आगामी एक नवम्बर को केरल को स्वतंत्र राज्य हुये 62 वर्ष हो जायेगें। 1961 की जनगणना में केरल में भारतीय मूल के धर्मावलम्बियों की संख्या लगभग 61 प्रतिशत थी जो कि 2011 की जनगणना में घट कर 55 से भी अल्प रह गयी । भारतीय मूल के धर्मावलम्बियों की संख्या का अब्राहमी मूल के मजहब मानने वाली जमात की तुलना में निरंतर पतन मतान्तरण के भयानक अभियान के कारण होता चला आया है, यह कोई छिपा हुआ सत्य नहीं है,न ही यह कि इस अभियान में ढेर सारा विदेशी धन एवं संसाधन निविष्ट है।
मिशनरियों का अभियान छल, प्रपञ्च, अंधविश्वास प्रसार, धन, नाटकीय चंगाई आयोजनों आदि आदि सब का प्रयोग करता रहा है । वहीं इतर मजहब भयदोहन एवं सन्तति उत्पादन द्वारा अपनी संख्या एवं ‘इलाका’ बढ़ाने में लगा हुआ है । मिशनरियों की एक बहुत ही सफल छल भरी युक्ति होती है – स्थापित आस्था के केंद्रों एवं उनमें आस्था का नाश तथा समान्तर ही जोशुआ इसामसीह की श्रेष्ठता का प्रतिपादन । निर्धन एवं भोली भाली हिन्दू जनता को मतांतरित करने में यह युक्ति केरल में भी बहुत सफल रही।
मतांतरण के इस अभियान में उनके पथ की सबसे बड़ी बाधा हैं – सबरीमला एवं वहाँ विराजमान शास्ता अय्यप्पा । मलयाली हिन्दुओं में उनका बहुत आदर है तथा मात्र उनके प्रभाव के कारण ही बहुत से हिंदू मतांतरित होने से बचे हुये हैं।
सबरीमला में निषिद्ध आयु वर्ग की महिलाओं के प्रवेश को ‘समानता का अधिकार’ बता कर एवं अन्य जुमलेबाजियों द्वारा वामपंथ एवं अब्राहमी मजहबों के गठजोड़ ने जो किया है तथा जो करने के प्रयास कर रहे हैं, उनका एकमात्र उद्देश्य है – अय्यप्पा के प्रति हिन्दू आस्था को तोड़ना जिससे कि मतान्तरण के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा दूर हो।
कथित प्रगतिवाद एवं अतिवाद के व्यामोह में पड़ी हिन्दू महिलाओं को केरल की महिलाओं से प्रेरणा एवं सीख लेनी चाहिये कि किस प्रकार वे छिपे आक्रमण के समक्ष कवच बन कर खड़ी हो गई हैं । केरल में अभूतपूर्व प्रतिरोध चल रहा है जो बीते पाँच दिनों में मंदिर की गरिमा एवं अनुशासन को बचाये रखने में सफल रहा, आगे क्या होगा, भविष्य में है किन्तु इस प्रकरण ने सभ्यताओं के संघर्ष को बहुत अधिक स्पष्ट किया है तथा लोग जागृत हुये हैं।
सबरीमला की गरिमा के पक्ष में खड़े जन के तर्क इस वीडियो में देखे जा सकते हैं । प्रतिरोध जयी बना रहे, यही कामना है।
(The graphics used here is in public domain)
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(वीडियो के अंग्रेजी संवाद का हिन्दी अनुवाद)
