राष्ट्रीय पर्व
समाज के एकीकरण के लिये भारत में ४ राष्ट्रीय पर्व हैं – होली, दुर्गापूजा, दीपावली एवं रक्षा-बन्धन। समाज में व्यवसायों की उन्नति के लिये भी ४ वर्ण थे – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः (गीता, ४/१३)
ज्ञान के द्वारा न केवल सभी प्रकार की उन्नति होती है, वरन् समाज उसी दिशा में चलता है, जैसा पढ़ाया जाता है। जैसे अंग्रेजी शिक्षा ने हमें मन से अंग्रेज बना दिया है, जो मेकाले का उद्देश्य था। अतः ज्ञान की रक्षा और वृद्धि करने वाले ब्राह्मण को मुख (स्रोत) कहा गया है। समाज तभी सुचारु रूप से कार्य कर सकता है, जब वह सुरक्षित रहे। आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा करने वाले को क्षत्रिय कहा गया है, जो क्षत (आघात) से त्राण करे। समाज को विश कहते हैं, जो इसका कृषि-गोरक्ष-वाणिज्य से पालन करे, वह वैश्य है। ये सभी काम तभी कुशलता से हो सकते हैं, जब तकनीकी रूप से कुशल व्यक्ति हर क्षेत्र में हों। ये दक्षता तथा द्रुत गति से कार्य करते हैं (आशु + द्रवति), अतः शूद्र हैं।
इन गुणों जैसे ४ पर्व हैं —
ब्राह्मण – श्रावणी (रक्षा बन्धन), क्षत्रिय – दुर्गा पूजा, वैश्य – दीपावली, शूद्र – होली।
लक्ष्मी पूजा
यह कार्त्तिक अमावास्या को होती है, जो आर्थिक वर्ष का आरम्भ था। विक्रमादित्य ने भी आज से २०७७ वर्ष पूर्व पशुपतिनाथ में चैत्र शुक्ल से विक्रम सम्वत् आरम्भ किया। उसके ७ महीने पश्चात सोमनाथ में कार्त्तिक मास से सम्वत् आरम्भ किया। सोमनाथ समुद्र तट पर है, वहां से दक्षिणी ध्रुव तक और कोई द्वीप नहीं है। कार्त्तिक मास में समुद्री चक्रवात शान्त हो जाते हैं, जब व्यापार के लिये यात्राओं का आरम्भ होता है। स्थल पर भी वर्षा के पश्चात यात्रा सहज है। आज भी व्यापारी इसी दिन अपने बही-खाता की पूजा करते हैं। दुर्गापूजा में व्यक्ति तथा समाज की शक्ति की पूजा है, दीपावली में उस शक्ति का प्रयोग उत्पादन और उपभोग के लिये है। अक्षर पुरुष या निर्माण कर्ता विष्णु की दो पत्नियाँ कहते हैं – दृश्य सम्पत्ति लक्ष्मी (लक्ष = देखना) है। अदृश्य सम्पत्ति जैसे प्रसन्नता, सन्तोष, मैत्री, बुद्धि आदि श्री हैं —
श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ, अहोरात्रे पार्श्वे, नक्षत्राणि रूपं अश्विनौ व्यात्तम्।
इष्णन् इषाण अमुं म इषाण सर्वलोकं म इषाण॥ (यजुर्वेद, ३१/२२)
सूर्य रूपी विष्णु वर्ष में २ बार गति की दिशा बदलते हैं – ६ मास उत्तर तथा ६ मास दक्षिण दिशा में। यह दिन-रात रूपी उनके २ पार्श्व हैं। सभी नक्षत्र सूर्य जैसे हैं, जो विष्णु के शरीर हैं। सूर्य की कक्षा (क्रान्ति वृत्त) विषुव रेखा को २ स्थानों पर काटती है जो २ अश्विन हैं। या सौर मण्डल में ताप तथा तेज (१००, १००० सौर व्यास तक) का क्षेत्र है जिसमें क्रतु या निर्माण होता है।
