आज भीतरी परिदृश्य की बात करते हैं जो लोक में है, लोकतंत्र में है तथा भारत में है। आप सामान्य भारतीय जन से पूछें कि क्या पिछले बहत्तर वर्षों में नागरिक और सकल राष्ट्रीय स्तर पर भारत की जो लब्धि रही, उससे आप संतुष्ट हैं? उत्तर वैसे ही आयेंगे जैसे किसी अन्य देश में आयेंगे, यदि वह सोमालिया, अफगानिस्तान प्रकार का नहीं हुआ तो। पहला प्रश्न मात्र उद्घाटन प्रश्न होना चाहिये, वास्तविक स्थिति उससे आगे के प्रश्नों से शनै: शनै: उद्घाटित होगी? और यह कोई सामान्य, सुविधाजनक एवं सरल प्रक्रिया नहीं होगी किंतु उससे पहले यह पूछा जाना चाहिये कि पहला प्रश्न आज भारत के कितने जन के मन में उठता है? उत्तर निराशाजनक ही होगा और वहीं हमारी आज की वस्तुस्थिति का सच है जिसे हम स्वीकार करना तो दूर, कन्नी काट कर ऐसे निकलते हैं जैसे वैसी कोई बात हो ही न!
वास्तविकता यह है कि इस युवा देश में आज केवल करिअर, सेवायोजन, उपलब्ध अवसरों व संसाधनों का येन केन प्रकारेण दोहन तथा छल छद्म का आलम्बन ले ‘आगे बढ़ जाने’ पर ही सारा ध्यान है। हम सृजन वाले नहीं, उपभोग या उपयोग के उपादान बन कर रह गये हैं। सृजन का सर्वस्व सरकारी स्तर पर घटित होता देखना चाहते हैं, क्यों न चाहें, हम लोकतंत्र हैं तथा हमने सरकार को इस कार्य हेतु चुना है। सुनने में बात बहुत ठीक लगती है तथा एक सीमा तक सच भी है किन्तु क्या जीवन इतना सरल और सहज है कि अरब से भी अधिक जनसंख्या इस प्रकार सोचते हुये अपने काम पर लगी हुई अपनी नियति में दीर्घकालिक व मौलिक परिवर्तन कर ले? उत्तर निश्चित रूप से ‘नहीं’ है। सरकार को या उसके तंत्र को दोष देते हुये हम कर्तव्य वाली वही बात भूल जाते हैं जो अधिकार रखते हुये करते हैं – हमने सरकार चुना है अर्थात सरकार वैसी ही है जैसे हम हैं!
सारा देश आज नियोजन हेतु, रोटी हेतु व उसके लिये तंत्र हेतु सरकार को देखता है किंतु उस हेतु स्वयं किसी बंधन में बँधना तक नहीं चाहता, कष्ट उठाना तो बहुत दूर की बात है। इसके साथ आलस, धैर्यगुण व स्वार्थ जुड़ कर यथास्थिति का स्वादिष्ट व्यञ्जन बना देते हैं, खाये, पिये, डकार ले दायित्व से मुक्त! यह हमारा भीतरी यथार्थ है, उसका यथार्थ है जो हमसे बनता है – भारत देश, विश्व का सबसे बड़ा ‘लोकतान्त्रिक’ देश! प्रत्येक देश की नितांत निजी परिस्थितियाँ होती हैं जिनसे वह अपने ढङ्ग से निपटता है। ढङ्ग का अनुकरण नहीं किया जा सकता, पूर्णत: किया भी नहीं जाना चाहिये किंतु किसी भी क्रांतिक परिवर्तन के जो सार्वभौम सार्वकालिक तत्त्व हैं, उनमें कुछ ये हैं – स्वेद, रक्त, विनाश, नवसृजन, अनुकूल पारिस्थितिकी को सतत बनाये रखना, समर्पण और अनुशासन। इनके बिना कोई बड़ा परिवर्तन न कभी हुआ, न होगा।
प्रत्येक देश के अपने ढंग रहे – चीन के, इजराइल के, सिंगापुर के, विश्वयुद्ध के पश्चात बनते व सँवरते यूरोप के, तुर्की के … आप गिनाते जाइये, सबमें ये तत्त्व किसी न किसी रूप में अवश्य मिलेंगे। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या हम इन्हें अपने भीतरी परिसर में व अपने प्रभाव क्षेत्र में स्थान देने को तत्पर हैं? देंगे क्या, सतत, वर्षों तक, निरंतर? जो हमारे प्रभावक्षेत्र में होगा, वही संघनित हो कर पूरे देश में घटित होगा।