मुझे सबरीमाला पर उठे इस प्रश्न का उत्तर अवश्य देना है क्योंकि यह आपके द्वारा दिया गया सर्वाधिक निकृष्टतम उदाहरण है। क्षमा कीजियेगा पर मैं इस समय अपनी भाषा और अपनी भावनाओं पर विवेक की वल्गा आरोपित नहीं करूँगा। कृपया समझें, सबरीमाला संस्कृति का प्रश्न नहीं है। यह लिंगभेद का प्रश्न नहीं है। यह फैशन (प्रचलन) का प्रश्न नहीं है। यह नारी से घृणा का प्रश्न भी नहीं है। यह कुछ परंपराओं का प्रश्न है जो सार्वजनिक क्षेत्र में एक बहुत ही अलग विमा में अत्यन्त ही विकृत और घृणित रूप से प्रस्तुत की जा रही हैं।
प्रत्येक व्यक्ति जो इस विशेष विषय के उपर बात करता है, मैं उससे सिर्फ एक प्रश्न पूछना चाहता हूं। इनसे उनसे या उनसे इनसे, इस क्रम में उस क्रम में… कृपया मुझे बताएं कि इस प्रथा की उत्पत्ति और प्रथा के अस्तित्व के कारण तथा इस प्रथा के होने के शास्त्र सम्मत आधार के बारे में आप क्या जानते हैं कि आप इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि यह प्रथा लैङ्गिक असमानता का परिणाम है। आपने निष्कर्ष पहले निकाला है, बिना तथ्योँ को जाँचे-परखे। मेरी प्रार्थना है कि आप अपने चिन्तन को थोड़ा पीछे ले जाते हुए मुझे बताएं कि आप इस प्रथा के बारे में क्या जानते हैं जिसके कारण आप उस अनुमानित निष्कर्ष पर पहुंच सकें कि यह नारी घृणा पर आधारित है।
हां। मैं … मैं ऐसा करूँगा क्योंकि मुझे एनडीटीवी पर इस विषय पर बात करने का अवसर प्राप्त हुआ है,और मुझे लगता है कि इस मंच पर भी इस विषय पर बात की जानी चाहिए और मैं इस प्रश्न का उत्तर दूंगा। समाज में दो प्रकार की प्रथाएं हैं, विशेषतः केरल में, जहां कुछ स्थान हैं जो केवल स्त्री के लिए विशिष्टतः सुरक्षित हैं जहाँ केवल स्त्रियों को जाने की अनुमति है और कुछ स्थान पुरुषों के लिए, जहाँ केवल पुरुष जा सकते हैं और कुछ स्थानों पर दोनों के जाने की अनुमति है। आप विविधता को संरक्षित करना चाहते हैं तो कृपया इन विविध परंपराओं को भी सुरक्षित रखें। ऐसे भी मंदिर हैं जहां पुरुष प्रवेश नहीं करते हैं। और विशेष रूप से, कुछ दिन ऐसे भी हैं जब सड़कों को पुरुषों से खाली कर दिया जाता है। पुरुष सड़कों में प्रवेश भी नहीं कर सकते हैं, क्योंकि यह स्त्रियों के प्रार्थना के लिए है। उनकी इच्छा वे जैसे चाहें वैसे प्रार्थना करें। ऐसे भी देवता हैं जो विशेष रूप से केवल महिलाओं के लिए हैं। यह हुई एक बात। दो, हमें यह समझना होगा कि यदि आप यह विमर्श करना चाहते हैं, तो यह विमर्श तब तक आरम्भ नहीं हो सकता जब तक कि हम इस प्रथा के परम्परागत आधार पर दृष्टिपात नहीं करें।
परंपरा क्या है? प्रत्येक मंदिर की एक परम्परा होती है जोकि उस मंदिर से सम्बन्धित पौराणिक कथाओं तथा उस मंदिर के इतिहास से प्रेरित परंपरा होती है। सबरीमाला मंदिर के दृष्टांत में, परम्परा यह है कि भगवान अयप्पा, जो सबरीमाला मंदिर के देवता हैं, ने नैष्ठिक ब्रह्मचारी होने का व्रत लिया है, कम से कम यह विश्वास है उनके भक्तों का। “नैष्ठिक ब्रह्मचर्य” की शपथ का अर्थ शाश्वत ब्रह्मचर्य है। नैष्टिक ब्रह्मचर्य एक परंपरा भी है, जिसे कई साधु पालन करते