सरस्वती
एक त्रुटिपूर्ण धारणा है कि सरस्वती तथा लक्ष्मी में विरोध है। वस्तुतः सरस्वती से ही लक्ष्मी का जन्म होता है। आकाश में ब्रह्माण्ड का क्षेत्र सरस्वान् समुद्र है, उसका प्रतिरूप मनुष्य का मस्तिष्क है जिसमें उतनी ही कोशिकायें हैं जितने ब्रह्माण्ड में तारागण। ब्रह्माण्ड में ही सूर्य का जन्म होता है, जिसके प्रतीक रूप हम दीप जलाते हैं। सौरमण्डल के अर्णव समुद्र का निर्माण लक्ष्मी है। मनुष्य की श्री (तेज) उसके मस्तिष्क में है अतः उसे शिर (श्री का स्थान) कहते हैं। उसके सम्यक उपयोग से ही लक्ष्मी आती है। उसके ठीक उपभोग के लिये भी बुद्धि चाहिये। अतः सरस्वती के साथ ही लक्ष्मी रह सकती हैं।
विभीषण ने भी रावण को यही समझाया था कि क्रोध से सुख-धर्म का नाश होता है, धर्मपूर्वक सीता को लौटाने से ही सुखपूर्वक परिवार के साथ जीवित रह सकते हैं —
जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना। जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना॥ (रामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड, ३९/३)
त्यजाशु कोपं सुख-धर्म-नाशनं, भजस्व धर्मं रति-कीर्ति-वर्धनम्।
प्रसीद जीवेम सपुत्र-बान्धवाः, प्रदीयतां दाशरथाय मैथिली॥ (वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड, ९/२२)
वेद में भी कहा है कि मन से शुद्ध की गयी वाणी बोलने से ही साथियों से मैत्री होती है तथा लक्ष्मी आती हैं, जैसे चलनी से चालने पर सत्तू पवित्र होता है—
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि॥ (ऋग्वेद, १०/७१/२, ज्ञान-सूक्त)
अलक्ष्मीघ्न सूक्त-ऋषि-शिरिम्बिठः भारद्वाजः। विनियोग-अलक्ष्मीघ्नम्। देवता-२-३ ब्रह्मणस्पतिः, ५-विश्वेदेवाः। छन्द-अनुष्टुप्।
अरायि काणे विकटे गिरिं गच्छ सदान्वे। शिरिम्बिठस्य सत्वभिस्तेभीष्ट्वा चातयामसि॥१॥
चत्तो इतश्चत्तामुतः सर्वा भ्रूणान्यारुषी। अराय्यं ब्रह्मणस्पते तीक्ष्ण शृङ्गो दृषन्निहि॥२॥
अदो यद्दारु प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम्। तदा रभस्व दुर्हणो तेन गच्छ परस्तरम्॥३॥
यद्ध प्राचीरजगन्तोरो मण्डूरधाणिकीः। हता इन्द्रस्य शत्रवः सर्वे बुद्बुदयाशवः॥४॥
परीमे गामनेषत पर्यग्निमहृषत । देवेष्वक्रत श्रवः क इमाँ आ दधर्षति॥५॥
- अलक्ष्मी कुछ नहीं देती (अरायि), काण ( कुरूप, १ आँख का), विकृत अंग वाली, क्रोधी है तथा सचाई नहीं देखती है।
- अलक्ष्मी जैसे गुणों से गर्भ के भीतर, इस जीवन में तथा मरने के पश्चात भी मनुष्य नष्ट होता है। ब्रह्मणस्पति (ब्रह्माण्ड की प्रतिमा, विद्वान्) की तीव्र बुद्धि ही कृपणता दूर कर सकती है।
- संसार सागर में जो अपौरुषेय दारु (दारु-ब्रह्म जगन्नाथ) तैर रहा है उस दुर्लभ दारु को पाकर ही मनुष्य सागर पार कर सकता है।
