सनातन बोध पिछले भाग से आगे
Presentism सम्प्रतित्व सिद्धांत
सम्प्रतित्व (Presentism) सिद्धांत का अर्थ है आधुनिक बातों के सन्दर्भ में पुरानी घटनाओं या व्यक्तियों का मूल्याङ्कन एवं आलोचना करना अर्थात देश-काल एवं ऐतिहासिक परिस्थितियों की अवहेलना करते हुए अपनी मान्यता के अनुरूप मूल्याङ्कन करना।
आजकल बहुधा हमें प्राचीन प्रथाओं, पुस्तकों, ऐतिहासिक घटनाओं पर टीका टिप्पणी पढ़ने को मिलती है जिसे लिखने वाले उसकी आलोचना आधुनिक सन्दर्भ में करते हैं। ऐसी कई प्रथायें थीं जिनके बारे में समाज में अवधारणा एवं विश्वास आज के सन्दर्भ के विपरीत हुआ करते थे। आज जिन बातों के लिए विधिक प्रावधान हैं एवं जो सर्वमान्य रूप से अनुचित एवं अन्यायपूर्ण हैं, कभी वे सामान्य हुआ करती थीं। ऐसे में उस काल के व्यक्ति को किसी आधुनिक बात के लिए दोषी ठहरा देना उपयुक्त नहीं है। दर्शन में इसका उदाहरण दिया जाता है कि यदि उन्नीसवीं सदी में किसी लेखक ने अपनी पुस्तक में ‘नीग्रो’ शब्द का उल्लेख किया तो क्या वह जातिवादी था?
दर्शन तथा ऐतिहासिक एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों में इसे एक पक्षपात के रूप में देखा जाता है। यह सांख्यिकी के काल शृंखला (time series) विश्लेषण में समय बिंदु स्वरूप (point in time) आँकड़ों की भाँति है। यदि आँकड़े समय बिंदु स्वरुप में नहीं हैं तो विश्लेषण में त्रुटि होती है। जैसे संस्थाओं के प्रतिभूति मूल्यों (share prices) का विश्लेषण एवं आकलन करते समय यदि हम केवल उन्हीं संस्थाओं के आँकड़े देखें जो अभी सक्रिय एवं सूचीबद्ध हैं तो हम उत्तरजीविता पक्षपात (survivalship bias) की अवहेलना करते हैं। किसी संस्थान के प्रतिभूति मूल्यों में वृद्धि या कमी होगी इसका आकलन करने के लिए भूतकाल के आँकड़ों का विश्लेषण करते समय हम उन संस्थाओं के बारे में भूल जाते हैं जो भूतकाल में तो सक्रिय थीं परन्तु समय के साथ दिवालिया हो गईं! यदि आँकड़े भिन्न भिन्न समय बिंदुओं पर यथास्वरूप संचित नहीं हों तो हमारे विश्लेषण में इस अवहेलना से त्रुटि होगी। ठीक इसी प्रकार ऐतिहासिक घटनाओं, विचारों एवं व्यक्तियों का मूल्याङ्कन करते समय हम उस समय के परिवेश एवं देश काल को ध्यान में नहीं रखते। साथ ही भूतकाल की बातों का विश्लेषण करते समय हम उन बातों की अनदेखी भी करते हैं जिनका उस काल में तो विशिष्ट महत्त्व था परन्तु वर्तमान में नहीं है।
सम्प्रतित्व को पढ़ते हुए सहज ही ध्यान आता है कि इसका बोध उस दर्शन में है जहाँ शास्त्रों के लिए भी बार बार देश-काल-एवं परिस्थिति को ध्यान में रखने की चर्चा की गयी है। साथ ही शास्त्र के साथ साथ लोकदृष्टि की महत्ता पर भी बल दिया गया है। कोरे ज्ञान की खिल्ली उड़ाई गयी एवं शास्त्रों को लोकज्ञान के समान्तर रख कर चलने की बात कही गयी – मैं कहता आँखन की देखी, तू कहता कागद की लेखी। सनातन परंपरा में समय समय पर भिन्न भिन्न संहितायें एवं श्रुतियाँ बनी, पुरानी व्यवस्थायें तोड़ कर नयी बनायी गयीं। जब शास्त्रों के प्रति भी अकुण्ठित भाव की बात की गयी तो अन्य बातों की तो बात ही क्या है! कालिदास के रघुवंश के इस श्लोक का सूक्ष्म अवलोकन करें –
