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सुभाषित
वर्तमान भारत में ‘सरकार’ की कल्याणकारक ‘हनक’ का अभाव है। हमारी ढेर सारी समस्यायें मात्र अनुशासनहीनता एवं उचित-त्वरित दण्ड के अभाव के कारण हैं। महाभारत के शान्ति पर्व से चुने हुये इन श्लोकों में भीष्म राजा एवं प्रशासन पर समग्रता में प्रकाश डालते हुये दण्डनीति के महत्व को रेखाङ्कित करते हैं। स्पष्ट कर देते हैं कि काल भी राजा का सेवक है एवं कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि युग राजा के कारण होते हैं । दण्डनीति के सम्यक एवं पूर्ण प्रयोग से वह जब चाहे तब कृत(सत) युग ला सकता है।
आत्मा जेयः सदा राज्ञा ततो जेयाश्च शत्रवः
अजितात्मा नरपतिर्विजयेत कथं रिपून्
एतावानात्मविजयः पञ्चवर्गविनिग्रहः
जितेन्द्रियो नरपतिर्बाधितुं शक्नुयादरीन्राजा सदा अपने मन पर विजय प्राप्त करे, तत्पश्चात शत्रुओं पर विजय की चेष्टा करे। जिस राजा ने अपने मन को नहीं जीता, वह शत्रुओं पर विजय कैसे प्राप्त कर सकता है?
पाँचो इंद्रियों को वश में रखना ही मन पर विजय पाना है। जितेन्द्रिय राजा ही अपने शत्रुओं का दमन कर सकता है।न च वश्यो भवेदस्य नृपो यद्यपि वीर्यवान्
हीनश्च बलवीर्याभ्यां कर्शयंस्तं परावसेत्सैन्य एवं पराक्रम से हीन होते हुये भी पराक्रमी के वश में न रहे। गुप्त रूप से प्रबल शत्रु को क्षीण करने के प्रयास करता रहे।
वर्जनीयं सदा युद्धं राज्यकामेन धीमता
राज्य के कल्याण की कामना रखने वाला राजा सदा युद्ध को टालने का प्रयास करे।
दशधर्मगतेभ्यो यद्वसु बह्वल्पमेव च
तन्नाददीत सहसा पौराणां रक्षणाय वैदस प्रकार के दण्डनीय मनुष्यों – मत्त, उन्मत्त, दस्यु, तस्कर, प्रतारक, शठ, लम्पट, जुआरी, कृत्रिम लेखक (जालिया) एवं उत्कोच (घूस) लेने वाले – से थोड़ा या बहुत जो धन दण्ड रूप में प्राप्त हो; उसे पुरवासियों की रक्षा के लिये सहसा ग्रहण कर ले।
श्रोतुं चैव न्यसेद्राजा प्राज्ञान्सर्वार्थदर्शिन:
लोगों की बातों को सुनने के लिये राजा अपने पास सर्वार्थदर्शी विद्वानों को रखे।
सम्यग्दण्डधरो नित्यं राजा धर्ममवाप्नुयात्
नृपस्य सततं दण्डः सम्यग्धर्मे प्रशस्यते
वेदवेदाङ्गवित्प्राज्ञः सुतपस्वी नृपो भवेत्सम्यक दण्ड धारण करने वाला राजा सदा धर्म का भागी होता है। निरन्तर दण्ड धारण किये रहना राजा के लिये सम्यक धर्म मान कर उसकी प्रशंसा की जाती है। राजा को वेद वेदाङ्ग का ज्ञाता, विद्वान एवं सुतपस्वी होना चाहिये अर्थात उसका तप अच्छे कार्यों के लिये हो।
राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चापि निबोध मे
आत्मामात्यश्च कोशश्च दण्डो मित्राणि चैव हि
तथा जनपदश्चैव पुरं च कुरुनन्दन
एतत्सप्तात्मकं राज्यं परिपाल्यं प्रयत्नतः
षाड्गुण्यं च त्रिवर्गं च त्रिवर्गमपरं तथा
यो वेत्ति पुरुषव्याघ्र स भुनक्ति महीमिमाम्राजा इन सात की अवश्य रक्षा करे – अपनी देह, अमात्य, कोश, सैन्य बल, मित्र, राष्ट्र एवं नगर।
छ: गुण, तीन वर्ग एवं तीन परम वर्ग – इन सबको अच्छी तरह से जानने वाला राजा ही मही का उपभोग कर सकता है।षाड्गुण्यमिति यत्प्रोक्तं तन्निबोध युधिष्ठिर
संधायासनमित्येव यात्रासंधानमेव च
विगृह्यासनमित्येव यात्रां संपरिगृह्य च
द्वैधीभावस्तथान्येषां संश्रयोऽथ परस्य चछ: गुण – शत्रु से सन्धि कर बैठ जाना, शत्रु के ऊपर चढ़ाई, वैर ठाने रहना, उसे भयभीत करने के लिये आक्रमण का प्रदर्शन मात्र, शत्रुओं में भेद डालना तथा किसी दुर्ग या दुर्जेय राजा का आश्रय लेना।
त्रिवर्गश्चापि यः प्रोक्तस्तमिहैकमनाः शृणु
क्षयः स्थानं च वृद्धिश्च त्रिवर्गमपरं तथा
धर्मश्चार्थश्च कामश्च सेवितव्योऽथ कालतः
धर्मेण हि महीपालश्चिरं पालयते महीम्क्षय, स्थान एवं वृद्धि – ये त्रिवर्ग हैं। धर्म, अर्थ एवं काम – ये तीन परम त्रिवर्ग हैं। इन सबका समयानुसार सेवन करना चाहिये। महिपाल धर्म के अनुसार चले तो वह मही का दीर्घकाल तक पालन कर सकता है।
दण्डनीतिः स्वधर्मेभ्यश्चातुर्वर्ण्यं नियच्छति
प्रयुक्ता स्वामिना सम्यगधर्मेभ्यश्च यच्छति
चातुर्वर्ण्ये स्वधर्मस्थे मर्यादानामसंकरे
दण्डनीतिकृते क्षेमे प्रजानामकुतोभयेयदि राजा दण्डनीति का उत्तम रीति से प्रयोग करे तो वह चारो वर्णों को अपने अपने धर्म में बलपूर्वक लगाती है एवं उन्हें अधर्म की दिशा में जाने से रोकती है।
दण्डनीति के प्रभाव से जब चारो वर्णों के लोग निज निज कर्मों में संलग्न होते हैं तो मर्यादा में संकरता नहीं आने पाती, प्रजा निर्भय हो कुशलता के साथ रहती है।कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम्
इति ते संशयो मा भूद्राजा कालस्य कारणम्
दण्डनीत्या यदा राजा सम्यक्कार्त्स्न्येन वर्तते
तदा कृतयुगं नाम कालः श्रेष्ठः प्रवर्ततेकाल राजा का कारण है अथवा राजा काल का? ऐसा संशय तुम्हें नहीं होना चाहिये। यह निश्चित है कि राजा ही काल का कारण होता है। जिस समय राजा दण्डनीति का सम्यक एवं पूर्ण प्रयोग करता है, उस समय (राजा से प्रभावित) काल कृतयुग की सृष्टि करता है।
अङ्गकोर वाट में शर शय्या पर भीष्म का अङ्कन
सुंदर!?