- जब पूर्व से प्रकाश आता है (सूर्योदय, ज्ञान), तो इन्द्र के शत्रु (हिंसा, कठोरता) पानी के बुलबुलों की भाँति नष्ट हो जाते हैं।
- गौ (यज्ञ, माता रूप पशु) चारों ओर हो तथा बीच में अग्नि (अग्री = नेता, घना पदार्थ या तेज) हो। उससे देवों को भोजन मिलता है और वे अजेय हो जाते हैं।
गो
सभी निर्माण का स्थान और साधन गो है। प्रथम निर्माण ब्रह्माण्ड का है। उसका निर्माण क्षेत्र उसका १० गुणा बड़ा गोलोक है जिसके भीतर विराट् बालक रूप ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है (ब्रह्म-वैवर्त्त पुराण, प्रकृति खण्ड, अध्याय ३)। वेद में इसे कूर्म कहा गया है, क्यों कि यह काम करता है, इस आकार का पशु भी कूर्म है। सूर्य का तेज भी गो है जिससे जीवन चलता है। पृथ्वी पर भी गोदुग्ध से ही हमारा पालन होता है, उससे कृषि होती है। अतः निर्धनता दूर करने के लिये तथा लक्ष्मी के लिये गो की ही पूजा होती है —
गावो लोकास्तारयन्ति क्षरन्त्यो गावश्चान्नं संजयन्ति लोके।
यस्तं जानन् न गवां हार्द्दमेति स वै गन्ता निरयं पापचेताः॥ (महाभारत, अनुशासन पर्व, ७१/५२ नाचिकेत-यमराज-सम्वाद)
विश्व को क्षय से गौ बचाती है तथा अन्न का उत्पादन करती है। यह जानकर भी जो गाय की श्रद्धा नहीं करता, वह महापापी है।
जब च्यवन ऋषि मछुये के जाल में फँस गये थे तो उनकी मुक्ति के लिये उनके मूल्य के रूप में पूरा राज्य अल्प था, गौ ही उनका पूर्ण मूल्य थी –
च्यवन उवाच—
अर्धं राज्यं समग्रं च मूल्यं नार्हामि पार्थिव। सदृशं दीयतां मूल्यमृषिभिः सह चिन्त्यताम्॥१३॥
ब्राह्मणानां गवां चैव कुलमेकं द्विधा कृतम्। एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति॥
अनर्घेया महाराज द्विजा वर्णेषु चोत्तमाः। गावश्च पुरुषव्याघ्र गौर्मूल्यं परिकल्प्यताम्॥२२॥ (महाभारत, अनुशासन पर्व, ५१)
महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय ८३ में इन्द्र को ब्रह्मा ने उपदेश दिया है कि अपना राज्य पुन: पाने के लिये गौ की पूजा करें।
वेद में गौ को रुद्र की माता, वसु की पुत्री, आदित्य की बहन, अमृत की नाभि कहा है। गौ की कोई भी प्रशंसा अधिक नहीं हो सकती तथा गौ हत्या कदापि नहीं हो —
माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनामदितं वधिष्ट॥ (ऋग्वेद ८/१०१/१५)
आकाश में-अमृत गोलोक का केन्द्र, गो रूपी किरण से सूर्य का रौद्र तेज होता है (रुद्र-माता), सौर तेज की बहन, वसु रूपी सूर्य की पुत्री है। पृथ्वी पर-अमृत दुग्ध-अन्न का केन्द्र, रुद्र रूपी इन्द्रिय या तेज की माता, आदित्य रूपी समाज की बहन, वसु रूपी घास आदि की पुत्री है जिससे गौ का जीवन चलता है।
गो सूक्त
आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन् सीदन्तु गोष्ठे रणयन्त्स्वमे।
