भारत में अभियाननाद नहीं, आर्तनाद ही चल रहा है। भारतविद्या एवं भारत की उन्नति के इच्छुक गम्भीर युवाओं को इन सब प्रवृत्तियों से मुक्त हो कर्मसंलग्न होना होगा अन्यथा स्थिति वही ढाक के तीन पात न रह कर आगे भी क्षरित होती रहेगी। हम मिथ्या गौरवबोध में जीने को आतुर हैं, वह हमारा अंग बन चुका है। पुरातन का अध्ययन, उनका वैज्ञानिक एवं सत्यनिष्ठ विश्लेषण तथा आक्रमणों के सटीक उत्तर, ये सब होने चाहिये किंतु उसके स्थान पर हो क्या रहा है?
भारतीय परम्परा के कथित अग्रदूत आतुर प्रतीत होते हैं। उन्हें इसकी बहुत त्वरा है कि इस पर लगे आक्षेपों का चाहे जिस विधि निराकरण तो होना ही चाहिये, जो मान्यतायें एवं ग्रंथलिखित हैं, उन ‘सब की पुष्टि’ भी उसी विधि से होनी चाहिये। यह एक अकाट्य सत्य है कि उपनिवेशवादी एवं श्वेतनृजातिश्रेष्ठतावादी ब्रिटिश तंत्र से ले कर उत्तरब्रिटिशकाल में आज तक परम्परा पर प्रहार हुये हैं तथा होते रहे हैं जिनकी मानसिकता का विद्यानिष्ठा से कुछ नहीं लेना देना। निहित स्वार्थी एवं गर्हित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की पूर्ति हेतु कूटरचना से ले कर मिथ्या व्याख्या तक के समस्त उपाय प्रयोग में लाये गये, लाये जा रहे हैं तथा उनका एक ऐसा कोटस्थ तंत्र है जो इनका प्रचार प्रसार, पोषण एवं दीर्घजीविता सुनिश्चित करता है।
विगत कुछ वर्षों में कथित सामाजिक सञ्चार माध्यमों एवं पश्चिम में बसे हुये विद्वान एवं प्रतिष्ठित भारतीयों द्वारा सञ्चालित एवं प्रेरित आंदोलनों को मिला कर एक किञ्चित बिखरा परन्तु सशक्त ‘प्रतिरोधी तंत्र’ खड़ा हुआ है। साक्ष्य प्रस्तुत किये जा रहे हैं, दुर्भावनायुक्त पुरानी एवं नयी स्थापनाओं की काट प्रस्तुत की जा रही है। मूल संदर्भों से ढूँढ़ ढूँढ़ कर नये निरूपण भी प्रस्तुत किये जा रहे हैं। जिस ‘मूल धारा’ का अपहरण एवं दूषण वाममार्गी विश्वविद्यालयीय तंत्र द्वारा कर लिया गया, उस तक यह तंत्र अभी नहीं पहुँच पाया है तथा निकट भविष्य में इसकी बहुत सम्भावना भी नहीं दिखती। इसका कारण उनका अभाव है जिन्हें तप, राजकीय संरक्षण एवं दृढ़निश्चय कहते हैं। हिंदी वाले उन्हें समेकित रूप में भारतेंदु, महावीरप्रसाद द्विवेदी से ले कर कथित छायावाद के उस कालखण्ड से समझ सकते हैं जिसमें आज की हिंदी गढ़ी एवं विकसित की गयी। ब्रज, फारसी, उर्दू एवं अंग्रेजी जैसी भाषाओं के होते हुये भी सधे, दृढ़निश्चयी एवं बहुआयामी तप द्वारा एक ऐसी भाषा का रूपाकार निश्चित किया गया जिसे राजकीय संरक्षण भी मिला तथा आज वह जाने कितने राज्यों की प्रधान भाषा है – संवाद से सरकार तक।
यह उदाहरण भाषा पर विमर्श हेतु नहीं है, यह दर्शाने हेतु है कि किसी भी नवोन्मेष या सार्थक परिवर्तन हेतु कितना कुछ लगता है, तथा यह दशकों का काम होता है, दो दिन का नहीं।
आज मानविकी से ले कर मानविकी समन्वित विज्ञान विधाओं तक, सर्वत्र जो दृढ़कथ्य स्थापित हो ‘प्रचलन’ एवं मुख्यधारा का अंग है; उसे शोधित करने हेतु जिस महान तपशृंखला की आवश्यकता है, उसे आधुनिक हिंदी के उक्त गढ़न अभियान से महत्तर होना ही होगा। यह कहा जा सकता है कि जो त्वरा या जो दोषी स्थापनायें दिख रही हैं, वे आरम्भ की संक्रमणीय अवस्था का अंग हैं तथा ऐसे ही चलता रहा तो आगे ‘सत्य’ स्वयं अपने को प्रकाशित कर देगा किंतु यह एक सदिच्छा मात्र ही है। एकल सत्य जैसा कुछ नहीं होता, किसी के सत्य के साथ उसका बल भी होना चाहिये। इस यथार्थ के अनेक उदाहरणों में एक तो संविधान निर्माण से जुड़े कुछ प्रचलित ‘सत्य’ भी हैं कि आज यदि उनकी समान्तर सचाइयों पर बल दिया जाय तो बवाल की सम्भावनायें अनन्त हो जाती हैं!
