Negativity bias Good Company सत्संग
वर्ष २००५ में रिव्यू ऑफ जनरल साइकोलोज़ी में छपे शैली गेबल और जोनाथन हैडट के एक शोध पत्र के अनुसार सामान्यतः हमें नकारात्मक से तीन गुना अधिक सकारात्मक अनुभव होते हैं। यह शोध पढ़ते हुए मन में स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि यदि ऐसा है तो क्यों हम बहुधा अपने आपको नकारात्मक अनुभवों से ही घिरा पाते हैं?
मनोविज्ञान इस प्रश्न के दो उत्तर प्रस्तुत करता है, नकारात्मक पूर्वाग्रह (negativity bias) तथा
अभ्यस्त प्रकृति।
वर्ष २००१ में प्रकाशित शोध Bad Is Stronger than Good के अनुसार जीवन में घटित नकारात्मक अनुभव सकारात्मक अनुभवों से अधिक प्रभावी होते हैं। अनाकर्षक सूचनाओं को मस्तिष्क अधिक तीव्रता से संसाधित करता है तथा वे स्मृति में भी प्रमुखता से रहते हैं। अभ्यस्त होना अर्थात सुख विषयक भ्रामक चक्की (hedonic treadmill), जिसकी चर्चा हम अन्य लेखांशों में कर चुके हैं। इसके अनुसार मनुष्य हर प्रकार के सुखद क्षणों के पश्चात पुनः अपने स्वयं के सुखी रहने की अनुभूति के अभ्यस्त स्तर पर लौट जाता है। इन्हीं से जुड़े अध्ययनों में वर्ष २०१२ में Journal of Social and Personal Relationships में प्रकाशित एक शोधपत्र A Boost of Positive Affect: The Perks of Sharing Positive Experiences में पाया गया कि सकारात्मक अनुभवों के बारे में बात करने से व्यक्ति प्रसन्नचित रहने के साथ साथ अपने अपने जीवन से अधिक संतुष्ट तथा ऊर्जावान रहते हैं। इस शोध से यह प्रयोगसिद्ध हुआ कि सकारात्मक अनुभवों को अन्य व्यक्तियों से साझा करने से अनेक लाभ होते हैं। सुख बाँटने से बढ़ता है तथा दुःख घटता है, यह जगत प्रसिद्ध है परंतु इस शोध से यह वैज्ञानिक रूप से प्रयोगसिद्ध हुआ।
अर्थात सुखी रहने का एक सरल उपाय है, अपने अच्छे अनुभवों के बारे में बात करना। इस अध्ययन में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा रोचक बात यह भी थी कि सकारात्मक अनुभवों को सुनने वाला व्यक्ति भी उचित होना चाहिए अर्थात कुपात्र न हो। सकारात्मक अनुभवों तथा सफलताओं के बारे में सुन जो व्यक्ति प्रोत्साहन भरे शब्द कहते हैं तथा प्रसन्न होते हैं, वे अधिक प्रभावी होते हैं। सुनकर कोई प्रतिक्रिया ही न दे या हमारी आलोचना ही करने लगे तो स्वाभाविक ही है कि ऐसी अवस्था में प्रसन्नता, जीवन से संतुष्टि तथा ऊर्जस्विता इत्यादि होने वाले लाभ भला क्या मिलेंगे! वर्ष २००८ में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन Dynamic Spread of Happiness in a Large Social Network: Longitudinal Analysis over 20 Years in the Framingham Heart Study में भी इसी प्रकार यह पाया गया कि साझा करने से स्वयं की प्रसन्नता बढ़ने के अतिरिक्त प्रसन्नता अन्य व्यक्तियों को भी प्रभावित करती है अर्थात यदि आप स्वयं प्रसन्न रहते हैं तो आप अपने आस पास के अन्य व्यक्तियों की प्रसन्नता में भी सहायक होते हैं।
संचार क्रांति के युग में इन बातों का महत्त्व अधिक बढ़ जाता है जिसकी पुष्टि अनेकों अध्ययनों में हुई है। वर्ष २०१४ में हुए एक अध्ययन में पता चला कि फ़ेसबुक पर अधिक समय व्यतीत करने वाली महिलाओं को अपने शरीर को लेकर नकारात्मक सोच उपजती है। वर्ष २०१४ में ही किए गए एक अन्य अध्ययन Experimental Evidence of Massive-Scale Emotional Contagion through Social Networks में यह पाया गया कि जब व्यक्तियों की फ़ीड से सकारात्मक लेख हटा दिये गये, उन्होंने उससे प्रभावित होकर नकारात्मक लेख लिखे तथा जब लोगों की फ़ीड से नकारात्मक लेख हटा दिये गये तो उन्होंने सकारात्मक लेख लिखे। फ़ेसबुक द्वारा ६८०,००० व्यक्तियों पर किए गए इस अध्ययन का अर्थ यह भी निकला कि कथित ‘आभासी संसार’ में भी हम जिस प्रकार के व्यक्तियों से घिरे होते हैं, उनकी भावनाएँ हमारे लिये संक्रामक होती हैं। अध्ययन में सम्मिलित कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर जेम्स फ़ाउलर ने अध्ययन से जुड़े एक साक्षात्कार में कहा –
For every one happy message that you write, our study suggests that your friends who live in other cities will be influenced by that to write an additional one or two posts themselves. That means that these emotions that you’re feeling and expressing aren’t just felt by you, they’re felt by your friends as well.