प्रजावतीः पुरुरूपा इह स्युः, इन्द्राय पूर्वीरुषसो दुहानाः॥१॥
गावो भगो गाव इन्द्रो मे अच्छात्, गावः सोमस्य प्रथमस्य भक्षः।
इमा या गावः स जनास इन्द्रः, इच्छामीद् वृद्धा मनसा चिदिन्द्रम्॥२॥
यूयं गावो मेदयथा कॄशं चित्, अश्लीलं चित् कृणुथा सुप्रतीकम्।
भद्रं गृहं कृणुथ भद्रवाचः, बृहद्वो वय उच्यते सभासु॥३॥
प्रजावतीः स्नवयसं रुशन्तीः, शुद्धा अपः सुप्रपाणे पिबन्तीः।
मा वः स्तेन ईशत माऽघशंसः, परि वो हेती रुद्रस्य वृञ्ज्यान्॥४॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/८)
- गौ हमारे पास आकर उन्नति करे। गोशाला में रह कर हमारा घर सुखद बनायें। बछड़े उत्पन्न करें, दूध आदि दें जो इन्द्र को अर्पण हो सके।
- गौ ही सम्पत्ति हैं तथा इन्द्र जैसा पालन करती हैं। वह सोम युक्त हैं अतः उनकी रक्षा के लिये इन्द्र की प्रार्थना करते हैं।
- गौ हमारे बच्चों को पुष्ट तथा सुन्दर करें। हमारे घर, वाणी के लिये शुभ हैं तथा विद्वान् इसकी चर्चा करते हैं।
- गौ और उनकी सन्तान अच्छा अन्न खायें तथा स्वच्छ जल पियें। उनके आशीर्वाद से हम पाप मुक्त हों तथा उनकी रक्षा कर सकें।
समुद्र मन्थन
समुद्र-मन्थन से उत्पन्न १४ रत्नों में एक लक्ष्मी भी थीं। आकाश के विशाल समुद्र में ब्रह्माण्ड का अक्ष-भ्रमण ही समुद्र-मन्थन है जिससे दृश्य जगत् (लक्ष्मी) बनता है। पृथ्वी पर जल, स्थल, वायु, जैव विस्तार – ४ समुद्र हैं। स्थल समुद्र के मन्थन या खान से रत्न निकलते हैं। बलि ने जब इन्द्र के ३ लोक लौटा दिये, तो अनेक असुर असन्तुष्ट थे कि युद्ध में देवता उनको नहीं जीत सकते थे। छिटपुट युद्ध चलते रहे। उसे रोकने के लिये कूर्म अवतार ने मिलकर समुद्र मन्थन करने का मर्श दिया था। भारत में झारखण्ड में मुख्यतः असुरों ने खुदाई में सहयोग किया जहां सिंहभूमि से भागलपुर के गंगा-तट तक का लम्बा पर्वत मन्दराचल कहलाता है। आज भी असुरों की उपाधि वही है जो ग्रीक भाषा में खनिजों के नाम हैं — औरम = स्वर्ण, हेम्ब्रम = पारद, खालको = ताम्र अयस्क, मुण्डा = लोहा, टोप्पो = टोपाज, आदि। देवता विरल धातुओं के शोधन में दक्ष थे, वे जिम्बाब्वे (जाम्बूनद स्वर्ण) तथा मेक्सिको (माक्षिकः = चान्दी) गये।
वेद में भी समुद्र मन्थन करने वाले को कूर्म कहा है—
यो वै स एषां लोकानां-अप्सु प्रविद्धानां पराङ् रसोऽत्यक्षरत्-स एष कूर्म्मः। तस्य यदधर-कपालं, अयं स लोकः। तत् प्रतिष्ठितमिव भवति। अथ यदुत्तरं, सा द्यौः। तद् व्यवगृहीतान्तमिव भवति। एतद् वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत। यदसृजत-अकरोत्-तत्। यदकरोत्-तस्मात् कूर्म्मः। कश्यपो वै कूर्मः। तस्मादाहुः-सर्वाः प्रजाः काश्यप्यः-इति। स यः कूर्म्मः-असौ स आदित्यः। (शतपथ ब्राह्मण ७/५/१/१-६)
