आधुनिक व्यवहारिक मनोविज्ञान आधारित विश्लेषण का मूल है— वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न होना। पिछले लेखांशों में इस सिद्धान्त के अनेक उदाहरणों पर हमने विमर्श किया। भर्तृहरि के अनेकों नीति एवं वैराग्य के श्लोकों की चर्चा भी हमने की। शृंङ्गार के श्लोक नीति एवं वैराग्य के श्लोकों के विपरीत प्रतीत होते हैं। प्रेमासक्ति से होने वाली अनुभूति और इष्ट प्रेमी के रूप सौन्दर्य को अभिव्यक्त करने की आकुलता भर्तृहरि के शृंगार शतकों में दिखती है। सूक्ष्म उपमाओं तथा अलौकिक भावों के साथ मनोमुग्धकारी रूपों का ऐसा सौन्दर्य चित्रण करने के साथ-साथ नीतिपरक बातों की ऐसी शिक्षा किसी भी अन्य वाङ्मय में दुर्लभ है। शतकों के समग्र तथा उनके उत्तरोत्तर परिवर्तन के अवलोकन से उनमें एक अद्भुत मनोवैज्ञानिक सत्य परिलक्षित होता है।
जीवन में कभी चरम सौन्दर्य एवं अतिप्रिय लगने वाले उपादान भी क्या कभी कालान्तर में हमें व्यर्थ प्रतीत हो सकते हैं? क्या अनुभूतियाँ (perception) स्थिर न होकर देश, काल और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तनशील होती हैं? सत्य या वास्तविकता (reality) किस प्रकार अनुभूतियों और प्रवञ्चना (deceit) के परे होते है, इसका बोध भर्तृहरि को पढ़ते हुए स्पष्ट होता जाता है। परिस्थिति के अनुसार व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति विशेष के अप्रतिम रूप से सुन्दर होने की अनुभूति हो सकती है परन्तु क्या कालान्तर में उसी व्यक्ति विशेष से मोहभंग हो उसकी रुचि पूर्णतया समाप्त भी हो सकती है? अनुभूति (perception) की परिवर्तनशीलता पर भला भर्तृहरि के शतकों से सुन्दर सन्दर्भ क्या होंगे!
वर्जिनिया विश्वविद्यालय में प्रॉफिट अनुभूति प्रयोगशाला (Proffitt Perception Lab) के निदेशक प्रो. डेनिस प्रॉफिट संज्ञानात्मक मनोविज्ञान (cognitive psychology) और तंत्रिका विज्ञान (neuroscience) से जुड़े विषयों पर शोध करते रहे हैं। मानव अनुभूति (perception) वर्षों से उनके शोध का मुख्य विषय रही है। अपने सरल एवं रचनात्मक प्रयोगों में उन्होंने दिखाया कि किस प्रकार अनुभूति (perception) बहुधा वास्तविक प्रतीत होते हुए भी वास्तविक नहीं होती। हम संसार को उसके वस्तुनिष्ठ रूप में नहीं देखकर अपने अनुभवों और मन:स्थिति के अनुसार देखते हैं। प्रो. प्रॉफिट के अनुसार व्यक्तिगत अनुभूतियाँ स्थिर नहीं होती वरन परिवर्तनशील हैं जो व्यक्ति की मनःस्थिति पर निर्भर करती हैं।
मनोवैज्ञानिक प्रयोगों से उन्होंने यह स्थापित किया कि किस प्रकार हमारे थकान और स्वास्थ्य के अनुसार हमें किसी मार्ग की चढ़ान अधिक या अल्प प्रतीत होती है। एक अन्य अध्ययन में उन्होंने बेसबाल खिलाड़ियों पर शोध कर दिखाया कि विजयी हो रहे बेसबाल खिलाड़ियों को गेंद बड़ी प्रतीत होती है परन्तु लक्ष्य चूक रहे खिलाड़ी को वही गेंद छोटी प्रतीत होती है। विकासवादी मनोविज्ञान के अनुसार ऐसी परिवर्तनशील अनुभूतियाँ मानव मस्तिष्क की उपज हैं जो उत्तरजीविता में सहायक हैं। खिलाड़ियों की अनुभूति और दृश्यानुमान में त्रुटि से यह सिद्ध होता है कि हम संसार को किस प्रकार विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न रूपों में देखते हैं।
