आज श्रावणी है, वेदाध्ययन आरम्भ उपाकर्म तिथि। बीते दिनों विद्या की देवी शारदा के क्षेत्र कश्मीर को, अन्यायपूर्ण एवं अस्थायी होने पर भी स्थायी समान माने जाने लगे अनुच्छेद ३७० से मुक्तप्राय कर दिया गया। ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के ७२ वर्षों पश्चात ऐसा हो पाना एक ओर तो उसकी जटिलता को रेखांकित करता है तो दूसरी ओर सर्वकार की दृढ़ इच्छा शक्ति को भी। इस पुनीत कर्म में सुरक्षा तंत्र, गृह मंत्रालय के अधिकारी एवं विधिक योजना में लगे समस्त जन साधुवाद के पात्र तो हैं ही, पूरा घटनाकर्म जिस प्रकार से गोपनीयता, समयलाघव एवं दक्षता के साथ पूर्ण हुआ वह हमारी शक्ति एवं क्षमता को भी रेखांकित करता है। इस घटित से रामजन्मभूमि, समान नागरिक संहिता, मतांतरण, घुसपैठ एवं जनसंख्या नियंत्रण जैसे अति महत्त्वपूर्ण विषयों पर भी सार्थक एवं प्रभावी विधिक या प्रशासनिक उपायों के भी होने की आशा बँधी है। जन सामान्य उत्साहित है।
अर्थव्यवस्था में सुधार हेतु शीघ्र ही नीतिगत उपायों की अपेक्षा है क्यों आगामी पाँच वर्षों में जिन उपलब्धियों का लक्ष्य है, उनकी प्राप्ति में वर्तमान स्थिति के लम्बे समय तक बने रहने से कठिन बाधायें उठ खड़ी होंगी। चक्रवृद्धि दर पर तिमाही मंदी की मार ही बहुत भारी पड़ जाती है। भारत के वर्तमान अर्थतंत्र को देखें तो विराट प्रादेशिक एवं क्षेत्रीय असमानतायें दिखती हैं। भारत जैसे वैविध्य भरे देश में ऐसा होना एक सीमा तक अनिवार्य है तथा ऐसा संसार के अन्य बड़े एवं समृद्ध देशों में भी है किंतु यह भी सच है कि कोई भी लोकतान्त्रिक एवं कल्याणकारी राज्य खाइयों को पाट कर समतल बनाने की दिशा में काम करता है।
अर्थसृजन एवं मूल्य-अभिवर्द्धन जहाँ वांछित उपाय होते हैं, वहीं लघु परास के समाधान दर्शाने वाले कठोर कराधान सम्बंधित उपाय आकर्षक दिखने के साथ दीर्घावधि में घातक ही सिद्ध हुये होते रहे हैं। तंत्र की अनावश्यक जकड़न एवं जटिलतायें भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा देती हैं। आशा है कि ‘सबका विकास एवं सबका विश्वास’ के निकष पर चलने वाला तंत्र मूलभूत यथार्थ को सदैव ध्यान में रखेगा तथा इसका भी कि ‘दुधारू गायों’ का बर्बर दोहन न हो।
सबसे बड़ी आवश्यकता उत्तर, दक्षिण, पूरब एवं पश्चिमी भागों में जो प्रति व्यक्ति घरेलू उत्पादन एवं आय का अंतर है, उसे पाटने की है। वित्तीय वर्ष २०१८-१९ में भारत प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद की दृष्टि से लाओस के समांतर था। इसके दो बड़े हिंदी राज्यों का प्रति व्यक्ति निवल राज्य घरेलू उत्पाद अखिल भारतीय औसत के आधे तीहे पर झूल रहा था। ये दो बड़े राज्य उत्तरप्रदेश एवं बिहार सबसे निचले दो स्थानों पर थे जब कि जनसंख्या की दृष्टि से प्रत्येक चौथा भारतीय इन्हीं दो राज्यों में से एक से आता है। इनका क्षेत्रफल दस प्रतिशत से किञ्चित ही अधिक है। कहना न होगा कि भारत की अर्थव्यवस्था को नीचे खींचने में इन दो राज्यों की महती भूमिका है।
