो सीधे देवताओं तक पहुँचता। वेदमंत्रों के पाठ से पूर्व विनियोग में द्रष्टा ऋषि का नाम लेना अनिवार्य है।
विडम्बना ही है कि आज ‘लघु विषैले सर्प’ अर्थ वाला ‘लैण्डी’ नाम लिये उक्त छंदों की रचने वालियाँ अनाम ही रहती हैं। इस अङ्क में कुछ वैसी अफगान अनाम रचनायें वैदिक लय में अनूदित कर प्रस्तुत हैं।
वह जो आज हमारे राष्ट्रगान में तो है, किंतु हमारे भूगोल में नहीं, वह ‘सिंध’ कैसे कभी प्रागैतिहासिक काल के टेथिस सागर की लहरों के माध्यम से स्वयं को अरावली सहित सम्पूर्ण भारत से जोड़ता था, सिंध की एक अनूदित कविता में देख सकते हैं।
त्रिविष्टप, तिब्बत, जिसका नाम कभी भारत के स्वर्ग हेतु भी प्रयुक्त हुआ, जहाँ हमारे महादेव कैलासी बसते हैं, जो हमारी पड़ोसी सगा था, जो हमारे और चिन देश के बीच अंतस्थ राष्ट्र था, क्रूर विदेशी शासन द्वारा नृजातीय संहार झेलते हुये आज अपना स्वतन्त्र अभिजान तक खोने की सीमा पर है। तिब्बत की अनूदित कविता में बड़े ही सरल सपाट ढंग से ‘घर’ और ‘बाहर’ के बीच के तीखे विपर्यय को घर पहुँचने और उसमें पड़े रहने के उस ‘सुख’ से उकेरा गया है जो कि वास्तव में है ही नहीं, जहाँ वातायन खुलते हैं और पलायन करता सब ओर से वञ्चित मन मौन में सुख पाता है।
निर्धन नेपाल की कविता में गाँव के उजड़ने की पीड़ा है जिसके प्रवासी जन ‘अरबी सपनों’ और ‘नागर समृद्धि’ द्वारा लील लिये गये। रचयिता के मन का वह बचा खुचा कुचला भाव भीतर तक चीर देता है जो तब भी सुखी इतिहास से मिलना चाहता है।
जन के सकल मोद अङ्क द्वारा विकास और प्रगति को मानने वाले भारतरक्षित भूटान से अनूदित कविता प्रेम में पुरुष स्पष्टता और अभिव्यक्ति की माँग अपनी प्रेमिका से करती है जिसकी पृष्ठभूमि में सम्भावित वियोग है, स्यात मृत्यु भी। प्रेम का न रह जाना मृत्यु ही तो है!
बौद्धिक बाङ्गला कविता कहीं न कहीं वहाँ चल रहे शांत-किंतु-निश्चित हिन्दू-उन्मूलन की पीड़ा से जुड़ती है जिसमें सब सहते हुये उस अवसर की प्रतीक्षा है जब ‘बादशाह’ के पाँव रपटेंगे।
कभी ब्रह्मा या ब्रह्मदेश नाम से जाने जाने वाले म्यानमार की कविता वहाँ के जकड़न भरे कठोर शासन द्वारा गढ़े जाते जाली इतिहास से जन के निर्वासन और उसकी त्रासदी के बीच अप्रतिहत सङ्कल्पमयी आशा का संदेश देती है।
हिटलर द्वारा किये जा रहे नृजातीय संहार से बाल्यावस्था में भाग कर श्रीलङ्का में शरण ली हुई यहूदी कवयित्री की कविता संहार की भयावहता को सागर तट पर ‘खेलते’ बालकों के हाथों प्रताड़ित श्वान और अन्य जन के लिये एक सामान्य से दिन के माध्यम से अभिव्यक्त करती है। कवयित्री कभी पीड़ित है, कभी सहानुभूति से भरी प्रेक्षक मात्र तो कभी वह भी नहीं। छोटी सी कविता में जाने कितने अर्थ भरे हैं।
आज के भारत से क्या क्या हैं?
शब्दों पर धारावाहिक लेख शृङ्खला की नयी कड़ी अर्थ की गति है, मनोविज्ञान आधारित लेखमाला का नया पुष्प क्षमाभाव है, एक नई चिड़िया धवल कपोतक है और ललित व्यङ्ग्य के माध्यम से राजकाज व मंत्रणा साज की रेखायें सङ्केतित हैं। व्याधि की भाँति पसरते फेमिनिज्म से जुड़ी एक साधारण प्रतीत होती, किंतु बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात पर वस्त्र गाथा है और मध्यवर्ग की एक प्रवृत्ति विशेष को दर्शाती लघु कथा भी।