हैं। जिसका अर्थ किसी भी स्त्री के संसर्ग में कदापि नहीं आना है। और यह स्त्री-द्वेष पर आधारित कदापि नहीं है। महिलाओं और पुरुषों के संसर्ग में आने के संबंध में पारस्परिक नियम हो सकते हैं। यह ऐसी बात नहीं है जो महिलाओं पर पूरी तरह निर्देशित है, केवल असमानता दिखाने के लिए। यह एक सबसे निकृष्ट संभव मिथक है जो ये, कुछ अतिवाचाल व्यक्ति, इसे सार्वजनिक क्षेत्र में फैला पाए हैं।
इस वैचारिक धारणा के पीछे यह तर्क देते हैं कि आप उन महिलाओं के संपर्क में न आएं जिनके पास अभी भी प्रजनन क्षमताएं हैं। अब, उन्होंने इस पूरे तर्क की धारा को मोड़ दिया है – उन्होंने यह कहते हुए पूरे तर्क को मोड़ दिया है कि यह ऋतुस्राव से जुड़ी हमारी घृणा या ऋतुस्राव को एक कलंक मानने पर आधारित है। यह विमर्श, तर्क के इस निम्नतम स्तर पर चला गया है!!! इस देश में ही एक मंदिर हैं जहाँ ऋतुस्राव जैसी शारीरिक प्रक्रिया की पूजा होती हैं – कामख्या मंदिर! कौन … कौन यह नहीं जानता है? इसलिए, एक विशेष उदाहरण का उपयोग करके और वह भी, विशेष मंदिर के इतिहास के संक्षिप्त ज्ञान के साथ, पूरे संस्थान पर प्रतिबंध लगाने और पूरे समुदाय को प्रतिबंधित करने के लिए इसे एक अवसर के रूप में उपयोग, संकुचित मानसिकता को दर्शाता है।
मुझे लगता है कि इसे रोकने की जरूरत है। यह वस्तुतः तार्किक उत्तर है। मैं भावप्रवह नहीं हुआ हूँ इस विमर्श में। दूसरा, निर्णय देने से पूर्व, विश्लेषण के रूप में, कानून सर्वोच्च न्यायालय को दो कार्य करने के लिए कहता है, और ये अनिवार्य हैं सर्वोच्च न्यायालय के लिए। और विशेष रूप से सबरीमाला विषय पर लिखे गए निर्णय से पूर्व यह करना अनिवार्य है। यही कारण है कि मैं इस बहस का हिस्सा हूं, क्योंकि मैंने विशेष रूप से कहा था, कृपया ‘प्रत्येक चर्चा में जाति और नारीवाद मत लाइये, क्योंकि सब विषय उससे जुड़े हुए नहीं हैं। ऐसे कई विषय हैं जो उनसे पूर्ववर्ती और परे हैं। मदुरै मीनाक्षी मंदिर में पुजारी की नियुक्ति के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है, और यह संविधान के अनुच्छेद 15 का उद्धरण देते हुए कहा है कि, उन परम्पराओं का सम्मान करें जो मंदिरों से जुडी हैं तथा शास्त्र सम्मत हैं, आगम सम्मत हैं। और समाज में नकारात्मकता को बढ़ावा नहीं देते हैं।
इसका अर्थ यह है कि आप सकारात्मक दृष्टिकोण पर, प्रवेश और बहिष्कार के मामले में कुछ लोगों का चयन करने के अधिकारी हैं, लेकिन यदि आप कहते हैं, इस जाति विशेष या इस समुदाय विशेष का यह व्यक्ति इस विशेष स्थान में प्रवेश नहीं करेगा, तो इस परंपरा का आधुनिक भारत में कोई स्थान नहीं है, और वह भी संवैधानिक भारत में!!! मैं इस विषय पर आपके साथ हूँ। और यदि यह परम्परा यह कहती है कि कोई भी महिला उस विशेष स्थान में प्रवेश नहीं कर सकती है, तो आप सही हैं। परन्तु, इस परम्परा