भूमिका : पुराण चर्चा Harivansha हरिवंश
भारत में पुराण लेखन की बहुत प्राचीन परम्परा रही है जिसकी साखी अथर्वण संहिता1, शतपथ ब्राह्मण2, अर्थशास्त्र3 इत्यादि जैसे स्रोत हैं। पुराण शब्द का अर्थ ‘प्राचीन’ से ले कर ‘श्रुतियों अर्थात त्रयी के पूरक’ तक किया जाता रहा है। पुराणों का समग्र भारतीय जन जीवन पर बहुत प्रभाव रहा और है। पुराण प्राचीन काल से ले कर मध्यकाल तक रचे जाते रहे, भविष्य पुराण में तो आधुनिक काल में भी परिवर्द्धन के सङ्केत स्पष्ट हैं। जो जन पुराणों को एक लेखक कृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा एक निश्चित कालखण्ड में रचित मानते हैं, वे इस लेख को आपत्तिजनक पायेंगे, यह लेख उन्हें लक्षित नहीं है। मान्यता से इतर एक सत्य यह भी है कि श्रमण परम्परा के भी पुराण उपलब्ध हैं, भले वे अनुकरण में ही क्यों न लिखे गये हों। प्रश्न यह है कि हमारी लेखमाला के आधार कौन से पुराण होंगे?
हम त्रयी या साधारण भाषा में कहें तो वेदों के पूरक कहे जाने वाले पुराणों तक ही सीमित रहेंगे। वेदों की सत्ता मानने वाले पंथ आस्तिक कहलाते हैं, न मानने वाले नास्तिक। नास्तिक परम्परा के बौद्ध जातक या जैन पुराण इस लेख की परिधि से बाहर हैं। अध्ययन की सुविधा के लिये आस्तिक परम्परा के केवल उन पुराणों को ही सम्मिलित किया गया है जिनकी प्रसिद्धि अट्ठारह महापुराणों के रूप में है – अष्टादशभ्यस्तु पृथक्पुराणं यत्प्रदिश्यते (मत्स्य. 53.64)। यहाँ यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि पुराण संज्ञा से अभिहित ग्रंथों के लक्षण क्या बताये गये हैं? मत्स्य पुराण के अनुसार:
पञ्चाङ्गानि पुराणेषु आख्यानकमिति स्मृतम्। सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।
वंश्यानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥ 53.65॥
आख्यान शब्द को दो प्राचीन महाकाव्यों का सङ्केतक समझ सकते हैं जो इतिहास-पुराण शब्द युग्म की संक्रमी स्थिति से सम्बंधित है। सर्ग – ब्रह्मा द्वारा सृष्टि निर्माण, प्रतिसर्ग उनके मानसपुत्रों द्वारा सृष्टि का विस्तार या वैकल्पिक अर्थ में प्रलय, वंश – राजन्य वंशावली, मन्वन्तर – स्वायम्भु, वैवस्वत आदि मनु का वर्णन तथा वंश्यानुचरित – विभिन्न राजाओं का समय चरित्रादि का वर्णन। यद्यपि वर्तमान में उपलब्ध अनेक पुराणों की सामग्री इस कसौटी पर खरी नहीं उतरती तदपि इससे उनके कोश तथा इतिहास लक्षणयुक्त होने की स्थापना सिद्ध होती है। परवर्ती समय में जोड़े गये अंशों के अभिज्ञान में इन लक्षणों का उपयोग किया जा सकता है, लुप्त हुये अंशों के बारे में अनुमान भी लगाये जा सकते हैं। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि भगवान विष्णु के अवतारों का वर्णन पुराणों के बताये गये उपर्युक्त पाँच लक्षणों में नहीं है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण दस लक्षण गिनाता है जिनमें ये पाँच तो हैं ही, हरि एवं देवों के गुण कीर्तन सम्मिलित हैं। अर्थशास्त्र की जयमङ्गला टीका में उद्धृत एक श्लोक के अनुसार पञ्चलक्षणों में धर्म एवं मोक्ष प्रयोजन भी सम्मिलित हैं:
सृष्टि प्रवृत्तिसंहार धर्ममोक्षप्रयोजनम्। ब्रह्मभिर्विविधै प्रोक्त पुराण पञ्चलक्षणम्॥
पुराणों की साधारण विस्तार प्रवृत्ति के अनुकरण में ही 18 की संख्या भी बढ़ गयी है। महाभारत पौराणिक गाथाओं से भरा हुआ है जिन्हें हटाने पर लगभग 24000 श्लोकों का नाभिक ‘भारत’ भाग मिलता है। युद्ध तथा परवर्ती अंशों के काव्यात्मक अंश छील देने पर बीज ‘जय’ भाग मिलता है जिसकी 8800 छंद संख्या एक प्रसिद्ध क्षेपक श्लोक में कूट समूह के रूप में बतायी गयी है। महाभारत का ही खिल भाग हरिवंश है जो आख्यान बताये जाने वाले रामायण तथा महाभारत एवं पुराणों के बीच की कड़ी है। कतिपय विद्वान एवं जन सामान्य भी इसे हरिवंश पुराण की संज्ञा देते रहे हैं। इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ को मिलाने पर संख्या 19 हो जाती है।
पुराणों में ही उपलब्ध सूचियों तथा उन पर हुये विद्वत्विश्लेषणों से दो महत्त्वपूर्ण तथ्य स्पष्ट होते हैं। प्रथम, भागवत संज्ञा से देवी भागवत तथा श्रीमद्भागवत दोनों पुराणों को समझा जाना चाहिये। उल्लेखनीय है कि शिवपुराण में स्पष्टत: भागवत पुराण को देवी भागवत ही कहा गया है – भगवत्याश्च दुर्गायाश्चरितं यत्र विद्यते । तत्तु भागवतं प्रोक्तं ननु देवीपुराणकम्॥ वायु तथा शिव पुराण में भी साम्यता का सम्बंध है, एक सूची में शिव पुराण नहीं है। उसे तथा देवी भागवत को मिला लेने पर संख्या 21 हो जाती है।
[श्रीमद्भागवत पुराण की कथित संदिग्ध स्थिति तथा वैष्णव शाक्त साम्प्रदायिक वितण्डा में रचे गये खण्डन मण्डन ग्रंथों से हम इस लेख में दूर रहेंगे। एक रोचक स्थिति अग्नि पुराण की है जिसके विकल्प में एक दूसरा पुराण ‘वह्नि’ या ‘आग्नेय’ भी उपलब्ध है तथा उसका पाठ भिन्न है। कतिपय विश्लेषकों की मानें तो वह्नि पुराण कोई उपपुराण न हो कर वास्तविक अग्नि पुराण है जो कालांतर में प्रतिस्थापित हो गया। ऐसी स्थितियों पर स्वतंत्र लेख में विचार किया जायेगा।
पुराणों के अध्ययन का एक पारम्परिक कालक्रम भी बताया जाता है तथा आधुनिक विद्वानों ने शैली, सामग्री, वैविध्य, अंतर्साक्ष्य, बहिर्साक्ष्य इत्यादि के आधार पर पर उनके कालक्रम निश्चित करने के प्रयास किये हैं। उनमें अभी न उलझते हुये इस लेख के उपसंहार में तब जब कि सबकुछ सामने होगा, हम विचार करेंगे।]
