Sanaatan Emerges as Science Moves On, Painful for the Scientist? “…the main influence (on my work) is coming from Indian philosophy. I don’t know why. When I read it, I see that it very strongly fits into some quite modern schemes which appear in cosmology. …Many centuries before Greek philosophy appears, there were clever people who were just sitting and thinking — a lot of schools of people with very deep and profound thinking.” says Prof. Andrei Dmitriyevich Linde.
सनातन बोध की इस शृंखला का आरम्भ हमने सर्वकालिक सत्य की चर्चा से किया था अर्थात सत्य जो देश-काल, विषय इत्यादि से निरपेक्ष प्रत्येक बात में समान रूप से दर्शित हो— विज्ञान-कला-दर्शन इत्यादि हर क्षेत्र में। युगों से सत्य के अन्वेषण की अनवरत प्रक्रिया में किस प्रकार सनातन बोध आधुनिक सिद्धांतों में भी दृष्टिगोचर होता है इसके हमने अनेकों उदाहरण देखे। यह मात्र संयोग नहीं है क्योंकि ब्रह्माण्ड के रहस्यमय प्रश्नों के उत्तर देने में प्रयत्नशील वैज्ञानिक भी इन सिद्धांतों से प्रेरणा लेते रहे हैं— स्वामी विवेकानंद और निकोलॅ/निकोलॲ तेस्ला (निकोला टेस्ला) (Nikola Tesla) हों या ठाकुर (टैगोर) और हाइजेनबर्ग की चर्चा।
यहाँ एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सनातन दर्शन में हमें आधुनिक सिद्धांतों को ढूँढ़ने की आवश्कता नहीं है, न ही आधुनिक सिद्धांतों के महत्त्व को गौण करने या उनकी अवहेलना करने की आवश्यकता है। एक सार्वभौमिक विचार प्रारूप के रूप में आद्यरूप से सनातन बोध सत्य के अन्वेषण और उसके बोध को सहज करता प्रतीत होता है। उद्भावात्मक विकास (evolutionary development) एवं मनोविज्ञान में आद्यरूप (archetype) को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। सामाजिकता, सर्जनात्मकता, जीवन शैली तथा रुचि जैसे व्यक्तित्व पक्षों पर भी इन अचेतन आद्यरुपों का अत्यधिक प्रभाव होता है। आद्यरूप दर्शन अर्थात मूल रूप आदर्श या आदि आधार रूप— संस्कार— वह प्रतिरूप जिसके अंतर्गत हमारी सोच और दृष्टि विकसित होती है। सनातन आद्यरूप एवं उत्तर आधुनिक वैज्ञानिकता में अद्भुत रूप से सादृश्यता दिखती है।
ब्रह्माण्ड प्रसार सिद्धान्त (inflationary universe theory) और समान्तर ब्रह्माण्ड (multiverse) के प्रणेता स्टैनफ़र्ड विश्वविद्यालय के प्रख्यात भौतिकशास्त्री प्रो. अंद्रेई लिंडे अपने ब्रह्माण्ड की परिकल्पना, समान्तर ब्रह्माण्ड और एन्ट्रॉपी तथा समय रेखा (time’s arrow) के सिद्धांतों को सनातन दर्शन में वर्णित ब्रह्माण्ड के प्रतिरूप, सनातन दर्शन एवं आद्यरूप से प्रेरित बताते हैं। अद्वैत वेदान्त के ब्रह्माण्ड और आत्म (self) के एक होने के दर्शन से प्रेरित प्रो. लिंडे रोबर्ट जॉन रसेल और कर्क वेग्टर-मैक्नेली की पुस्तक Science and the Spiritual Quest: New Essays by Leading Scientists में छपे अपने आलेख The Universe, life and consciousness के साथ छपे साक्षात्कार में जो कहते हैं उसका सनातन आद्यरूप के परिपेक्ष्य में अवलोकन करें।
‘When I was studying Indian philosophy, I was extremely excited that what they say sometimes is painfully close to what I think. With many parts of Indian philosophical thought, you never know if whether it is an allegorical way of expressing things, or whether it is literally what people thought at that time. If you are exposed to these archetypes of thought, then you can use them in your scientific work without taking them literally.’
सोवियत रूस में नास्तिक की भाँति पले बढ़े प्रो. लिंडे कालान्तर में भारतीय दर्शन को पढ़ उससे प्रेरित हुए। १९८७ में अमेरिकन इंस्टिट्यूट ऑफ़ फिजिक्स को दिए एक अन्य साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि किस प्रकार उनके ब्रह्माण्ड के सिद्धांतों की मुख्य प्रेरणा भारतीय दर्शन से मिली। सटीक शब्दों में वो बतातें हैं कि हमें सनातन दर्शन को किस प्रकार आधुनिक वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में पढना चाहिए। तथा किस प्रकार इन दर्शनों में अद्भुत गूढ़ ज्ञान छिपा हुआ है।
“… the main influence (on my work) is coming from Indian philosophy. I don’t know why. When I read it, I see that it very strongly fits into some quite modern schemes which appear in cosmology. …Many centuries before Greek philosophy appears, there were clever people who were just sitting and thinking — a lot of schools of people with very deep and profound thinking. Even if they were using sometimes strange notions, strange words, even if we cannot sometimes understand exactly the meaning of what they were doing. …You know this concept of archetypes? So when I read what they were writing, I see a lot of interesting archetypes of thought. If you take something for granted, then you are trying to make some construction, and this construction may exist by itself, as in mathematics. Mathematics can be used in some other branch of physics or in biology. These archetypes of thought can exist independently of initial assumptions. Maybe they are more stable than initial assumptions. And when I read the things following the line of thought of some of the Indian philosophical schools, I see a lot of analogies with the thoughts which come to my mind.”
