Live in the moment चित्त एकाग्रता। आधुनिक मनोविज्ञान सत् चित्त आनंद की निष्पत्ति तक तो आ चुका है परन्तु उस स्थिति को प्राप्त करने का उपाय अभी आधुनिक मनोविज्ञान नहीं बता पा रहा परन्तु सनातन दर्शन इसका हल भी बताता है।
वर्तमान क्षण में जीने तथा वर्तमान कर्म के श्रेयस्कर होने की बात गीता सार के रूप में सर्वत्र पढ़ने को मिलती है। भूत का पश्चाताप या भविष्य की चिंता न कर वर्तमान में जीने का पाठ भला गीता से सुंदर कहाँ सम्भव है? अन्यत्र भी सनातन ग्रंथों में इस बोध की बारंबार चर्चा मिलती है। यथा, योगवासिष्ठ का यह श्लोक :
भविष्यं नानुसन्धत्ते नातीतं चिन्तयत्यसौ।
वर्तमाननिमेषं तु हसन्नेवानुवर्तते॥
अर्थात न तो भविष्य के विचार में लीन, न अतीत की चिन्ता। हँसते हुए वर्तमान क्षण में जीना।
चाणक्य ने भी इसी बात को कुछ इस प्रकार कहा है :
गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत्। वर्तमानेन कालेन वर्तयन्ति विचक्षणाः॥
सुख और प्रसन्नता के लिए वर्तमान क्षण में जीने के बोध से सनातन ग्रंथ भरे पड़े हैं। साथ ही मन के चञ्चल होने की बात तो भला कौन नहीं जानता! गीता में अर्जुन मन को चञ्चल, दृढ़, अड़ियल और बलवान बताते हुए उसके निग्रह को वायु निग्रह की भाँति अत्यंत कठिन बताते हैं :
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
श्रीकृष्ण इसका अनुमोदन भी करते हैं – असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
मन के चञ्चल होने और प्रसन्नता के लिए वर्तमान में जीने के इन दर्शनों को आधुनिक मनोविज्ञान ने भी टटोलने का प्रयास किया है। मनोवैज्ञानिकों ने इन प्रश्नों का उत्तर देने की कोशिश की है कि क्या ‘Be present’, ‘Live in the moment’ जैसे व्युपत्रित मंत्र सच में प्रभावी होते हैं? चञ्चल मन का सुख से क्या सम्बंध है?
अनेक अध्ययनों में सबसे प्रसिद्ध अध्ययन है, हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक प्रोफ़ेसर डैन्यल गिल्बर्ट और मैथ्यू किलिंग्सवर्थ का। इन प्रश्नों के उत्तर देने के लिए किया गया अध्ययन वर्ष २०१० ग्रे. में साइंस पत्रिका में A Wandering Mind Is an Unhappy Mind शीर्षक से शोधपत्र के रूप में प्रकाशित हुआ। इस शोध में वे सनातन परम्परा को नकारते नहीं है। शोध के परिचय का अवलोकन करें :
Unlike other animals, human beings spend a lot of time thinking about what is not going on around them, contemplating events that happened in the past, might happen in the future, or will never happen at all. Indeed, “stimulus-independent thought” or “mind wandering” appears to be the brain’s default mode of operation. Although this ability is a remarkable evolutionary achievement that allows people to learn, reason, and plan, it may have an emotional cost. Many philosophical and religious traditions teach that happiness is to be found by living in the moment, and practitioners are trained to resist mind wandering and “to be here now.” These traditions suggest that a wandering mind is an unhappy mind. Are they right?