पुराण सूची
अत:, हमारी ‘पुराण सूची’ यह है:
0. हरिवंश
1. मार्कण्डेय; 2. मत्स्य; 3.1 देवी भागवत, 3.2 श्रीमद्भागवत; 4. भविष्य; 5. ब्रह्म; 6. ब्रह्माण्ड; 7. ब्रह्मवैवर्त; 8.1 वायु, 8.2 शिव;
9. वामन; 10. वराह; 11. विष्णु; 12. अग्नि; 13. नारद; 14. पद्म; 15. लिङ्ग; 16. गरुड़; 17. कूर्म; 18. स्कंद
(क्रम देवी भागवत के श्लोक के अनुकरण में है, कोई अन्य विशेष कारण नहीं है – मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम्। अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि प्रचक्षते॥)
पुराणों में ही बताये गये विभिन्न पुराणों की श्लोक संख्या आधुनिक समय में उपलब्ध अधिकांश की श्लोक संख्याओं से या तो मेल नहीं खाती या उसे जैसे तैसे पूरा करने के उद्योगचिह्न भी दिखते हैं।
यहाँ एक बात समझनी महत्त्वपूर्ण है। पुराण उपदेशात्मक हैं, जनरोचक कथाओं को सम्मिलित किये हुये हैं। जैसा कि वैदिक संहिताओं के साथ हुआ कि प्रत्येक अक्षर, शब्द, छंद, संख्या, शाखा इत्यादि को यथावत सहेज रखने का सहस्राब्दियों में पसरा अद्भुत उद्योग सफल रहा, पुराणों के साथ ऐसी कोई बात नहीं रही। समय की माँग के अनुसार वे परिवर्तित तथा परिवर्द्धित किये जाते रहे। निरुक्तकार यास्क कहते हैं – ‘पुराणं कस्मात्। पुरा नवं भवति।‘। बहुत पहले से ही उद्देश्य किसी प्राचीन नाभिक को संरक्षित रखने के स्थान पर समयानुकूल परिवर्द्धन का रहा ताकि जन शिक्षण, प्रचार, एकता इत्यादि बने रहें, इतिहास भी संरक्षित होता रहे। पुराण शब्द से जुड़ी प्राचीनता का ऐसी अर्वाचीनता से समन्वय एक विलक्षण युक्ति से किया गया। परवर्ती भाग ‘भविष्यत काल’ में लिखे गये, ऐसे बताया गया मानो लेखक एक सुदूर भूतकाल में बैठा भविष्यवाणी कर रहा है जबकि वास्तविकता यह थी कि परिवर्द्धन करने वाले लेखक के लिये वह अर्वाचीन भी भूतकाल बन चुका था, वह तब तक न सहेजे गये इतिहास को सँजो रहा था। सुदूर दक्षिण पूर्व एशिया से प्राप्त एक पुराण पाण्डुलिपि का मुख्य भारतभूमि पर प्रचलित पाठ के वंशावली श्लोकों से स्पष्ट भेद है – एक में जो बातें भविष्य काल में वर्णित हैं, वे ही दूसरी परम्परा में भूत काल में। एक पुराण का नाम ही ‘भविष्य’ पुराण है।
