मघा के इस अङ्क से हम राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान परिषद (NCERT) की पुस्तकों की समीक्षा करेंगे, यह देखेंगे कि सुधार अपेक्षित हैं या नहीं?
पहली पुस्तक है प्रथम कक्षा की हिन्दी पुस्तक ‘रिमझिम’ । इस हेतु अग्रहायण १९४० रा. सं. में छपा पाठ लिया गया है, जिसकी निर्माण समिति इस प्रकार है :
सम्पादक मण्डल :
प्रथम कक्षा में भाषा की पुस्तक का प्राथमिक उद्देश्य यह भी होना चाहिये कि विद्यार्थी बालवृन्द अपने अक्षरों एवं शब्दों से परिचित हों। यदि अपनी भाषा मूल के देसज या संस्कृत रूप उपलब्ध हों तो अन्य भाषाओं के बातचीत में प्रयुक्त शब्दों को उनके स्थान पर वरीयता नहीं दी जानी चाहिये क्यों कि बाल मन परिचय को बहुत ही दीर्घकालिक प्रभाव के साथ ग्रहण करता है । यदि इस समय परिचय नहीं दिया गया तो इसका अर्थ यही होता है कि उसे उसकी जड़ से दूर किया जा रहा है, तर्क जो दिये जायँ ।
पहले वर्णमाला को देखते हैं । परिषद की पुस्तक में दी हुई वर्णमाला से ‘अं’ एवं ‘अ:’ लुप्त हैं । ये दो वे वर्ण हैं जो हिन्दी की जननी संस्कृत में अनुनासिक एवं विसर्ग में प्रमुखता से प्रयुक्त होते हैं । इनके लोप को क्या समझें? वैदिक, राजस्थानी, मराठी सहित दक्षिण भारत की भाषाओं में भी प्रयुक्त एक महत्त्वपूर्ण ध्वनि हेतु अक्षर ‘ळ’ की उपेक्षा को क्या कहें?
साथ ही देवनागरी लिपि के अङ्क १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ० भी दिये जा सकते थे किन्तु नहीं दिये गये हैं।
पुस्तक में प्रयुक्त शब्दावली का अवलोकन करने पर दिखता है कि विदेशी मूल के शब्दों को संस्कृत या देसज शब्दों पर प्राथमिकता दी गयी है।
आमुख :
स्कूली – विद्यालयी
किताबी – पुस्तकीय
बुनियादी – आधारभूत
मजबूत दीवार – दृढ़ भीत
काफ़ी – बहुत
सवालों की मदद – प्रश्नों की सहायता
फ़ेरबदल – परिवर्तन
बोरियत – नीरसता, उचाट
बहस – वाद विवाद
हकीकत – वास्तविकता
कोशिश – प्रयास
वार्षिक कैलेण्डर – वार्षिक कार्यवृत्त
कई – अनेक
निगरानी समिति – अवेक्षण समिति [विडम्बना है कि इस प्रयोग के पश्चात कोष्ठक में मॉनिटरिंग कमेटी स्पष्टीकरण हेतु लिखा गया है । जब यह मान लिया गया कि निगरानी समझ में नहीं आनी तो विदेशज शब्द के स्थान पर अवेक्षण का प्रयोग क्या बुरा था जो कि सर्वेक्षण, निरीक्षण आदि अन्य शब्दों से जुड़ता भी है!]
बड़ों से दो बातें :
इस खण्ड में पुस्तक के स्थान पर सर्वत्र किताब शब्द का प्रयोग किया गया है। अन्य प्रयोग देखें :
बेझिझक – निस्संकोच
दौर से गुजरना – कालखण्ड से जाना
जरूरतों – आवश्यकताओं
बखूबी – अच्छे से
हिज्जे – वर्ण
चीज – वस्तु
इस्तेमाल – प्रयोग
मजेदार – मोदकर , आनन्दप्रद
पहलू – पक्ष
सिर्फ़ – केवल
बर्बाद – व्यर्थ
बल्कि – अपितु
दौरान – समय
इलाका – क्षेत्र
शुरुआती दौर – आरम्भिक काल (यह उर्दू की पुस्तक है या हिंदी की?)