प्रतिरोध के रूप में जो आज दिख रहा है, उसका अधिकांश प्रतिक्रिया मात्र है, रचनात्मक नहीं। जन सामान्य को चैतन्य करने एवं मौलिक स्तर पर विचार सरि को नयी दिशा दे छिटपुट आंदोलन खड़े करने में उसका योगदान है किंतु मात्र उससे बात नहीं बनने वाली, तब और जब उसके साथ लगी उन हास्यास्पद स्थापनाओं की दिन प्रतिदिन बढ़ती संख्या हो जिन्हें निरस्त करना वाम के वामहस्त की सिद्धि हो।
आज के युग में ऐसी घटनायें एक निश्चित घेरे में सीमित नहीं रह जातीं, इनका व्यापक प्रभाव पड़ता है। ये युवा मन को ऐसे मिथ्या गर्वबोध से भी भरती हैं जिसके प्रभाव में उसकी बुद्धि कुण्ठित हो जाती है तथा वह एक विगत ‘स्वर्णकाल’ में जीने लगता है। वर्तमान के साथ चल कर कुछ बड़ा स्थायी प्रभावी कर देने की वह सोच भी नहीं सकता। उसे यह मोटी बात भी समझ में नहीं आती कि जिस ‘प्राचीन गौरवमयी सभ्यता’ के सम्मोहन में वह जी रहा है, वह सदा नवोन्मेषी एवं प्रवाही रही। उसे लगता है कि काल के एक संकुचित खण्ड विशेष में सारा ज्ञान ऋषियों ने पा लिया तथा उसे ग्रंथों में सुरक्षित कर दिया, आगे कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है। ये सभी प्रभाव मिल कर आत्मघाती, कल्पनाजीवी, अकर्मठ एवं पलायनी मानस का सृजन करते हैं। दुर्भाग्य से, ये सभी लक्षण आज की प्रतिरोधी धारा में न केवल दिख रहे हैं, अपितु बढ़ते ही जा रहे हैं।
कुछ उदाहरण देखें :
(१) सुब्बार्य शास्त्री द्वारा बीसवीं शताब्दी में ‘वैमानिक शास्त्र’ लिखा गया जिसे भरद्वाज, नारद आदि ऋषियों द्वारा ‘प्रेरित’ बताया गया। १९७४ ग्रे. में प्रतिष्ठित भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलोर द्वारा इस कथित ‘उद्घाटित शास्त्र’ का बृहद विश्लेषण करने पर उसे सामान्य वैज्ञानिक सिद्धांतों के विरुद्ध एवं जाली पाया गया। जिन प्राचीन पाण्डुलिपियों का उल्लेख किया गया था वे कभी, कहीं नहीं पाई गईं।
जनवरी २०१५ ग्रे. में यह ग्रंथ पुन: चर्चा में लाया गया जिसके नेपथ्य में आधारहीन गौरवबोध के अतिरिक्त कुछ नहीं था। उल्लेखनीय है कि भारतीय मेधा १९१८ ग्रे. में उक्त शास्त्र के उद्घाटन से ले कर आज तक भी वैमानिकी के क्षेत्र में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं कर पाई।
तर्क-वितर्क में श्रीनिवास रामानुजन के गणितीय सूत्रों की बातें की जाती हैं जिनके बारे में उन्हों ने दैवी प्रेरणा की बात की था। यदि दैवी प्रेरणा की बात मान भी लें तो क्या इससे यह सिद्ध हो जाता है कि दैवीय प्रेरणा द्वारा अर्जित बताया जाने वाला प्रत्येक कथित शास्त्र वास्तविक भी होता है? क्या किसी वैज्ञानिक उद्घाटन को परख कर स्वीकार नहीं किया जाना चाहिये? रामानुजन के गणितीय सूत्र परखे गये हैं, उन्हें मौलिक पाया गया है, जब कि वैमानिक शास्त्र के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है।
(२) महाभारत का कथित ‘धर्मं हिंसा तथैव च’। किसी भी जाली कूटरचना की दीर्घजीविता एवं प्रभाव का यह एक बहुत बड़ा उदाहरण है। इस ‘रचना’ से बड़े बड़े विद्वान तक प्रभावित एवं बिना महाभारत देखे इसे सच मानने वाले पाये गये हैं जब कि यह मौलिक रूप से ही दूषित है।
