वैश्विक स्तर पर परिवर्तन की गति तीव्र है, कुछ दशकों पूर्व से बहुत अधिक। स्वाभाविक है कि जीवनयापन, गुणवत्ता, इच्छायें, लब्धियाँ, असफलतायें एवं निराशायें, सभी इस गति से प्रभावित होंगे। सञ्चार माध्यमों ने आज बहुसंख्य जनता को विश्व से तत्काल सूचना तंत्र द्वारा जोड़ दिया है तथा उसके साथ ही विभिन्न सामाजिक, राष्ट्रीय, जातीय, भाषिक परिवेशों वाले एक ही मञ्च पर एक ही युक्ति के घेरे में हैं। विविधता पर इतना बड़ा सङ्कट पहले कभी नहीं रहा। कोई आवश्यक नहीं कि जो किसी व्यक्ति क के लिये अच्छा हो, वह ख के लिये भी हो। आरोपित ‘एका’ या ‘समता’ वाले वातावरण से अहित ही अधिक हो रहा है, ऐसा लगता है। सहज विकास के स्थान पर आरोपण से जो सबसे बड़ा दुष्प्रभाव होता है, वह है – नित नवीन विकृतियों का प्रसार। इसमें गति एवं त्वरण इतने हैं कि विकृतियों से प्रभावित होता व्यक्ति जान ही नहीं पाता तथा वह एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी पर चलायमान होता रहता है।
यह समय नवोन्मेषी युक्तियों का भी है जिन पर एक सीमा तक विधिक अनुशासन तो हैं किंतु वे भी विकृतियों के सापेक्ष ही निर्मित हैं। सकारात्मकता की परिभाषा ही परिवर्तित हो चली है। विधिक अनुशासन के घेरे में काम करती कोई युक्ति जन सामान्य हेतु हितकारी भी हो, आवश्यक नहीं। इसे प्रगतिशीलता का नाम भी दे दिया गया है।
मोबाइल सञ्चार माध्यम ने जोड़ने का कार्य अल्प किया है, सम्बंधों एवं मनुष्य मनुष्य के बीच सीधे संवाद एवं जुड़ाव को बाधित अधिक किया है। स्वतंत्र दिखता हर व्यक्ति एकाकी एवं अदृश्य आवरण में बंदी है तथा उस आवरण के भीतर जो कुछ घटित हो रहा है, उसका साझा ऐसों से है जो उसके वास्तविक संसार में या तो हैं ही नहीं, या वे स्वयं भी अवरोधी आवरणों में रह रहे हैं।
सामाजिक संसर्ग या सम्वाद की जो ‘दक्षता’ होती है, वह शनै: शनै: लुप्त हो रही है। परिवार संस्था पर भयानक दबाव है, इतना कि बाल या किशोरावस्था की अपनी संतानों से माता पिता भी बहुत खुल कर सम्वादित नहीं हो पा रहे। आवरण को बड़ा आकर्षक नाम भी दे दिया गया है – ‘निजी स्पेस’। बालक एवं बालिकाओं के भी ‘निजी स्पेस’ हैं, वयस्कों की तो बात ही करने की आवश्यकता नहीं।
महत्त्वाकांक्षा एवं जाने क्या पाने की ललक में सभी भागे जा रहे हैं, किसी के पास ‘समय’ नहीं है। इस भागमभाग में वे अकेले भी होते जा रहे हैं। ‘स्पेस’ एवं ‘काल’ की संयुक्त विसंगतियाँ विकृतियों को सांद्र तो कर ही रही हैं, उनमें उत्परिवर्तन, सहसा परिवर्तन भी किये दे रही हैं। जाने अनजाने हम सभी एक शांत महामारी की चपेट में आ गये हैं। लक्षण बहुत स्पष्ट हैं किंतु मानने का मन अभी बन नहीं रहा। PUBG के व्यसन से मुक्त होने को मनोविशेषज्ञों को पुकारते किशोर किशोरियाँ हों या CCD जैसे व्यापक प्रसार वाले व्यापार तंत्र के संस्थापक स्वामी की आत्महत्या; महामारी की परास एवं पहुँच की गहराई बता रहे हैं।
इससे बचें कैसे?