चीज – वस्तु
बारीकी – सूक्ष्मता
आदत – अभ्यास
जरूरी – आवश्यक
गौर – ध्यान
पुस्तक में अन्यत्र कुछ प्रयुक्त-उपेक्षित शब्द इस प्रकार हैं :
शुरू-आरम्भ, आसमान-आकाश, फ़ाटक-किंवाड़, ज्यादा-अधिक, जोर-बल, गलती-त्रुटि, सब्जी-भाजी, शर्म–लाज, खाली-रिक्त, जहाज-यान, तरफ़-दिशा, हल्के से-धीरे से, बाजार-आपण, सामान-वस्तु।
शब्द प्रयोग में न आयें तो अपरिचित हो जाते हैं, उनसे लगाव या प्रयोग की स्वाभाविकता नष्ट हो जाती है तथा अंतत: वे मर जाते हैं। कुछ शब्द देखें। पुस्तक में प्रयुक्त शब्द पहले दिये गये हैं तथा दूसरे स्थान पर उनके संस्कृत या देसज विकल्प दिये जा रहे हैं जो कि न तो कठिन हैं, न प्रयोगबाह्य तथा जिन्हें पुस्तक में होना ही चाहिये था। पहला पग तो निज मूल के शब्दों के साथ लिया जाय, विदेशज तो आगे मिलते ही रहेंगे! शब्द भण्डार बढ़ाने का तर्क इस पुस्तक में वैसे ही चला है कि घर के गणेश जी फेंक दिये जायँ तथा लॉफिंग मॉङ्क को ला कर कहा जाय कि हम समृद्ध हो रहे हैं!
जिन लेखकों की रचनायें सम्मिलित हैं, वे इस प्रकार हैं।
सफ़दर हाश्मी की दो रचनायें ली गयी हैं मानो इतने बड़े हिन्दी क्षेत्र में एक अन्य लेखक मिला ही नहीं! एक विचारधारा विशेष के लेखक को इस प्रकार पहली कक्षा से ही पोषित किया गया है।
एक उदाहरण उड़िया पृष्ठभूमि की कहानी ‘सात पूँछ का चूहा’ का है जिसमें संतुलन रखने हेतु नाई का यह चित्र अनावश्यक रूप से घुसेड़ दिया गया है जब कि दो अन्य पट्ट चित्र हैं ही जिनमें एक पूँछ काटते हुये भी है।
बालमन को प्रभावित करने की यह युक्ति ध्यातव्य है। अपरञ्च यह कहानी अपने आप में एक प्रतीकात्मकता भी रखती है। ऐसे ही एक कहानी ‘हलीम चला चाँद पर’ भी रखी गयी है जिसमें एक पैगम्बर की कथित चाँद यात्रा की प्रेरणा स्पष्ट है।
निष्कर्ष :
उपर्युक्त प्रेक्षणों से स्पष्ट है कि इस पुस्तक में व्यापक संशोधन की आवश्यकता है।
(सभी चित्र उक्त पुस्तक से, अलाभकर शैक्षिक उपयोग मात्र , सर्वाधिकार – NCERT)
अगले अंक में :
गणित की पुस्तक का आरम्भ अरब एवं ऊँट से !
समाचार पत्र के सम्पादक यदि भूल करते हैं तो बोध होता है, परंतु यहाँ विषय प्रारंभिक शिक्षा का है. शिक्षक एवं भाषा लेखको और सम्पादक मंडल को पुनर्विचार करना चाहिए.
निस्संदेह, इस पुस्तक के अवलोकन से किसी षड्यंत्र की गंध आती प्रतीत हो रही है । यह षड्यंत्र , प्रकारांतर में हिंदी की हत्या का ही समझा जाना चाहिए ।