कथित मूलनिवासियों पर कथित यूरेशियावासियों के आक्रमण एवं आक्रांताओं की संतानों को बाहर करने के अत्यंत घृणित प्रचारतंत्र की प्रतिक्रिया में बौद्ध धम्म को ही भारत की समस्त समस्याओं का कारण मानने वाली मानसिकता की धर्म के मूल अंग ‘अहिंसा’ के विरुद्ध यह जाली रचना है क्यों कि अहिंसा को वह केवल बुद्ध से जोड़ कर देखती है। अनध्ययन की यह स्थिति है कि उसे ज्ञात ही नहीं कि महाभारत में अहिंसा का माहात्मय आदि से अंत तक विद्यमान है।
(३.) सरस्वती-सिंधु सभ्यता में अश्व की ‘अनुपस्थिति’ के उत्तर में एक मुद्रा पर अश्व की भंग प्रतिमा होने की ‘वैज्ञानिक’ स्थापना की गयी जो कि आगे चल कर जाली कूटरचना ही सिद्ध हुई, जो थू-थू हुई सो तो हुई ही।
(४.) अभी, आजकल इराक (प्राचीन मेसोपटामिया) में श्रीराम एवं हनुमान का भित्तिचित्र पाये जाने का प्रचार कोलाहल है। कारण है एक शोधसंस्था द्वारा राजनयिक सहयोग के साथ वहाँ की जाँच यात्रा कि क्या वास्तव में वहाँ श्रीराम का ही अंकन है? बड़े-बड़े मूर्धन्य समवेत मूर्खतापूर्ण कण्ठनिनाद में लगे हैं। वहाँ, उक्त अंकन के पार्श्व में ही जो अभिलेख है, या उससे जुड़े जो अन्य स्थल एवं अभिलेख हैं, उनकी कोई बात ही नहीं कर रहा।
ये कुछ उदाहरण हमारी मानसिकता का दर्पण हैं कि हम मिथ्या गौरवबोध में जीने को आतुर हैं, वह हमारा अंग बन चुका है। पुरातन का अध्ययन, उनका वैज्ञानिक एवं सत्यनिष्ठ विश्लेषण तथा आक्रमणों के सटीक उत्तर, ये सब होने चाहिये किंतु उसके स्थान पर हो क्या रहा है? संस्कृत सीखने एवं मूल ग्रंथों को देखने की किसी को पड़ी नहीं। कहीं कुछ लिखा दिख जाता है जिसे लिखने वाला या तो उपरौछा लगा होता है या छिपे हुये उद्देश्य से उछाल रहा होता है तथा जनता टूट पड़ती है। क्या है यह?
कहने वाले कहते हैं कि विवेकानंद ने टेस्ला पर प्रभाव डाला था। टेस्ला तो जाने क्या कुछ कर गया, विवेकानंद के देश के होते हुये भी, वेदांत के जनक होते हुये भी आप उस ज्ञान से क्या कर पाये? उपनिषदों की उक्तियों के परमाणु ऊर्जा से सम्बंधित विविध पक्षों के शोधकर्ताओं पर प्रभाव की बातें स्फीतवक्ष हो कर की जाती हैं, उन उपनिषदों का उ भी जानने का आप ने कितना प्रयास किया? उनसे आप कौन सा वैज्ञानिक नवोन्मेष कर पाये? पश्चिम के मध्यकालीन गणित विकास को भारत से चुराया या प्रेरित बताया जाता है। अच्छा है किंतु आप उसे क्यों भूल गये? आप उस ज्ञान को आगे क्यों नहीं बढ़ा पाये? ऐसा क्यों हुआ कि विशुद्ध विज्ञान ग्रंथों के उपलब्ध होते हुये भी उनके अध्ययन के स्थान पर ज्ञान की पुराणप्रवृत्तिमिश्रित धारा को ही महत्त्व दिया गया? नितांत आलसी स्वभाव के पुरातन गौरवबोध को पुष्ट करती उक्त प्रवृत्ति का आज के युग में भी नैरंतर्य कहीं बहुत बड़ी मौलिक भूल का लक्षण तो नहीं?
वास्तविकता यह है कि समर्पण, अनुशासन, अध्ययन, नि:स्वार्थ भाव, सत्य एवं वस्तुनिष्ठा, श्रम, निर्ममत्व, अंत:प्रेरणा, अनसूया, सहयोग, पोषण, प्रोत्साहन, रक्षण एवं प्रचार समन्वित जिस व्यापक एवं गहन तंत्र की आवश्यकता है, उस हेतु भी प्रयास भारत भूमि से अधिक विदेशों में हो रहे हैं। यहाँ अभियाननाद नहीं, आर्तनाद ही चल रहा है। भारतविद्या एवं भारत की उन्नति के इच्छुक गम्भीर युवाओं को इन सब प्रवृत्तियों से मुक्त हो कर्मसंलग्न होना होगा अन्यथा स्थिति वही ढाक के तीन पात न रह कर आगे भी क्षरित होती रहेगी।
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