इस बात के एक उदाहरण के लिए अपने एक अन्य साक्षात्कार में प्रो. लिंडे ब्रह्माण्ड के तरंग समीकरण की परिकल्पना पर ऐसे समीकरण के पूर्ण एवं समय से स्वतंत्र होने की बात करते हैं। ऐसे फलन में सम्पूर्ण जगत भी समाहित होगा, स्वयं प्रेक्षक भी जो परिवर्तनशील है। उनके अनुसार आधुनिक भौतिकशास्त्रियों के ठीक इसी प्रश्न पर सहस्राब्दियों पूर्व भारतीय मनीषियों ने भी विचार किया था। उनका प्रश्न यही था, केवल भाषा भिन्न थी। उनका प्रश्न था, नित्य पूर्ण परमात्मा के भीतर एक परिवर्तनशील नश्वर प्रेक्षक कैसे हो सकता है?
भारतीय दर्शन के मनीषियों का निष्कर्ष यह था कि समय नश्वर मनुष्य के लिए परिवर्तनशील प्रतीत होता है क्योंकि मनुष्य ने अपने आपको उस पूर्ण ब्रह्म से दूर कर लिया है। इस प्रकार ब्रह्म से दूर हुआ प्राणी अपने को पूर्ण ब्रह्म से असंपृक्त या भिन्न अनुभव करने लगता है. अर्थात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में हर प्रेक्षक को ब्रह्माण्ड पूर्ण होने पर भी सापेक्ष रूप से परिवर्तनशील प्रतीत होने लगता है । प्रो. लिंडे के अनुसार अद्भुत रूप से १९८३ में प्रो. हाकिंग के छात्र डॉन पेज ने इस प्रश्न का इसी दर्शन के सदृश हल सुझाया— क्वांटम संलिप्तता (quantum entanglement).
इस क्वांटम प्रक्रिया में कणों के दूर हो जाने पर भी जुड़े रहने तथा विभाजन स्वरुप प्रेक्षकों में सापेक्ष परिवर्तन का अनुभव तथा एक अधिपर्यवेक्षक की दृष्टि से अपरिवर्तनशील होने को प्रो. लिंडे अद्वैत के सिद्धान्त से एकैक मानते हैं! उन्हीं के शब्दों में— ‘So as long as you do not have an observer, the arrow of time doesn’t exist, and the paradox doesn’t exist, But as soon as you have an observer, the Universe becomes alive. This duality between you and the Universe is part of the whole package.’
क्वांटम संलिप्तता (quantum entanglement) को यहाँ हिन्दी में समझाने का अच्छा प्रयास किया गया है। ध्यातव्य रहे अल्बर्ट आइंस्टीन इसे लेकर गलत सिद्ध हुए।
लूप क्वान्टम ग्रेवीटी (loop quantum gravity) के प्रणेता पेन स्टेट विश्वविद्यालय के प्रो. अभय अष्टेकर भी इसी प्रकार अपने सिद्धान्त और सनातन बोध में समरूपता देखते हैं। बिग बैंग की अवधारणा के विपरीत उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त ब्रह्माण्ड के अनेक चक्रों में सृष्टि एवं प्रलय की परिकल्पना है। वेदान्त एवं बौद्ध दर्शन से प्रेरित प्रो. अष्टेकर प्रो. लिंडे की तरह ही आत्म-चेतना (consciousness) एवं ब्रह्माण्ड के अद्वैत होने को आधुनिक भौतिक शास्त्र के सिद्धांतों के पूर्णतया समरूप पाते हैं।
अद्वैत अर्थात एकोब्रह्म, द्वितीयो नास्ति एवं ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या। परमब्रह्म निर्गुण, निष्क्रिय, सत-असत, कार्य-कारण से परे सृष्टि से पहले विद्यमान थे। ‘अहं ब्रह्म’ का ज्ञान जीव को क्यों नहीं? — माया के कारण! आत्मा के विशुद्ध ज्ञान स्वरूप निष्क्रिय और अनन्त होते हुए भी ब्रह्म से दूर होने के कारण जीव को यह ज्ञान नहीं रहता — विभाजन स्वरुप प्रेक्षकों में सापेक्ष परिवर्तन का अनुभव तथा एक अधिपर्यवेक्षक की दृष्टि से अपरिवर्तनशील! सनातन आद्यरूप उसी प्रकार जैसे विज्ञान-अभियांत्रिकी के लिए गणित!
इस महत्वपूर्ण लेख के लिए मघा के साथ-साथा ओझा जी भी धन्यवाद के पात्र हैं!