लोगों की मानसिकता, राज्य सरकारों की प्राथमिकतायें, विधि एवं प्रशासनिक तंत्र की स्थिति, सुरक्षा तंत्र, औद्योगिक उपेक्षा एवं भ्रष्टाचार कुछ ऐसे कारक रहे हैं जो इस स्थिति तक ला पटके हैं। सरकारें कथरी पर क्षौम एवं अंशुक की थिगलियाँ लगा कर स्थिति में सुधार नहीं कर सकतीं। ‘विकास के द्वीप’ रच कर, अप्रवासी श्रमिकों के नगर पलायन को बढ़ावा दे कर मूलभूत परिवर्तन नहीं किये जा सकते, न ही केवल सड़कें एवं अन्य तंत्र बढ़ा कर। काम इस स्तर पर करना होगा कि इन राज्यों की बहुसंख्यक जनता की सकल गुणवत्ता बढ़े तथा इसमें पहले स्वयं जनता को एवं आगे राज्य सरकार को लगना होगा। सरकारें मौलिक स्तर पर ऐसे तंत्र एवं व्यवस्थायें लायें जिनकी पहुँच पसरी हुई तो हो ही, उनमें भ्रष्टाचार की सम्भावनायें भी अल्प रहें।
दोनों ही राज्यों में प्राथमिक से ले कर उच्च स्तर तक की शिक्षा का तंत्र एवं गुणवत्ता, दोनों ध्वस्त हो चुके हैं तथा शिक्षा के व्यापारियों की बढ़त है। पाठ्यक्रम वही पुराना है तथा मौलिक परिवर्तन की आवश्यकताओं से उसका कोई सम्बंध नहीं। इन दोनों कृषि बहुल राज्यों का ‘कृषिविज्ञान’ स्यात ही वास्तव में खेत में प्रयुक्त होता हो। स्थिति इतनी विकट है कि दोनों राज्यों के पूर्वी एवं पश्चिमी भागों में ही कृषि युक्तियों, तकनीकों एवं उत्पादन में भी बड़े अंतर विद्यमान हैं, अन्य विकसित राज्यों से तुलना करने की आवश्यकता ही नहीं। यह भीमाकार सच राजनेताओं को दिखता तो है किंतु वे इसके कारण ढूँढ़ने एवं समाधान की दिशा में काम करने के स्थान पर क्षेत्रीय विघटन को बढ़ावा देने में लगे रहते हैं।
निराश युवा वर्ग या तो पलायन कर जाता है या विघटनकारी शक्तियों के हाथों में खेलने लग जाता है या मन मार कर बैठ जाता है। इन सबका प्रभाव सकल राज्यीय उत्पादन पर पड़ता ही है। जिसे आमूल चूल परिवर्तन कहते हैं, वह इन दोनों राज्यों की वर्तमान शिक्षा पद्धति में आमूल चूल परिवर्तन से ही आयेगा। अनुपयोगी डिग्रियाँ ले ले कर सरकारी भर्ती को अगोरना, इन दो राज्यों के युवाओं की नियति बन चुकी है। दम्भ की यह स्थिति है कि पढ़ लिख कर कोई भी हाथों में मिट्टी या गोबर लगाना नहीं चाहता। कुछ नया करना चाहे तो व्यवस्था उसके मार्ग में इतने पहाड़ खड़ी कर देती है कि साहस भहरा जाता है।
योजनाओं एवं नीतियों के कर्ता धर्ता कुछ भी कहें या करें, यह ध्रुव सत्य है कि भारत को पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बना पाना देश की चौथाई जनसंख्या की आज की यथास्थिति बनाये रखने के साथ सम्भव नहीं है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने जब अपने राज्य हेतु एक ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था की बात की तो आशा है कि उस समय समझ तो रहे ही होंगे कि भारत के सकल उत्पाद का बीस प्रतिशत दे पाने के अर्थ क्या होते हैं? उनके लिये क्या क्या उपाय करने होंगे? राज्य सरकार तो राज्य सरकार है, सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि क्या जनता भी इसी प्रकार उत्साहित है? इन दो राज्यों सहित समस्त हिंदी पट्टी के लोगों को इस पर सोचना ही होगा कि कब तक वे भारत के पाँवों में भार की भाँति रहेंगे? ठीक है कि हिंदी क्षेत्रों का ‘श्रमिक योगदान’ बहुत बड़े आकार वाला है किंतु क्या वह पर्याप्त होगा, भारत के लिये नहीं, स्वयं उनकी स्थिति के लिये?