विष्णु पुराण के १४ रत्नों में ७ निर्जीव, ७ सजीव हैं। निर्जीव रत्न – चक्र, रथ, मणि, खड्ग, रत्न, केतु (झण्डा), निधि (खजाना) ।
७ सजीव हैं – भार्या (घर का भार वहन करने वाली), पुरोहित (प्रतिनिधि), सेनानी, रथी (सारथि), क्षत्ता (रक्षक), अश्व, कलभ (रसोइया)।
चक्रं रथो मणिः खड्ग चर्म्म रत्नञ्च पञ्चमम्। केतुर्निधिश्च सप्तैवमप्राणाग्नि प्रचक्षते॥
भार्य्या पुरोहितश्चैव सेनानी रथकृच्च यः। पत्न्यश्वौ कलभश्चैव प्राणिनः सप्त कीर्तिताः॥ (विष्णु पुराण, ४/१२/१-२)
शतपथ ब्राह्मण (५/३/३) में भी यही सूची है।
द्यूत (जुआ)
अनेक लोग दीपावली में जुआ खेलना शुभ मानते हैं पर सभी शास्त्रों में इसे मना किया गया है।
किन्ते द्यूतेन राजेन्द्र ! बहुदोषेण मानद।
देवने बहवो दोषास्तस्मात्तत् परिवर्जयेत्॥ (महाभारत, विराट् पर्व, ६८/३३)
(युधिष्ठिर ने कङ्क रूप में राजा विराट् से कहा) — आपको जुआ छोड़ देना चाहिये, क्योंकि इसमें अनेक दोष हैं।
द्यूतं समाह्वयं चैव राजा राष्ट्रान्निवारयेत्। राजान्त करणावेतौ द्वौ दोषौ पृथिवी क्षिताम्॥२२१॥
प्रकाशमेतत्तास्कर्यं यद् देवनसमाह्वयौ। तयोर्नित्यं प्रतीघाते नृपतिर्यत्नवान्भवेत्॥२२२॥
अप्राणिभिर्यत्क्रियते तल्लोके द्यूतमुच्यते। प्राणिभिः क्रियते यस्तु स विज्ञेयः समाह्वयः॥२२३॥ (मनुस्मृति, अध्याय, ९)
राजा को द्यूत (जुआ) तथा समाह्वय (पशुओं पर दाँव लगाने वाले) करने वालों को देश से निकाल देना चाहिये क्योंकि इससे राज्य नष्ट हो जाता है। ये प्रकट ही देश को लूटते हैं, अतः राजा को इनसे सावधान रहना चाहिये।
अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व वित्ते रमस्व बहुमन्यमानः।
तत्र गावः कितव ! तत्र जाया तन्मे वि चष्टे सवितायमर्य्यः॥ (ऋक्, १०/३४/१३)
= जुआरी! पासा कभी मत खेलो। यदि खेलना ही है तो सविता से कृषि रूप में पासा खेलो जिसमें लाभ ही लाभ है। उससे सम्पत्ति, जाया आदि पाकर उसका उपभोग करो।
ऋग्वेद का पूरा (१०/३४) सूक्त कितव (जुआरी) सूक्त कहलाता है। समाज का पालन वैश्य करता है, पर कृषि, उत्पादन, वाणिज्य – इन सभी में अनेक प्रकार से अनिश्चय रहता है। यही सविता के साथ जुआ है। अतिरिक्त रूप से जुआ खेलकर अपने को नष्ट नहीं करना है। वैश्य वर्ण के कर्मों में सबसे अधिक अनिश्चय रहता है, इस अर्थ में वे जुआ खेलते हैं।
त्रिविध उन्नति
गणित के अनुसार कृत्तिका पृथ्वी कक्षा तथा विषुव वृत्तों का मिलन विन्दु है, जहां से कैंची (= कृत्तिका) की भाँति इन वृत्तों की २ शाखायें निकलती हैं। दोनों शाखायें विपरीत दिशा में जहाँ मिलती हैं, वह विशाखा नक्षत्र है। तारा पुञ्ज रूप में दृश्य नक्षत्र भिन्न हैं जिनको निरयन कहते हैं। इस सन्धि वाले नक्षत्र में जिस पूर्णिमा का चन्द्र आता है, वह कार्त्तिक मास है। इससे आर्थिक वर्ष आरम्भ होता है, जिस कारण व्यापारी नया खाता आरम्भ करते हैं। अभी यह केवल प्रतीक रह गया है।