परिवर्द्धन के साथ साथ अवांछित भी घटित हुआ। कुछ प्राचीन पुराणों के नाभिक या बीज भाग ही लुप्त हो गये, उनके स्थान पर केवल कथायें तथा माहात्म्य ही रह गये। बतायी गयी श्लोक संख्या से वर्तमान में उपलब्ध श्लोक संख्या का मिलान न हो पाने का एक कारण यह भी है। प्राय: 81000 श्लोकों के साथ स्कंदपुराण आज के समय में उपलब्ध सबसे बड़ा पुराण है। हरिवंश को हटा कर महाभारत के मानक पाठ की श्लोक संख्या भी इससे कम है। इस पुराण की 810 ई. की लिखी हुई एक पाण्डुलिपि सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि है जिससे प्रचलित स्कंद पुराण बहुत अंतर रखता है। इस पुराण की बारहवीं शताब्दी तक की प्राप्त पाण्डुलिपियों से यह पता चलता है कि इसमें जोड़ तोड़ खूब हुई। इसके बहुत भेद हैं। पुराणों में ही उद्धृत भिन्न भिन्न पुराणों की श्लोक संख्याओं में भी भेद हैं जोकि पुराण परम्परा के स्थैतिक न रह कर अद्यतन होते रहने की प्रवृत्ति का भी प्रमाण है। इन सब कारणों से विद्वानों का एक वर्ग यह तक कह देता है कि वैदिक साहित्य में जिस साहित्य को पुराण कहा गया, वह या तो अब अनुपलब्ध है या उपलब्ध लाखों की श्लोक संख्या में से उसे ढूँढ़ पाना असम्भव है।
इन सभी तथ्यों का सम्बंध विष्णु की अवतार परम्परा तथा बुद्ध के अभिज्ञान से है। आगे के अंश पढ़ते हुये इन्हें ध्यान में रखना होगा।
विष्णु दशावतार तथा बुद्ध के उल्लेख को निम्न सारणी में दर्शाया गया है:
[यद्यपि पुराणों के बृहदाकार होने के कारण (कथित कुल श्लोक संख्या ~ 4 लाख) सम्भावना है कि कुछ रह गया हो।]
पुराण नाम | दशावतार उल्लेख (हाँ/नहीं) |
बुद्ध-उल्लेख (हाँ/नहीं) | |
मार्कण्डेय | नहीं | नहीं | |
वामन | नहीं | नहीं | |
कूर्म | नहीं | नहीं | बौद्धों का परोक्ष रूप में तिरस्कार के साथ उल्लेख |
हरिवंश | हाँ, प्रादुर्भाव | नहीं | |
वायु | हाँ | नहीं | |
ब्रह्माण्ड | हाँ | नहीं | |
ब्रह्म | हाँ, प्रादुर्भाव | विस्तृत अवतार चर्चा के समय, नहीं (213); स्तुति के समय, हाँ (122) | |
वराह | हाँ | हाँ | |
नारद | हाँ | हाँ | |
पद्म | हाँ | हाँ | |
लिङ्ग | हाँ | हाँ | |
गरुड़ | हाँ | हाँ | |
स्कंद | हाँ | हाँ | |
ब्रह्मवैवर्त | हाँ | हाँ | |
मत्स्य | हाँ | हाँ | |
देवीभागवत | हाँ | हाँ | |
भागवत | हाँ | हाँ | |
भविष्य | हाँ | हाँ | |
शिव | हाँ | हाँ | |
विष्णु | हाँ | हाँ | अस्पष्ट |
अग्नि | हाँ, प्रादुर्भाव | हाँ |
इस सारणी से स्पष्ट है कि तीन में न तो विष्णु दशावतार है, न ही बुद्ध। कुल छ: में बुद्ध का उल्लेख नहीं है एवं कम से कम एक, ब्रह्म पुराण में बुद्ध का उल्लेख वहाँ नहीं है जहाँ दशावतार के सभी तत्व एक साथ उल्लिखित हैं, बुद्ध को केवल स्तुति में अन्यों के साथ अन्यत्र स्थान दिया गया है। ब्रह्म पुराण पर चर्चा करते समय हम इस बिंदु पर विचार करेंगे। बुद्ध एवं बौद्ध परम्परा के पौराणिक स्वरूप तथा शाक्य सिंह गौतम नाम से प्रसिद्ध बुद्ध भगवान के उससे सम्बंधित होने या न होने की गुत्थी को सुलझाने में ‘हाँ’ के स्थान पर ‘नहीं’ अधिक उपयोगी होंगे।
