बीते दिनों के दो समाचार महत्त्वपूर्ण हैं। अमेरिकी अंतरिक्ष संस्था नासा National Aeronautics and Space Administration (NASA) ने कर्क तारामण्डल में दो करोड़ पचास लाख प्रकाश वर्ष दूर स्थित निहारिका NGC 2623 (Arp 243) का अंतरिक्षीय दूरदर्शी हब्बल से लिया गया चित्र प्रसारित किया। यह चित्र दो पूर्व निहारिकाओं का मिलन दर्शाता है। चित्र हिंदू विवाह में किये जाने वाले गँठजोड़ जैसा दिखता है। हब्बल 1990 से काम कर रही है तथा इसकी उत्तरवर्ती ‘जेम्स वेब्ब’ 2019 में अंतरिक्ष में स्थापित की जानी है। कोई 4 अरब वर्ष पश्चात हमारी अपनी आकाशगङ्गा भी देवयानी निहारिका Andromeda से टकराने वाली है।
NGC 2623: Merging Galaxies from Hubble Image Credit: ESA/Hubble & NASA
भारतीय अंतरिक्ष संस्था इसरो ISRO (Indian Space Research Organisation) ने अपने यान PSLV (Polar Satellite Launch Vehicle) से एक साथ 31 उपग्रह विविध कक्षाओं में स्थापित किये। अब तक इस यान द्वारा 288 उपग्रह सफलतापूर्वक स्थापित किये जा चुके हैं।
इन दो संस्थाओं की संरचना एवं उद्देश्य में अंतर हो सकते हैं किंतु एक मौलिक प्रश्न यह उठता है कि जनसामान्य तक अंतरिक्ष एवं आनुषंगिक विज्ञान शाखाओं से सम्बंधित सूचनायें एवं ज्ञान पहुँचाने में कौन कितना लगा हुआ है या कितना लोकप्रिय है?
निस्संदेह नासा इस क्षेत्र में सक्रिय है जबकि इसरो लगभग शून्य ही है। ठीक है कि विश्वविद्यालयों द्वारा विकसित उपग्रह इसरो द्वारा छोड़े गये हैं तथा मुक्त शिक्षण की दिशा में भी कुछ काम हुआ है किंतु ये पर्याप्त नहीं। इतने वर्षों तक प्रतिष्ठित संस्था रहने एवं देशी तथा वैश्विक, दोनों स्तर पर ‘नाम’ होने पर भी इसरो द्वारा वैज्ञानिक चेतना के प्रसार की दिशा में पर्याप्त प्रसार क्यों नहीं हुये? इस एक नाम को यदि ‘लोकप्रिय विज्ञान’ से सम्बंधित प्रकल्प या आंदोलन से जोड़ दिया जाय तो विद्यार्थियों के साथ साथ जनसामान्य में भी सीखने के प्रति कितनी ऊर्जा, कितने उत्साह की अभिवृद्धि होगी!
भारत के सरकारी उपक्रमों की यह बड़ी समस्या है कि जो सफलता के प्रतिमान हैं तथा निरंतर अपनी गुणवत्ता बनाये हुये हैं, उनका जन ज्ञान प्रसार से जुड़ाव या तो नहीं है या अत्यल्प है। विश्वविद्यालयों तथा अन्य उच्च संस्थाओं के साथ सहयोग प्रकल्प भी लगभग शून्य ही हैं। नयी संस्थायें बनायी जा सकती हैं किंतु जो पहले से उपलब्ध हैं, उनकी संभावनाओं का दोहन क्यों नहीं किया जाता? ठीक है कि प्रवीणता या प्राथमिकता या उद्देश्य उनकी गठन में हैं ही नहीं, किंतु ये सब जोड़े भी तो जा सकते हैं।
यह अभाव ही नासा को अग्रणी बनाता है। यह अभाव, वैकल्पिक मॉडल के विकास पर काम करने एवं कार्यान्वयन की दिशा में आगे बढ़ने के लिये भारत को प्रेरित करता हो, नहीं लगता। आवश्यकता बहुत आगे की, सोच में प्रतिमान स्थापन, मौलिक परिवर्तन की है। भारत की ऐसी सफल संस्थाओं के प्रबंधन को भी भीतर से इस दिशा में काम करने होंगे तथा प्रशासनिक तंत्र को इसमें सहयोग करना होगा। इसरो की 2016-17 की वार्षिक रिपोर्ट से संभावनाओं का पता तो चलता ही है:
Mars Orbiter Mission (MOM), India’s first inter-planetary mission, completed two years in its orbit around Mars. … The Mars Colour Camera has produced more than 530 images so far, one of which has appeared on the cover page of the November 2016 issue of the National Geographic Magazine. The Archived data is now made public for free download and scientific research through ISRO’s website. There were more than 175,000 hits and about 200 Gb data was downloaded. ISRO has also launched MOM Announcement of Opportunity (AO) programmers for researchers in the country to use MOM data for R&D. The success of Mars Orbiter Mission has motivated India’s student and research community in a big way.
संसाधनों से सम्बंधित एक दूसरा प्रश्न भी है। कुशल मानव संसाधन एवं हार्डवेयर की क्या स्थिति है? मानव संसाधन देखें तो भारत आत्मनिर्भर है जोकि अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। देखें तो नासा के लिये भी भारत का मानव संसाधन उपलब्ध हो जाता है।
हार्डवेयर के क्षेत्र में कितनी आत्मनिर्भरता है? हार्डवेयर सम्बंधित आत्मनिर्भरता का अर्थ आयातित उपादानों के संयोजन तक सीमित न रह कर उन उपादानों का भी देश के भीतर ही निर्माण होना चाहिये। तकनीकी विकास या आयात, ये दो विकल्प हो सकते हैं किंतु पेंच से ले कर प्रॉसेसर तक यहीं बनें, यह एक दीर्घकालिक एवं निश्चित समय सीमा आधारित प्राथमिकता होनी चाहिये। ‘Make in India’ अच्छी पहल है किंतु वास्तव में जो घटित हो वही सार्थक।
परमाणु संरचना की एक पुरानी परिकल्पना में इलेक्ट्रॉन कक्षाओं के लिये ऊर्जा स्तर की कल्पना की गयी थी। अपनी कक्षा में घूमते इलेक्ट्रॉन को यदि ऊँची कक्षा में जाना होता तो उसे ऊर्जा अंतर को पाटना होता था अन्यथा वहीं घूमते रहना होता।
इसरो एवं देश के सभी सफल संस्थानों को ऊर्जा बढ़ानी होगी, अंतर पाट कर ऊँची कक्षा में जाना होगा। ‘विकसित’ होता भारत स्वयं की प्रतीक्षा में है, अपने अंतरिक्षीय दूरदर्शी यंत्र की प्रतीक्षा में है कि पौराणिक काल यात्राओं को आधुनिक समय के मानकों के अनुसार अनुभूत कर सके, अपनी अपार सम्भावनाओं से गँठजोड़ कर सके।
2014 में कुछ 1-2 मेल डाले थे, ISRO के ऑफिशियल मेल पर, एवं एक डायरेक्टर जी को । अभी तक जवाब नही है, ऐसे आत्मबल टूटता है ।