यह बहुत कठिन प्रश्न है तथा सर्वमान्य या सर्वोपयोगी उत्तर नहीं दिये जा सकते क्यों कि समाधान दे सकने वाला या उस हेतु प्रयास करने वाला भी तो ग्रस्त है। तब भी कुछ मोटे बिंदुओं पर सोच विचार किया जा सकता है। पहला है समय। किसी का कितना समय जीवनयापन की युक्तियों से इतर नितांत अपने ऊपर बिताया जाता है तथा कितना अपने से जुड़े सम्बंधियों, मित्रों एवं समाज पर? वह अपने ‘निजी खोल’ से बाहर कितना आता है? किशोर हों या युवा या अधेड़ वयस्क; समय का दुरुपयोग बहुत बड़ी समस्या है।
भागती जीवनशैली ने त्वरित एवं रेडिमेड सहज उपलब्ध मनोरञ्जन को ही ‘स्ट्रेस फ्री’ होने का माध्यम बना लिया है। विकसित देशों में बहुत अधिक प्रदूषण वाले चौराहों पर लगे यातायात कर्मियों को एक निश्चित कालावधि के पश्चात विराम एवं ‘ऑक्सीजन’ देने की बातें सुनने में आती हैं। मोबाइल पर उपलब्ध मनोरञ्जन भी उसी प्रकार के विराम एवं ऑक्सीजन की भाँति हैं कि तात्कालिक रूप से ‘पुनर्जीवित’ हो कर आगे पुन: मरने में लग गये! बड़ा ही मायावी चक्र है यह, घिनौना तो है ही। ‘रिजुवनेट’ होने हेतु ‘ड्रग डोजिंग’ का अभ्यास तजना ही होगा। आजकल उपलब्ध बहुत से मनोरञ्जन साधन मादक द्रव्यों की ही भाँति हैं, तात्कालिक मुक्ति या संतोष या उपाय देते हैं, साथ में काल्पनिक जगत के मनोरोगी वातावरण में स्थायी रूप से ले जाते हैं, जीवनचर्या का अंग हो जाते हैं।
इसका समाधान यह है कि कट्टर हो कर, कठोरतापूर्वक नितांत अपने सुधार एवं दूसरों से सम्पर्क-सम्वाद-समूहगतिविधि के लिये प्रतिदिन, प्रति सप्ताह, प्रति मास, प्रति वर्ष कुछ समयखण्ड समर्पित कर दिये जायँ जिनमें आप अधिकाधिक अपने ‘आदिम रूप’ में रहें, बिना किसी गैजेट के या उनकी अल्पतम उपस्थिति के।
समय समर्पण के पश्चात दूसरा है समय का उपयोग कि कोई दैनिक रूप से उपलब्ध चौबिस घण्टों से लिये कालखंड का, सप्ताहांत का, अवकाश का या वार्षिक विराम का कैसे उपयोग करता है? प्रतिदिन केवल आधे घण्टे मनन पर लगाना उपयुक्त होगा, उपलब्ध समय का दो प्रतिशत तो दे ही सकते हैं! दैनिक संध्या विधान से इसका मर्म समझा जा सकता है जिसे कि कुछ विशेष रीतियों से बद्ध किया गया है किंतु उस कालखण्ड में दैनिक कामकाज से पूर्ण विराम ध्यान देने योग्य है। समस्या यह है कि शिक्षा पद्धति के दूषण के कारण सन्ध्या नाम आते ही बालक हो, युवा हो या वयस्क; प्रतिक्रिया होने लगती है। आरोपण का प्रभाव विद्रोह कर उठता है। ठीक है, उसे संध्या नाम न दे ‘निजी समय’ नाम दे दें, या कोई अन्य फंकी नाम। कोई ऐसी गतिविधि न करें जो आप के संक्रमित मन को ठीक न लगती हो।