दीपावली में ३ सन्धियाँ होती हैं —
असतो मा सद्गमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय,
मृत्योर्माऽमृतङ्गमय ।
(बृहदारण्यक उपनिषद्, १/३/२८)
स्वयं दीपावली अन्धकार से प्रकाश की ओर गति है जिसके लिये दीप जलाते हैं – तमसो मा ज्योतिर्गमय।
दीपावली के १ दिन पूर्व यम-चतुर्दशी होती है। १४ भुवन अर्थात् जीव सर्ग है, उनकी परिणति यम है, अतः कृष्ण चतुर्दशी को यम-चतुर्दशी कहते हैं, रात्रि तिथि के अनुसार यह शिवरात्रि भी होती है। दीपावली के एक दिन पश्चात अन्न-कूट होता है जो इन्द्र की पूजा थी (भागवत पुराण)। भगवान् कृष्ण ने उसके स्थान पर गोवर्धन पूजा की थी। गोकुल में इस नाम का पर्वत है। गो-वर्धन का अर्थ गोवंश की वृद्धि है जो हमारे यज्ञों का आधार है। शरीर की इन्द्रियां भी गो हैं, जिनकी वृद्धि रात्रि में होती है जब हम सोते हैं। अत: १ दिन पूर्व से १ दिन पश्चात का पर्व मृत्यु से अमृत की ओर गति है — मृत्योर्मा अमृतं गमय।
दीपावली से २ दिन पूर्व निर्ऋति (दरिद्रता) होती है जिसे दूर किया जाता है। इसके लिये धन-तेरस पर कुछ बर्तन या सोना खरीदा जाता है। दीपावली के २ दिन पश्चात यम-द्वितीया है। यहां यम का अर्थ मृत्यु नहीं, यमल = युग्म या जोड़ा है। इसका अर्थ भाई-बहन का जोड़ा यम-यमी है। अतः इस दिन को भ्रातृ-द्वितीया कहते हैं जब बहन भाई की पूजा करती है। यह असत् (अव्यक्त, अस्तित्व हीन) से सत् (सत्ता, व्यक्त) की गति है-असतो मा सद्गमय।
श्रीसूक्त में निर्ऋति या अलक्ष्मी दूर करने का वर्णन है—
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्। अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात्॥८॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्य पुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥९॥
अभूति, निर्णुद = यम, मृत्यु। अलक्ष्मी, असमृद्धि, क्षुत्-पिपासा = दरिद्रता, धनहीनता, भूख।
अन्न, लोक और गो की वृद्धि—
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि। पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥१०॥
कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम। श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्॥११॥
श्री-सूक्त पाठ का फल वही है जो दीपावली का फल है—
अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने। धनं मे जुषतां देवि सर्व कामांश्च देहि मे॥१८॥
पद्मानने पद्म विपद्म पत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि। विश्वप्रिये विश्वमनोनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि संनिधत्स्व॥१९॥
