15 जून 2018, अम्बासा, जिला धलाई, उत्तरी त्रिपुरा। छ: जन के अति निर्धन परिवार के मुखिया स्वपन देबबर्मा अपनी नौ वर्ष की पुत्री सुमति के साथ वन उत्पाद एकत्रित करने हेतु भटक रहे थे कि उन्हें लगभग एक किलोमीटर का रेल पथ भूस्खलन के कारण धँसा दिखा। उन्हें लग गया कि यदि कोई भी रेलगाड़ी उस पथ पर आ पहुँची तो सर्वनाश निश्चित था। दोनों पिता पुत्री ने घण्टा भर वहीं रेलगाड़ी के आने की प्रतीक्षा की।
आती हुई रेलगाड़ी को रोकने के लिये स्वपन ने अपना परिधान उतार चालक को सङ्केत देना आरम्भ किया। मैले कुचैले जीर्ण शीर्ण वस्त्र पहने स्वपन को कहीं चालक पागल न समझ इस हेतु उन्हों ने अपनी पुत्री को आगे रखा एवं उसे भी चालक को सङ्केत करने को कहा। चालक ने देख कर समझ लिया कि अवश्य ही कुछ गड़बड़ है एवं समय रहते हुये रेलगाड़ी को रोक दिया। अनुमानत: 2000 यात्रियों के प्राण इन दो ने अपने प्राणों को दाँव पर लगा बचा लिये।
स्वपन को मुख्यमन्त्री सहित त्रिपुरा विधानसभा ने भी धन्यवाद दिया। उनके नियोजन हेतु भी माँग उठ रही है ताकि परिवार की निर्धनता दूर हो।
ऐसी पहले भी घटनायें होती रही हैं, आगे भी होंगी।
एक प्रश्न उठता है कि ऐसे कार्यों की प्रेरणा कहाँ से मिलती है? क्या आदिम समय में विभिन्न आपदाओं एवं सङ्कट से जूझते मानव समाज की ‘समाज में रह कर, उसकी रक्षा कर, स्वयं भी सुरक्षित रहने’ की नैसर्गिक रूप से विकसित प्रवृत्ति का यह अवशेष मात्र है? या इसके पीछे अन्य कारण भी हैं?
ध्यान दें तो यह प्रवृत्ति दैनिक जीवन में भी मिलती है। मान लें कि कोई महिला बाइक पर पीछे बैठी जा रही है एवं उसके वस्त्र इस भाँति लटक रहे हैं कि पहियों में उलझ कर दुर्घटना के कारक हो सकते हैं। ऐसे में उस नितान्त अपरिचित महिला को भी हम सङ्केत दे देते हैं कि सँभाल ले, न देखे तो आगे बढ़ कर बताते हैं। उस पर क्रोधित भी होते हैं कि अपना ध्यान तक नहीं रख रही ! किसी अपङ्ग को मार्ग पार करता हुआ देख हम सहज ही सहायता को तत्पर हो जाते हैं। ऐसे कार्यों के पीछे संस्कार एवं शिक्षा के अतिरिक्त अन्य कारक भी काम करते हैं। उपर्युक्त घटना में तो पिता पुत्री ने निज प्राण चले जाने के आसन्न सङ्कट की भी उपेक्षा की। बाइक जैसी घटनाओं में बताने वाले को कोई वैसा सङ्कट नहीं होता। दोनों ही परिस्थितियों में, चाहे परायों के लिये प्राण देने तक का सङ्कल्प हो या न हो, नि:स्वार्थ भाव ही काम कर रहा होता है जो कि दर्शाता है कि जीव स्तर पर हम सभी कहीं न कहीं एक दूसरे से जुड़े हुये हैं, हमारी करुणा एवं परदु:खकातरता की परास हमारे निजी अस्तित्व से भी आगे तक बढ़ी हुई है।