यह भी रोचक है कि दूसरे व्यक्ति की भावनाओं से प्रभावित होने के लिए आवश्यक नहीं कि हम उस व्यक्ति के साथ हों या उसके हाव भाव का अवलोकन करें, मात्र शब्दों से भी हम प्रभावित हो जाते हैं।
युग भले परिवर्तित हो जाएँ, संचार के माध्यम परिवर्तित हो जाएँ पर दर्शन तो वही सनातन होता है जो सदा उपयोगी हो, समय से परे। सनातन दर्शन का अवलोकन करें तो संगति तथा उसके प्रभावों से सम्भवतः एक ग्रंथ भी अछूता नहीं है –
मोक्षद्वारप्रतीहाराश्र्चत्वारः परिकीर्तिताः ।
शमो विवेकः सन्तोषः चतुर्थः साधुसंगमः ॥
दूसरे की प्रसन्नता देख जो जिस प्रकार का व्यवहार करता है उससे तो व्यक्ति ही परिभाषित है –
साधवः परसम्पत्तौ खलाः परविपत्तिषु।
(साधु व्यक्ति अन्य व्यक्तियों की सम्पन्नता देख प्रसन्न होते हैं , परन्तु नीच और दुष्ट व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को विपत्तिग्रस्त देख कर ही प्रसन्न होते हैं।)
संगति से मन:स्थिति पर प्रभाव भी तो स्पष्ट रूप से वर्णित है –
हीयते हि मतिस्तात् हीनैः सह समागतात् ।
समैस्च समतामेति विशिष्टैश्च विशिष्टितम् ॥
(हीन लोगों की संगति से स्वयं की बुद्धि हीन हो जाती है, समान लोगों के साथ रहने से समान बनी रहती है तथा विशिष्ट लोगों की संगति से विशिष्ट हो जाती है।)
संचार माध्यमों पर भी किस प्रकार के व्यक्तियों से मित्रता रखें, इस विषय में आधुनिक शोध भी वही तो कहते हैं जो यह सुभाषित –
आनन्दमृगदावाऽग्नि: शीलशाखिमदद्विपः।
ज्ञानदीपमहावायुरयं खलसमागमः ॥
(एक दुष्ट और नीच व्यक्ति की संगति से सज्जन की स्थिति भी ऐसी हो जाती है जैसे कि वन में आनन्दपूर्वक विचरण कर रहे एक मृग की वन में भयंकर आग लग जाने पर हो जाती है। उसकी पवित्रता और शील उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार एक वृक्ष की शाखायें एक मदमस्त हाथी द्वारा तोड़े जाने पर तथा जिस प्रकार प्रबल वायु के झोंकों से दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार उसका ज्ञान और विवेक भी नष्ट हो जाता है।)
प्रसन्नचित व्यक्ति से अन्य व्यक्तियों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ने की बात गीता की इस पंक्ति में है –
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।
(प्रसन्नचित्त व्यक्ति की बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है और स्थिरबुद्धिवाले पुरुषको कृतकृत्यता मिलती है।)
इस विषय पर पातञ्जलि योगसूत्र तथा उसके भाष्य में भी सुंदर प्रकरण मिलता है –
मैत्रयादिषु बलानि। तथा मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्॥
व्यास भाष्य के अनुसार प्रसन्न व्यक्तियों से मित्रता करने पर साधक को बल मिलता है। दु:खी जनों के प्रति करुणा तथा सज्जनों के प्रति आनन्द भाव रखने से बल मिलता है। वरेण्य – प्रसन्न व्यक्तियों से मित्रता, दुखी लोगों के प्रति करुणा, अच्छे कार्य करने वालों का साथ तथा अनुचित करने वालों की उपेक्षा।
प्रसन्नता साझा करने से बढ़ती है, इसका एक सरल संदर्भ तो विदुर-नीति का सुभाषित ही है जो अकेलेपन में प्रसन्नता को व्यर्थ बताता है –
एक: स्वादु न भुञ्जीत एकश्चार्थान्नचिन्तयेत् ।
एको न गच्छेदध्वानं नैकः सुप्तेषु जागृयात् ॥
कितने संदर्भ उद्धृत किए जाएँ, महत्वपूर्ण आधुनिक अध्ययनों का सारांश ऐसे भी लिखा जा सकता है –
तिन समान कोई और नहि, जो देते सुख दान ।
सबसे करते प्रेम सदा, औरन देते मान॥
वदनम् प्रसाद सदनम्, सदयम् हृदयम् सुधमुचो वाचः।
करणम् परोपकरणम्, ऐषां तेषानु ते वन्द्या ॥
(जिनके मुखमण्डल पर सदैव प्रसन्नता विराजमान रहती है, जो अपने जीवन में शान्त, सन्तुष्ट और प्रसन्नचित्त रहते हैं। विषम परिस्थितियों में भी प्रसन्नता से भरपूर रहते हैं, मधुर-मुस्कान जिनके मुख मण्डल पर सदैव तैरती रहती है। वे लोग इस संसार में वन्दनीय हैं, धन्य हैं और पूजनीय हैं क्योंकि जगत में स्वर्ग की स्थापना उन्हीं के कर कमलों से संभव होती है जो प्रसन्न होते हैं।)
आधुनिक अध्ययन हों या सनातन दर्शन, संसार हो या आभासी अन्तर्जाल, निर्णय स्वयं का है कि हम किस प्रकार के व्यक्तियों से घिरे रहना चाहते हैं –
शिरसा सुमनः सङ्गाद्धार्यन्ते तंतवोऽपि हि।
तेऽपि पादेन मृद्यन्ते पटेऽपि मलसङ्गताः॥
(पुष्प की संगति से धागा भी मस्तक पर धारण होता है, और वही धागा जाल के संग से पाँव तले कुचला जाता है।)
अर्थात –
यदि सत्सङ्गनिरतो भविष्यसि भविष्यसि।
अथ दुर्जनसंगो पतिष्यसि पतिष्यसि ॥
(अच्छे के संग से उन्नति, बुरे से पतन।)