परिचय के अतिरिक्त निष्कर्षों से भी सनातन सिद्धांतों की अद्भुत रूप से समानता है। भावनाओं और मन के चञ्चल होने का प्रयोगशाला में अध्ययन सरल नहीं है, विशेषतया दैनिक जीवन की भावनाओं और उनके प्रभाव का अध्ययन। यह तभी सम्भव है जब व्यक्ति अपने दिनचर्या के अनुभवों, विचारों और भावनाओं को वैसे ही उसे व्यक्त करें जैसे वे घटित हो रही होती हैं। इन जटिलताओं के कारण इससे पहले के सारे अध्ययन सीमित आँकड़ों पर आधारित थे परंतु इस अध्ययन में मनोवैज्ञानिकों ने मोबाइल फ़ोन के लिए एक ऐप बनाया जिससे अनेक व्यक्तियों की मनोदशा, विचार, भावनाओं और दिनचर्या के कार्य को वास्तविक समय में एकत्रित करने में सहायता मिली।
दिन के विभिन्न पलों में इस ऐप की सहायता से आँकड़ों को Track Your Happiness पर संग्रहित किया गया। शोध के लिए दिन के विभिन्न समयों पर व्यक्तियों को कुछ प्रश्नों का उत्तर देना था कि उस समय उन्हें कैसी अनुभूति हो रही थी? वे क्या कार्य कर रहे थे? क्या उस समय वे कार्य के अतिरिक्त कुछ और सोच रहे थे? इत्यादि।
शोध के प्रमुख निष्कर्ष थे कि मानव मन चञ्चल होता है। सांख्यिकी विश्लेषण से यह भी स्थापित हुआ कि हर प्रकार के कार्य में अधिक चञ्चल मन की अवस्था में व्यक्ति कम प्रसन्न होते हैं। अर्थात नियंत्रित एवं कम चञ्चल मन वाले व्यक्ति अधिक प्रसन्न रहते हैं – अरुचिकर कार्यों में संलग्न व्यक्ति भी प्रसन्न रहते हैं यदि उनका मन चञ्चल न हो और वे किए जा रहे कार्य के बारे में ही सोच रहे हों। यही नहीं, किए जा रहे कार्य के अतिरिक्त किसी और सुखद एवं रुचिकर बात को सोचते हुए भी व्यक्ति अप्रसन्न पाए गए, अरुचिकर एवं दुखद बातों को सोचते हुए कार्य करने वाले तो अप्रसन्न थे ही।
अर्थात, हम सुखद बातों को सोचते हुए कोई कार्य करते हैं तब भी हम सुखी नहीं होते परंतु यदि हम कार्य करते हुए मात्र उसी कार्य के बारे में सोचेंं तो अधिक प्रसन्न होते हैं भले ही हम बर्तन ही क्यों न धो रहे हों ! सर्वाधिक प्रसन्नावस्था तभी होती है जब हम वही सोच रहे होते हैं जो कर भी रहे होते हैं। सरल और सुंदर निष्कर्ष, गड्ढे खोदते हुए भी हम महल में होने की कल्पना करने से अधिक सुखी तब होते हैं जब हम गड्ढे खोदने के बारे में ही सोच रहे होते हैं! अर्थात जो करो तल्लीन होकर, आनंदपूर्वक, समभाव से।
अनासक्त होकर — कर्मण्येवाधिकारस्ते। या जो संतों ने कहा है, हर कार्य भगवान को समर्पित समझ कर:
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर।
सांख्यिकी विश्लेषण में इस बात का भी ध्यान रखा गया और स्थापित किया गया कि चञ्चल मन दुःख का कारण भी है मात्र परिणाम नहीं। साथ ही यह भी निष्कर्ष निकला कि सुख के लिए व्यक्ति क्या करते हैं, इस बात से भी अधिक महत्त्वपूर्ण यह होता है कि वे सोच क्या रहे होते हैं ! अर्थात, पुनः शोधपत्र के शब्द, Human mind is a wandering mind, and a wandering mind is an unhappy mind. The ability to think about what is not happening is a cognitive achievement that comes at an emotional cost.
जब ऐसा है तो सुख की खोज में भटकने तथा सुख के लिए अनेकों कार्य करने का क्या लाभ? और शोध का निष्कर्ष तो सटीक परंतु इसका हल भला क्या है? केंद्रित मन, सुखी मन स्थापित तो हुआ पर उसे प्राप्त कैसे करें? आधुनिक मनोविज्ञान इसका उत्तर नहीं देता। परंतु सनातन मार्ग के मनीषि न केवल इन बातों को विस्तृत रूप से बताते हैं इसके लिए हल भी बताते है :
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः। वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥
कठोपनिषद में भी कहा गया है :
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव च ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥
इन्द्रियाणि हयाना हुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