पुन: वही बात है कि देश वैविध्य भरा है, हर क्षेत्र की अपनी विशेष परिस्थितियाँ हैं किंतु मौलिक प्रश्न वही रहता है कि क्या उन परिस्थितियों के सापेक्ष सक्रिय सुधारकेंद्रित काम करते हुये हम उन तत्त्वों को अपने जीवन में स्थान दे रहे हैं या देंगे? वास्तविकता यह है कि हम बड़बड़ाने वाले सुविधाजीवी समाज हैं। हम का अर्थ उनसे लें जो कथित रूप से शिक्षित हैं, जिनसे आगे चलने की अपेक्षा है। पहले कह चुके हैं कि यह एक युवा देश है। आज युवा की प्राथमिकतायें क्या हैं? नियोजन पाना या नियोजन सृजन? उपलब्ध में लगना या अनुपलब्ध को गढ़ना? अपने परिवेश में रहते हुये किञ्चित कष्ट सह कर और किञ्चित निम्नस्तरीय जीवन जीते हुये भी नवोन्मेषी योगदान या सुविधाओं के द्वीपों की ओर पलायन? कोसना या मनन? प्रतिक्रिया या मौलिक विचार? परिवाद या संवाद? यहीं विकसित व कथित रूप से विकासशील देशों में अन्तर या कहें कि विवर उद्घाटित होते हैं।
हम निष्ठाहीन धूर्त समाज बन कर रह गये हैं, ऐसा समाज जिसके घटक सोचते समय भी आग्रहों से पीड़ित रहते हैं और धूर्तता नहीं तजते, तब जब कि उनका सोचना कोई अन्य नहीं सुन रहा होता! किसी भी समाज में जब ऐसा होता है तथा एक सामान्य व ‘स्वीकृत’ प्रवृत्ति बन जाता है तो वह या तो यथास्थिति में जीने को अभिशप्त होता है या पतनोन्मुख। वैश्विक इतिहास उठा कर देख लें, परिवर्तित रूपों में भी सफलता के सूत्र समान मिलेंगे, सच्चरित्रता एक सर्वनिष्ठ गुण मिलेगा। आप किसी भी विकसित समाज को देख लें, वह आप को उन आदर्शों को जीता हुआ मिलेगा जिन्हें पोथियों में सहेजे हम वञ्चना के नियमों का रट्टा लगाते रहते हैं।
मार्ग, वाद या मत कुछ भी हो; चरित्र की दृढ़ता और शुभ्रता न होने पर परिणाम वही रहता है – शून्य। क्या राष्ट्रवादी, क्या साम्यवादी, क्या दलित हित चिंतक, क्या इन सबके मिलजुमले – सब एक ही नौका में हैं जिसे स्वार्थ हाँक रहा है। यदि कुछ व्यापक, सर्वमान्य एवं मूलभूत नीतियों तथा उद्देश्यों की बात करें जो मतनिरपेक्ष रूप से नैरंतर्य बनाये हुये हैं, तो हमारे हाथ शून्य ही लगना है।
इन सबका समेकित प्रभाव यह है कि हम अपनी क्षमताओं का, अपनी शक्तियों का पूर्ण लाभ नहीं ले पा रहे। हमारे भीतर जो भारत है, वह अपना पूर्ण कांतिमान नहीं प्राप्त कर पा रहा। समस्यायें एवं नकारात्मक तत्त्व तो विकसित समाजों में भी होते हैं किंतु सकल प्रभाव क्या रहता है – नागरिकों का नित्य बढ़ता जीवनस्तर, वैश्विक स्तर पर नित्य बढ़ता प्रभाव एवं सुख-समृद्धि के नित नूतन उपादान। क्या हम इन पर केंद्रित हैं? नहीं हैं, हमारा सारा ध्यान है दोष विवरों पर, वाणी चल रही है रिक्त नारों पर और मन उलझा है बाह्य विस्तारों पर। भारत अपनी भीतरी यात्रा कब आरम्भ करेगा? कैसे? कब सोच में आमूल चूल परिवर्तन होगा? ठीक है कि यह एक प्रक्रिया है, ऐसा नहीं हो सकता कि आप आज सोये एवं कल प्रात:काल सब कुछ यातु से परिवर्तित हो गया! परंतु क्या हमने यात्रा आरम्भ कर दी है? क्या हममें से प्रत्येक के पास कोई समयबद्ध कार्यक्रम है? क्या हम अपनी प्रगति से संतुष्ट हैं या ऐसा कुछ करने की सोच भी नहीं रहे? स्वयं से पूछें।