सेनापरिच्छदस्तस्य द्वयमेवार्थसाधनं।
शास्त्रेष्वकुण्ठिता बुद्धिर्मौर्वी धनुषि चातता॥
यहाँ वह राजा दिलीप के ‘शास्त्रेष्वकुण्ठिता’, शास्त्रों में अकुण्ठित बुद्धि की बात करते हैं – अन्धभक्ति की नहीं! यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं न करणीयम्।
एक पहलू पर सोचते हुए अन्य पहलुओं की अनदेखी करने पर प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डेनियल गिल्बर्ट के शोधों का ध्यान आता है। वैसे सुख पर शोध पश्चिमी मनोविज्ञान में पिछले कुछ वर्षों में बहुचर्चित रहा है पर इसकी महत्ता भला कहाँ नहीं है? महर्षि भृगु भरद्वाज से शान्तिपर्व, महाभारत में कहते हैं- इह खल्वमुष्मिश्च लोके वस्तुप्रवृत्तयः सुखार्थमभिधीयन्ते।
जानने की शक्ति – सच को झूठ को सच से पृथक् करने वाली विभेदकारी विवेक बुद्धि की विस्तृत चर्चा हमने पिछले लेखांशों में की है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. डेनियल गिल्बर्ट की प्रसिद्ध पुस्तक ‘स्टमब्लिंग ऑन हैप्पीनेस’ उन्हीं सिद्धांतों का आधुनिक संस्करण प्रतीत होती है, मानो वह माया की व्याख्या कर रहे हों। सुख (happiness) के यथार्थ या भ्रान्ति होने पर वह कई शोधों का सन्दर्भ देते हुए कहते हैं कि किसी को भी यह पूर्ण रूप से नहीं ज्ञात कि सुख की अनुभूति अन्य लोगों को किस प्रकार से होती है। एक परिस्थिति में यदि हम अप्रसन्न हैं तो हम नहीं कह सकते कि कोई अन्य उतना ही अप्रसन्न होगा, कुछ कुछ वैसा ही जो शास्त्रों का कथन है कि मनुष्य यह न समझकर कि सच्चा सुख किसमें है, मिथ्या को ही सुख मान बैठता है। आगे उनका निष्कर्ष है कि मनुष्य जब तक किसी बात से अनभिज्ञ होता है अर्थात उसे नहीं ज्ञात होता कि उसके पास क्या नहीं है तब तक वह प्रसन्न रहता है। आवश्यकताओं की अनभिज्ञता को वह प्रसन्नता से जोड़ते हैं। इसी पर अनुभव विस्तार अवधारणा (Experience-Stretching Hypothesis) के नाम से दिए उनके सिद्धांत का मर्म यह है कि अनुभव के विस्तार के साथ हमारे सुख का स्तर कम होता जाता है यथा मरुस्थल में भटके व्यक्ति को पानी पीकर जो सुख प्राप्त होता है वही सुख उसे एक वर्ष पश्चात सामान्य जीवन में पानी पीकर नहीं होता। उसी प्रकार नयी वस्तु क्रय करने पर, नये व्यवसाय, नये सम्बन्ध इत्यादि सब अंततः उसी गति को प्राप्त होते हैं। अर्थात एक प्रकार से सुख की परिभाषा ही परिवर्तनशील है। मनोवैज्ञानिक उद्बोधन (arousal) पर भी उनका ऐसा ही निष्कर्ष है कि उद्बोधन को लेकर हमारा विवेचन बहुधा त्रुटिपूर्ण होता है क्योंकि हम भ्रांतियों के प्रभाव में उद्बोधन के कारणों का मिथ्यानुमान लगा लेते हैं एवं इस प्रकार हम अपने अनुभवों एवं उद्बोधन के कारणों को लेकर भी मिथ्या होते