पुत्र-पौत्रं-धनं-धान्यं-हस्त्यश्वादि गवे रथम्। प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु मे॥२०॥।
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः। धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमस्तुते॥२१॥
दीपावली में आतिशबाजी
हर दीपावली को पटाखा नहीं चलाने का उपदेश मिलता है तथा प्रचार होता है कि भारत में पटाखा नहीं होता था। परन्तु इसके प्रयोग का पुराणों में उल्लेख है। इसे उल्का भी कहते थे। एक उल्का तो आकाश से गिरती है, पर हाथ की उल्का को पटाखा कहते हैं। पटाखा ध्वनि-अनुकरण के अनुसार बना शब्द है। कृत्रिम उल्का के पर्यायवाची शब्द हैं — अंगार, अलात, उल्मुक (अमरकोश, २/९/३०)। एक राजा का नाम भी उल्मुक था जो युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में आया था (महाभारत, सभा पर्व, ३५/१६, वन पर्व, १२०/१९, द्रोण पर्व, ११/२८)।
आतिशबाजी में जो चक्र चलता है, उसे अलात-चक्र कहते थे। माण्डूक्य उपनिषद् की एक व्याख्या का नाम अलात-शान्ति है, अर्थात् एक विन्दु की गति से चक्र का आभास (सिनेमा चित्र जैसा)। स्कन्द तथा पद्म पुराण में दीपावली उत्सव का वर्णन है। असुर राजा बलि इसी दिन पाताल गये थे, उस उपलक्ष्य में दीपावली का पालन होता है। सन्ध्या को स्त्रियों द्वारा लक्ष्मी पूजा के पश्चात दीप जलाते हैं तथा उल्का (आतिशबाजी) करनी चाहिये। उल्का तारागण के प्रकाश का प्रतीक है। आधी रात को जब लोग सो जायें तब तीव्र ध्वनि होनी चाहिये (पटाखा) जिससे अलक्ष्मी भाग जाये। विस्फोटक को बाण कहते थे और इनकी उपाधि ओड़िशा में बाणुआ तथा महाबाणुआ है। ओड़िशा के क्षत्रियों की उपाधि प्रुस्ति का भी यही अर्थ है। (प्रुषु दाहे, पाणिनीय धातु पाठ, १/४६७)
तिथितत्त्व अमावास्या प्रकरण में—
तुला राशिं गते भानौ अमावस्यां नराधिपः।
स्नात्वा देवान् पितॄन् भक्त्या संयुज्याथ प्रणम्य च॥
कृत्वा तु पार्वण श्राद्धं दधि क्षीर गुड़ादिभिः। ततो ऽपराह्ण समये घोषयेन्नगरे नृपः॥
लक्ष्मीः संपूज्यतां लोका उल्काभिश्चापि वेष्ट्यताम्॥
भारत मञ्जरी (१/८९०) —
प्रकाशिताग्राः पार्थेन ज्वलदुल्मुक पाणिना।
स्कन्द पुराण (२/४/९) —
त्वं ज्योतिः श्री रवीन्द्वग्नि विद्युत्सौवर्ण तारकाः।
सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिर्दीपज्योतिः स्थिते नमः॥८९॥
या लक्ष्मीर्दिवसे पुण्ये दीपावल्यां च भूतले। गवां गोष्ठे तु कार्तिक्यां सा लक्ष्मीर्वरदा मम॥९०॥
दीपदानं ततः कुर्यात्प्रदोषे च तथोल्मुकम्। भ्रामयेत्स्वस्य शिरसि सर्वाऽरिष्टनिवारणम्॥९१॥
पद्म पुराण (६/१२२) —
त्वं ज्योतिः श्री रविश्चंद्रो विद्युत्सौवर्ण तारकः।
सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिर्दीपज्योतिः स्थिता तु या॥२३॥
या लक्ष्मीर्दिवसे पुण्ये दीपावल्यां च भूतले।