सन्त हों या लोक कल्याण में लगे जन; वे उसका विस्तार आगे बढ़ाते जाते हैं। उनके लिये समस्त मानवता एवं जीवधारी एक हो जाते हैं।
ऐसा क्यों होता है? क्यों कि हम अपनी गढ़ने में मौलिक रूप से शुभ्र हैं, अच्छे हैं एवं दैवी सम्पदा से युक्त हैं।
भारतीय मनीषा ने इसे जाना एवं इसके सम्वर्द्धन हेतु ही अपनी समस्त मेधा झोंक दी। समूचे भारतीय वाङ्मय का सूक्ष्म अध्ययन करें तो पायेंगे कि वही एक रश्मि सबको जोड़े हुये है, विविध मत मतान्तर, वाद, सिद्धान्त आदि में व्याप्त है। वह रश्मि है – मनुष्य की मौलिक अच्छाई पर चरम विश्वास।
अब्राहमी मतों की भाँति भारतीय चिन्तन मनुष्य की उत्पत्ति को original sin, मौलिक पापकर्म से मान प्रकारान्तर से घृणित नहीं ठहराता। उसके लिये तो मनुष्य अमृत पुत्र है। इस तथ्य को अरबिन्दो, विवेकानन्द, श्रीराम शर्मा आदि के लेखन में बहुत गहराई से रेखाङ्कित किया गया है।
ऋग्वेद में अमृतस्य के इतने प्रयोग हैं कि आश्चर्य होता है।
अमृत की शिक्षा है, अमृत का पथ है, अमृत की शोभा है, अमृत का स्वराज है … वह अमृत अनन्त सम्भावनाओं से भरा सहस्रशीर्ष है, सहस्रबाहु है, सहस्रनेत्र है :
कु॒विन्मा॑ गो॒पां कर॑से॒ जन॑स्य कु॒विद्राजा॑नं मघवन्नृजीषिन् ।
कु॒विन्म॒ ऋषिं॑ पपि॒वांसं॑ सु॒तस्य॑ कु॒विन्मे॒ वस्वो॑ अ॒मृत॑स्य॒ शिक्षा॑: ॥
(ऋग्वेद, 3.43.5)
व्य॑कृणोत चम॒सं च॑तु॒र्धा सखे॒ वि शि॒क्षेत्य॑ब्रवीत ।
अथै॑त वाजा अ॒मृत॑स्य॒ पन्थां॑ ग॒णं दे॒वाना॑मृभवः सुहस्ताः ॥
(ऋग्वेद, 4.35.3)
स॒मि॒ध्यमा॑नो अ॒मृत॑स्य राजसि ह॒विष्कृ॒ण्वन्तं॑ सचसे स्व॒स्तये॑ ।
विश्वं॒ स ध॑त्ते॒ द्रवि॑णं॒ यमिन्व॑स्याति॒थ्यम॑ग्ने॒ नि च॑ धत्त॒ इत्पु॒रः ॥
(ऋग्वेद, 5.28.2)
तमु॑ नू॒नं तवि॑षीमन्तमेषां स्तु॒षे ग॒णं मारु॑तं॒ नव्य॑सीनाम् ।
य आ॒श्व॑श्वा॒ अम॑व॒द्वह॑न्त उ॒तेशि॑रे अ॒मृत॑स्य स्व॒राज॑: ॥
(ऋग्वेद, 5.58.1)
यु॒जे वां॒ ब्रह्म॑ पू॒र्व्यं नमो॑भि॒र्वि श्लोक॑ एतु प॒थ्ये॑व सू॒रेः ।
शृ॒ण्वन्तु॒ विश्वे॑ अ॒मृत॑स्य पु॒त्रा आ ये धामा॑नि दि॒व्यानि॑ त॒स्थुः ॥
(ऋग्वेद, 10.13.1)
जो मरे न, वह अमर, जिससे ऐसा हो वह अमृत। मनुष्य की मौलिक अच्छाई ही तो नहीं मरती, अन्यथा विनाशक एवं श्रद्धाभञ्जक घटित की विशाल संख्या के आगे मानवता जाने कब की समाप्त हो चुकी होती !
हम सबमें कहीं न कहीं स्वपन देबबर्मा सा अमृत तत्व है, उसे जानें, उसे सम्वर्द्धित करें, उसे कार्यरूप दें। लघु इकाइयों से ही बृहद संसार होता है। आप अमृत की सन्तान हैं, स्वयं को सम्पूर्णता में विकसित कर अमृत सन्तति बनें, जो आप मूलत: हैं ही, प्रकटीकरण मात्र शेष है।