हैं! इसका व्यापकीकरण करते हुए वह कहते हैं कि जब सभी के अनुभव भिन्न-भिन्न होते हैं तो इसका अर्थ यह भी हुआ कि वास्तव में किसी को नहीं पता कि सुख है क्या! एवं इसलिए मनोविज्ञान नित्य अपूर्ण रहेगा क्योंकि मनोवैज्ञानिक अन्य व्यक्तियों के आत्मगत अनुभवों का अध्ययन करने का प्रयास करते हैं जो पूर्णतया संभव नहीं। परन्तु साथ में वह यह भी कहते हैं कि एक बाह्य पर्यवेक्षक के रूप में मनोविज्ञान सबसे उत्कृष्ट समझ प्रदान करता है। इन सिद्धांतों एवं सनातन बोध के सिद्धांतों में न केवल समानता है बल्कि ये बातें सनातन सिद्धांतों की व्याख्या भर लगती है। उनका यह निष्कर्ष कि यथार्थ का हमारा विवेचन वास्तव में यथार्थ का एक संस्करण भर है, भला अनेकान्तवाद एवं माया के सिद्धांतों से कहाँ भिन्न है? यथा महाभारत की यह उक्ति – यदिष्टं तत्सुखं प्राहुः द्वेश्य दुःखमिहेष्यते, जो कुछ हमें इष्ट है वही सुख है एवं जिसका हम द्वेष करते हैं अर्थात जो हमें नहीं चाहिये वही दुःख है।
प्रो गिल्बर्ट, जो नहीं है, उस पर हमारे ध्यान न देने की बात पर पर बल देते हुए लिखते हैं कि हम बहुधा केवल उन्हीं सीमित घटनाओं पर ध्यान केन्द्रित करते हैं जो होती हैं, पर जो नहीं होती उनकी अवहेलना करते हैं। जैसे अन्धेपन के बारे में सोचते हुए हम केवल दृष्टि के बारे में सोचते हैं! अन्धेपन के अन्य सभी पहलुओं के बारे में सोचते ही नहीं।
गीता रहस्य के पाँचवे प्रकरण में बाल गङ्गाधर टिळक ने सुख-दुःख की अद्भुत व्याख्या की है जिसके केवल कुछ अनुच्छेदों में इस सम्पूर्ण मनोविज्ञान के सिद्धांत दर्शित हो जाते हैं। उदाहरण के लिये इस एक अनुच्छेद में मनोविज्ञान के आधुनिक सिद्धान्तों से एकरूपता का अवलोकन करें –
द्रौपदी ने सत्यभामा को यह उपदेश दिया कि सुखं सुखेनेह न जातु लभ्यं दुःखेन साध्वी लभते सुखानि, अर्थात सुख से सुख कभी नहीं मिलता; सुख-प्राप्ति के लिये दुःख या कष्ट सहना पड़ता है; इससे कहना पड़ेगा कि यह उपदेश इस संसार के अनुभव के अनुसार सत्य है। यह बात सिद्ध है कि दुःख के बाद सुख पाने वाले मनुष्य के सुखास्वादन में बहुत भारी अंतर है। इसका कारण यह है कि हमेशा सुख का उपभोग करते रहने से सुख का अनुभव करने वाली इंद्रियाँ भी शिथिल हो जाती हैं। कहा भी है कि –
प्रायेण श्रीमतां लोके भोक्तुं शक्तिर्नविद्यते।
काष्ठान्यपि हि जीर्यन्ते दरिद्राणां च सर्वश:॥
अर्थात श्रीमानों में सुस्वादु अन्न का सेवन करने की भी शक्ति नहीं रहती, परंतु गरीब लोग लकड़ी को भी पचा जाते हैं। अतएव जबकि हम को इस संसार के ही व्यवहारों का विचार करना है, तब कहना पड़ता है कि इस प्रश्न को अधिक हल करते रहने में कोई लाभ नहीं कि बिना दुःख पाये सुख का नित्य अनुभव किया जा सकता है या नहीं? इस संसार में यही क्रम सदा से दिखाई पड़ रहा है – सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम, अर्थात सुख के पश्चात दुःख एवं दुःख के पश्चात सुख मिला ही करता है।
(क्रमश:)