आँखें मूँद शांत बैठ कर मनन करें, नियम पूर्वक नित्य करें कि आज क्या करना है? क्या किया? क्या मैं अपने व्यवहार में ठीक था? क्या मैंने आज व्यायाम या कोई दैहिक श्रम किया? क्या करना चाहिये? उसमें क्या बाधायें हैं? कहीं एकमात्र बाधा मेरी अपने मन की दासता तो नहीं? क्या मैं अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु ‘संतुलित’ रूप से लगा हूँ? कहीं मैं उसके प्रति भी एक ‘व्यसन’ की भाँति तो नहीं लगा पड़ा हूँ? कहीं समर्पण एवं विक्षिप्ति के बीच का भेद मुझमें मिट तो नहीं गया है? प्रश्न न हों तो चुपचाप बैठें। मन में बहुत कुछ उठेगा, विरक्ति होगी किंतु लगे रहें। मास भर पश्चात आप का अस्तित्त्व इस विराम की, इस विशेष कालखण्ड की माँग करने लगेगा जो कि अच्छे के लिये ही होगा। आप स्वत: ही उस समय बैठने लगेंगे तथा पायेंगे कि आप के भीतर अबूझ से किंतु सार्थक परिवर्तन हो रहे हैं। आगे सुविधा अनुसार इसमें अन्य मानसिक या प्राणायाम जैसी गतिविधियाँ जोड़ सकते हैं जिनके प्रति आप का मन विद्रोही न हो।
सप्ताहांत में एक न्यूनतम समय परिवार, मित्रों एवं सुहृदों से विशिष्ट सम्वाद हेतु रखें। जिनसे मिल सकते हों मिलें, जो दूर हों, उनसे बातें कर सकते हैं। एक घण्टा किसी ऐसी समाजिक गतिविधि में लगायें जिसमें आप का ही स्वार्थ न हो। यह किसी एकाकी रहते व्यक्ति की औषधि लाने से ले कर किसी सार्वजनिक स्थान पर सुधार या स्वच्छता कार्य या पौधारोपण आदि तक कुछ भी हो सकता है, केवल इसका ध्यान रखें कि उससे अन्यों को या जनसामान्य को अधिकाधिक लाभ मिलता हो। समान रुचि के लोगों को जोड़ते चलें, वयस्क एवं युवा बालकों एवं किशोरों को भी उनकी सामर्थ्य तथा क्षमता अनुसार ऐसे सार्थक कामों में लगायें।
इसका एक पूर्वबंध यह है कि इन कालखण्डों में आप को ‘मोबाइल व्यसन’ से या केवल अपने खोल में रहने से मुक्त होना ही होगा अन्यथा बचा हुआ समय मिलेगा ही नहीं! इन दो पर ही अनुशासन एवं समर्पण के साथ लगें तो जीवन में बहुत से सुखद परिवर्तन हो सकते हैं, उस दिशा में पहला पग उठे तो! बिना किये तो कुछ विशेष नहीं होना, विनाशी चक्का चलते ही रहेगा!
किसी से तुलना कर या अति महत्त्वाकांक्षी हो जीवन का संतुलन, सुख एवं आनंद न खोयें। जितने पर हैं, क्षमता एवं सामर्थ्य भर उससे ऊपर उठने हेतु तप अवश्य करें तथा साथ में इसका भी ध्यान रखें कि यात्रा सुगम एवं अहानिकर हो, यह भी लक्ष्य का ही अंग है। आप ही नहीं रहे या अपने को असाध्य रोगी बना, सारे सम्बंध, मित्र आदि गँवा कुछ बड़ा पा भी लिये तो अंधी दौड़ अंतत: घातक ही सिद्ध हुई न! लघु कालखण्ड में कष्ट उठाये जा सकते हैं किंतु अंधी दौड़ को जीवनशैली ही बना लेना आत्मघाती तो है ही, समेकित रूप से समाज, देश एवं मानवता हेतु भी घातक है।
चेतें कि जिस रूप में आप के पुरखे यह धरा आप को सौंप कर गये, उससे इसे और अच्छा बना, उसमें उनसे अच्छे से जी कर तथा आगामी पीढ़ी को उनसे एवं अपने से भी अच्छी धरा सौंप कर प्रयाण करने में ही आप के तथा आप के पुरखों की सिद्धि है। अपनी या पुरखों की सिद्धि कहना पिछड़ी सोच लगती हो तो sustainibility कह लें, एक ही बात है – जीवन का सकारात्मक नैरंतर्य। महामारी के रहते तो नहीं रहना न!