हरिवंश
18 पुराणों की पारम्परिक सूची में न होने के कारण जिस हरिवंश को हमने ‘0’ क्रमाङ्क दिया है, उससे आरम्भ करते हैं। लोकप्रचलित पाठ हरिवंश नाम के पर्व के 41वें अध्याय में है जोकि इस प्रकार है:
इस वर्णन में अवतारों को ‘प्रादुर्भाव’ संज्ञा दी गई है। यह सूची उस समय को रेखाङ्कित करती है जब यह अवधारणा अंतिम रूप ले रही थी। स्पष्टत: यह आख्यानक एवं पुराणी अवतार परम्परा के बीच की कड़ी है जिसमें पौष्कर एवं दत्तात्रेय दो ऐसे नाम हैं हो परवर्ती दशावतारों की सूची में नहीं मिलते। 22 अवतारों की श्रीमद्भागवत की सूची में अवश्य हैं।
जब देश भर से पुरानी पाण्डुलिपियों को जुटा कर हरिवंश के शोधित पाठ को रूपाकार दिया जाने लगा तो पाया गया कि गैरिक घेरे में दर्शाये गये श्लोक प्रक्षिप्त थे जो कि कालांतर में जोड़ दिये गये थे। उन्हें शोधित पाठ से हटाना पड़ा।
अचानक ही नवमे एवं दशमे शब्दों का प्रयुक्त होना तथा कृष्ण (केशव माथुर) के ‘पश्चात’ वेदव्यास का नवें स्थान पर आना – ये दो क्षेपक होने के आंतरिक प्रमाण भी हैं। टीकाकारों ने वेदव्यास के पश्चात कल्कि अवतार के होने को व्याख्यायित करने के लिये प्रयास किये हैं किंतु सच तो दिख ही रहा है। यह भी हो सकता है कि हरिवंश के पुराने पाठ में ‘प्रादुर्भावों’ की संख्या को ले कर कोई आग्रह नहीं था। दश की संख्या आगे रूढ़ होनी थी। बुद्ध का इस सूची में न होना महत्त्वपूर्ण है। कल्कि के लिये भविष्यवाणी जैसी बात की गयी है, बुद्ध के लिये भी की जा सकती थी। क्या इस बात की सम्भावना है कि दशावतार की अवधारणा हरिवंशकार को स्पष्ट थी, बुद्ध का नाम था जिसे कालांतर में निकाल कर वहाँ वेदव्यास का नाम सम्मिलित कर दिया गया? यदि नहीं तो वेदव्यास का नवें स्थान पर होना एक गुत्थी ही रह जाता है कि अपेक्षतया नयी प्रतियों में उन्हें क्यों प्रविष्ट कराया गया?
यदि हाँ तो क्यों किया गया? क्या बुद्ध को ले कर कोई असहजता की स्थिति थी? हम प्रश्न सहेजते चलेंगे, अगली कड़ियों में पुराण सूची में सम्मिलित ग्रंथों पर विचार आरम्भ होगा।
(क्रमश:)
संदर्भ :
1. ऋच: सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह । उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रित: ॥ (पैै. 16.84.6, शौ. 11.7.24)