गवां गोष्ठे तु कार्तिक्यां सा लक्ष्मीर्वरदा मम॥२४॥
शंकरश्च भवानी च क्रीडया द्यूतमास्थितौ।
भवान्याभ्यर्चिता लक्ष्मीर्धेनुरूपेण संस्थिता॥२५॥
गौर्या जित्वा पुरा शंभुर्नग्नो द्यूते विसर्जितः॥
अतोऽयं शंकरो दुःखी गौरी नित्यं सुखे स्थिता॥२६॥
प्रथमं विजयो यस्य तस्य संवत्सरं सुखम्।
एवं गते निशीथे तु जने निद्रार्ध लोचने॥२७॥
तावन्नगर नारीभिस्तूर्य डिंडिम वादनैः।
निष्कास्यते प्रहृष्टाभिरलक्ष्मीश्च गृहां गणात्॥२८॥
इसके श्लोक २३ में विद्युत्-सौवर्ण-तारक का उल्लेख है, जो छोटे-छोटे विद्युत् बल्बों की लड़ी है। इसी प्रकार भगवान् राम के युवराज अभिषेक के समय भी सज्जा के लिए प्रकाश तारकों की लड़ी लगी थी, जिसे दीप-वृक्ष कहा गया है—
प्रकाशी करणार्थं च निशागमन शङ्कया।
दीपवृक्षांस्तथा चक्रुरनुरथ्यासु सर्वतः॥ (अयोध्या काण्ड, ६/१८)
लंका विजय के पश्चात अयोध्या लौटने के समय भी रात्रि में मुक्त-पुष्प माला का प्रकाश था। रात्रि में घर केवल प्रकाश द्वारा ही शोभित हो सकते हैं।
शोभयन्तु च वेश्मानि सूर्यस्योदयनं प्रति।
स्रग्दामभिर्मुक्तपुष्पैः सुगन्धैः पञ्चवर्णकैः॥ (युद्ध काण्ड, १३०/८)
विद्युत् उत्पादन के लिए बैटरी का वर्णन अगस्त्य संहिता के एक संस्करण में है।
महाभारत काल में इन्द्रप्रस्थ में युधिष्ठिर की राज सभा १४ मास में मय ने बनायी थी। वह १०,००० किस्कू (किस्कू = २ हाथ = १ मीटर) लम्बा और चौड़ा थी। वह दिव्य प्रकाश द्वारा सूर्य जैसी प्रकाशित थी।
सभा च सा महाराज शातकुम्भ मयद्रुमा॥२२॥
दश किष्कु सहस्राणि समन्तादायताभवत्।
यथा वह्नेर्यथार्कस्य सोमस्य च यथा सभा॥२३॥
भ्राजमाना तथात्यर्थं दधार परमं वपुः।
अभिघ्नतीव प्रभया प्रभामर्कस्य भास्वराम्॥२४॥
ईदृशीं तां सभां कृत्वा मासैः परिचतुर्दशैः॥३७॥
(महाभारत, सभा पर्व, अध्याय ३)
शातकुम्भ मयद्रुमा = विद्युत् बल्ब वाले स्तम्भ।
इसी अर्थ में शतह्रदा अमरकोष में विद्युत् का पर्याय शब्द है —
शम्पा शतह्रदा ह्रादिन्यैरावत्यः क्षणप्रभा। तड़ित् सौदामिनी विद्युत् चञ्चला चपला अपि। (१/३/९)
इनमें शम्पा (शान्त विद्युत्), शतह्रदा (१०० बल्ब, या १०० सेल द्वारा उत्पन्न), ह्रादिनी (ह्रद, या बल्ब में प्रयुक्त), ऐरावत्य (इरा अर्थात् धारा रूप), सौदामिनी (शरीर स्थित) कृत्रिम विद्युत् के नाम हैं।
वरुण उतथ्य की पत्नी भद्रा का अपहरण कर अपने नगर ले गये जहां ६,००० बल्ब जल रहे थे —
जलेश्वरस्तु हृत्वा तामनयत् स्वं पुरं प्रति।
परमाद्भुत संकाशं षट्सहस्र शतह्रदम्॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, १५४/१४)
सभी चित्र एवं चलचित्र अयोध्या के बर्डमेन श्री आजाद सिंह जी द्वारा उपलब्ध करवाए गए हैं। उनका आभार।
अत्युत्तमः लेखः।
धन्यवादः भवताम्।
सादरं प्रणमामि।????????????
विद्वत्ता व गवेषणा पूर्ण लेख के लिए आभार। 👏👏💐🙏