दीर्घकालिक ही नहीं, यह पिछले कुछ मिनटों के हमारे प्रदर्शन और कार्यानुभव पर भी निर्भर करता है अर्थात किसी भी परिप्रेक्ष्य में हमारी दृष्टि और हमारे विचार एक स्तर तक हमारे पिछले अनुभवों, सफलताओं और विफलताओं पर आधारित होते हैं। मस्तिष्क की संरचना ऐसी है कि वह बातों को इस प्रकार देखता है जिससे हर बात स्वयंहित में न्यायोचित लगे। गोल नहीं होने पर हमें गोलपोस्ट सँकरे दिखने लगते हैं, यदि गेंद ऊपर से चली जाए तो गोलपोस्ट नीचा प्रतीत होता है। यदि अंक अच्छे नहीं आये तो परीक्षा कठिन प्रतीत होती है, उत्तम अंक आये तो परीक्षा सरल। सम्बन्धों में विफल हुए तो लोग जटिल प्रतीत होने लगते हैं। सफल हुए तो दुनिया सरल— अर्थात आप जैसे जग वैसा।
सफलता, सफलता को जन्म देती है। विकासवादी मनोवैज्ञानिक इससे शिक्षा लेने की बात भी करते हैं अर्थात यदि हमें लक्ष्य ऊँचा प्रतीत हो रहा है तो मस्तिष्क हमें भविष्य में और परिश्रम करने की शिक्षा दे रहा होता है परन्तु यह इतना सरल नहीं क्योंकि शिक्षा न ले हम कठिन प्रतीत हो रहे लक्ष्य को सच में कठिन भी मान लेते हैं। एक बात तो स्पष्ट है कि हम संसार को वस्तुनिष्ठ स्थिर रूप में नहीं देखते। अपने परिवेश, वस्तुओं, लोगों और संसार के प्रति हमारा दृष्टिकोण भी अनित्य एवं परिवर्तनशील होता है— हमारे गुणों, अवगुणों, आत्मविश्वास, भय, इच्छा इत्यादि कारकों पर निर्भर। संसार को हम सभी वैसा देखते हैं जैसे हम स्वयं होते हैं। कैलिफोर्निया प्रौद्योगिकी संस्थान के प्रो. क्रिस्टोफ कोच इस विषय पर लिखते हैं :
Our conscious perception of the world, though relatively stable, is not static. We are incapable of being fully objective, even in our most mundane observations and impressions. Our awareness of the objects around us is informed and fine-tuned by any number of transient factors— our strength and energy levels, our sense of confidence, our fears and desires. Being human means seeing the world through your own, constantly shifting, lens.
इन शोधों का एक सार यह भी है कि सौन्दर्य मोह भी ठग (Deceiving) प्रवृत्ति की होती है क्योंकि अनुभूति (Perception) और वास्तविकता (Reality) सदा मेल नहीं खाते। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि न तो भर्तृहरि, न ही आधुनिक मनोविज्ञान ही सौन्दर्य की निंदा करते हैं परन्तु उसके वास्तविक स्वरुप का बोध होने की बात करते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान तो इस सिद्धान्त को यह कह कर सीमित कर देता है कि मानव मस्तिष्क की रचना ही ऐसी है परन्तु अन्य स्थितियों की भाँति यहाँ भी सनातन बोध मस्तिष्क की आन्तरिक यांत्रिकी से इन भ्रान्तियों के उपाय सुझाता है— मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने के।
निष्कर्ष :
संसार को उसके वस्तुनिष्ठ रूप में देखने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण— आत्मज्ञान। सनातन मनीषियों ने तो आत्मतत्व के ज्ञान की परिभाषा ही दी— किसी भी वस्तु से प्रभावित नहीं।
परन्तु यह इतना सरल कहाँ! — सुविज्ञेय: न। यह बात नचिकेता का संसार को समझने के लिए संसार से परे आत्म-तत्वज्ञान की जिज्ञासा सी है। सनातन बोध में स्वयं को जानने को ही आध्यात्म कहा गया है— स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। सूक्ष्म अवलोकन करें तो यह एक सरल सी बात का आदि एवं अंत प्रतीत होता है, आत्म तत्व की गूढ़ता— सरल परन्तु दुर्विज्ञेय, दुरूह।
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यमावद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥
कठोपनिषद में इस बात का अत्यंत सुन्दर वर्णन मिलता है। यथा :
न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्त्यणीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात्॥