2. 11.5.6.8 मध्वाहु॑तयो ह वा॑एता॑देवा॑नाम् य॑दनुशा॑सनानि विद्या॑वाकोवाक्य॑मितिहासपुराणं गा॑था नाराशंस्य॑: स य॑एव॑ं विद्वा॑ननुशा॑सनानि विद्या॑वाकोवाक्य॑मितिहासपुराणं गा॑था नाराशंसीरित्य॑हरहः स्वाध्याय॑मधीते मध्वाहुति॑भिरेव त॑द्देवा॑ंस्तर्पयति त॑एनं तृप्ता॑स्तर्पयन्ति योगक्षेमे॑ण प्राणे॑न रे॑। 11.5.7.9 क्षीरौदनमांसौदना॑भ्यां ह वा॑एष॑देवा॑ंस्तर्पयति य॑एव॑ं विद्वा॑न्वाकोवाक्य॑मितिहासपुराणमित्य॑हरहः स्वाध्याय॑मधीते त॑एनं तृप्ता॑। 13.4.3.3 म॑नुर्वैवस्वतो राजे॑त्याह त॑स्य मनुष्या॒वि॑शस्त॑इम॑आसत इत्य॑श्रोत्रिया गृहमेधि॑न उपसमे॑ता भवन्ति तानु॑पदि =।अत्यृचो वे॑दः सो॒ऽयमि॑त्यृचा॑ं सूक्त॑ं व्या॑चक्षाण इवा॑नुद्रवेद्वीणागणगि॑न उपसमे॑ता भवन्ति ता॑नध्वर्यु॑: सम्प्रे॑ष्यति वी॑णागणगिन इ॑त्याह पुराणइ॑रिमं य॑जमानं रा॑जभिः साधुकॄद्भिः स॑ंगायते॑ति तं ते त॑था स॑ंगायन्ति तद्य॑देनमेव॑ं संगा॑यन्ति पुराणइ॑रेवइ॒नं तद्रा॑जभिः साधुकॄद्भिः स॑लोकं कुर्वन्ति 13.4.3.13 अ॑थ नवमे॑ऽहन् एव॑मेवइ॒तास्वि॑ष्टिषु स॑ंस्थितास्वेषइ॒वा॒वृद॑ध्वर्यवि॑ति हवइ॑होतरि॑त्येवा॒ध्वर्युस्ता॑र्क्ष्यो वैपश्यतो राजे॑त्याह त॑स्य व॑यांसि वि॑शस्ता॑नीमा॑न्यासत इ॑ति व॑यांसि च वायोविद्यिका॑श्चोपसमे॑ता भवन्ति तानु॑पदिशति पुराणं वे॑दः सो॒ऽयमि॑ति चित्पुराणमा॑चक्षीतैव॑मेवा॒ध्वर्यु॑ः सम्प्रे॑ष्यति न॑प्रक्रमा॑न्जुहोति 13.8.4.10 त॑स्य पुराणो॒ऽनड्वान्द॑क्षिणा पुराणा य॑वाः पुराण्या॑सन्दी सो॑पबर्हणैषा न्वा॑दिष्टा द॑क्षिणा का॑मं यथाश्रद्धम्भू॑यसीर्दद्यादि॑ति न्व॑ग्निचितः 14.5.4.10 स य॑थार्द्रैधाग्ने॑रभ्या॑हितस्य पॄथग्धूमा॑विनिश्च॑रन्त्येवं वा॑अरेऽस्य॑महतो॑भूत॑स्य नि॑श्वसितमेतद्य॑दृग्वेदो यजुर्वेद॑ः सामवेदो॒ऽथर्वाङ्गिर॑स इतिहासः पुराण॑ं विद्या॑उपनिष॑दः श्लो॑काः सू॑त्राण्यनुव्याख्या॑नानि ख्या॑नान्यस्यैवइ॒ता॑नि स॑र्वाणि नि॑श्वसितानि 14.8.1.1 पूर्ण॑मद॑ः पूर्ण॑मिद॑म्पूर्णा॑त्पूर्णमु॑दच्यते पूर्ण॑स्य पूर्ण॑मादा॑य पूर्ण॑मेवा॑वशिष्यत ओम्खम्ब्र॑ह्म ख॑म्पुराणं वायु॑रं खमि॑ति ह स्माह कउ॑रव्यायणीपु॑त्रो वे॑दोऽय॑म्ब्राह्मणा॑विदुर्वे॑दैनेन य॑द्वेदित॑व्यम्
3. पुराणमितिवृत्तमाख्यायिकोदाहरणं धर्मशास्त्रमर्थशास्त्रं चेतीतिहासः ॥ (1.5.14)
पुराणों का क्रम स्कन्द पुराण के अनुसार ज्यादा ग्राह्य लगता है । इसके अतिरिक्त आपने बुद्ध को स्कन्द पुराण में, पद्म पुराण में और लिंग पुराण में उपलब्ध बताया है किंतु मुझे अभी तक केवल भागवत और भविष्य में ही ध्यान है । हो सकता है, मुझे सही से याद न हो किन्तु यदि संदर्भ देंगे तो प्रामाणिकता बानी रहेगी ।
‘हाँ’ भली भाँति देख कर ही लिखा गया है। प्रामाणिकता पर बात करने से पूर्व स्वयं देख सकते हैं, अन्तर्जाल पर सब उपलब्ध है।
श्लोक सन्दर्भ उक्त पुराणों पर केन्द्रित चर्चा के समय दिये जायेंगे। तब तक आप स्वयं भी ढूँढ़ कर पा सकते हैं।
बहुत सुंदर लेख, आगामी लेखों की प्रतीक्षा रहेगी.