में सार्वभौमिकता नहीं है। स्त्रियों को भी इस मंदिर में प्रवेश की योग्यता है। स्त्रियाँ, जोकि एक विशेष आयु वर्ग की है, वहाँ जा सकती हैं। इस परम्परा ने एक आयु वर्ग निश्चित किया है और यह एक निश्चित नियम का पालन करता है जो कुछ धार्मिक पहलुओं पर आधारित है, जिनमें अधिकांश लोग विश्वास नहीं करते हैं या भले ही वे विश्वास करते हैं, वे नहीं कहना चाहेंगे कि वे विश्वास करते हैं।
अब, आप देवकृष्ण की परंपरा को जानते हैं जिससे वास्तव में सबरीमाला अनजान है? परंपरा तथा अनुयायियों का विश्वास यह है कि मुख्य पुजारी देवता के साथ बात करते है। और प्रमुख पुजारी का चयन कई स्थापित प्रक्रियाओं का पालन करने के उपरान्त होता है जैसे कि कुंडली मिलाना। और भी कई प्रक्रियायें हैं जिनका पालन होता है। हमारे शंकराचार्य वास्तव में देश के विभिन्नभागों से चुने जाते हैं। और उस चयन के आधार पर, जो भी प्रमुख पुजारी देवता की इच्छा के रूप में व्यक्त करता है उसका पालन किया जाता है।
अब, मेरे पास पहले एक प्रश्न है। क्या आपने यु ट्यूब पर लोकप्रिय वीडियो देखा है, जहां एक निश्चित मस्जिद में, बच्चे, शीर्ष से कूदते हैं और कोई नीचे में उन्हें पानी में पकड़ता है। यह प्रथा आज तक प्रचलन में है। ऐसा होता है। कोई प्रश्न नहीं इस पर ? कोई प्रतिक्रिया, हाजी अली विषय पर? उस स्थान में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है। हाजी अली के इस प्रथा पर सार्वभौमिक प्रतिक्रिया यह थी कि वे इसमें शामिल नहीं होना चाहते क्योंकि यह एक धार्मिक मुद्दा है। इसका पालन किया जाता है। क्यूं कर? हाजी अली बोर्ड द्वारा बयान दिया गया था कि महिलाओं का मस्जिद और दरगाह में आना और स्पर्श करना या यहां तक कि मस्जिद और दरगाह की निकटता में रहना भी पाप है। क्योंकि वे, स्त्रियां अशुद्ध है। यही वह कथन है जिसे उन्होंने कहा था।
टीडीपी या ट्रैवेंकर डिओसम बोर्ड के एक प्रतिनिधि से पूछें, वे ऐसा कोई वक्तव्य नहीं देंगे क्योंकि यह सच नहीं है। विषय यह है। यहां आपमें से किसी के पास, किसी के साथ घटित कोई एक उदाहरण है कि स्त्रियां निश्चयात्मक रूप से गंदी हैं और पूजा की जगह में उनका प्रवेश करना गलत है और उनका प्रवेश उस स्थान को अशुद्ध करता है? अयप्पा मंदिर के संबंध में न्यायालय में कभी ऐसा वक्तव्य नहीं दिया गया है।
Every Hindu must know these basic facts about the #Sabarimala Temple. #SwamiSharanam #Ayappa
Posted by Say "No" To Sold Media on Saturday, 20 October 2018
धन्यवाद इस विमर्श को यहाँ स्थान देने के लिए | वास्तव में इससे “कुछ” तो सही पढ़ने को मिलेगा, वर्ना अधिसंख्य सनातनी इस की परतदार गहराई तक पहुँच ही नहीं पाते और इसे महिलाओं के मासिकस्राव, अशुद्धि, भेद-भाव से जोड़ कर ही देखता है | पता नहीं समानता का ज्वर क्या ले कर जायेगा |