पूर्वी उत्तरप्रदेश के वर्तमान कुशीनगर जिले के अब अधेड़ हो चुके लोगों को उनके बाल्यकाल में पुरायठ पुरनिये सन चार के भीषण अकाल की बातें बताते थे – सुनी सुनाई नहीं, भोगी हुई। यह चार स्पष्टत: १९०४ ही है किंतु विक्रम या शक या ग्रेगरी, इसे ले कर समस्या है। उपलब्ध साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि १८९५ से ले कर १८९७ ग्रे. तक भारत का सबसे बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा था जिसका आरम्भ बुंदेलखण्ड में अनावृष्टि से हुआ था। उसका प्रभाव आगे तक खिंचा। पुन: १९०१ एवं १९०३ में सीमावर्ती प्रांत बिहार अकाल की चपेट में आया। हम यह मान सकते हैं कि कथित सन चार का अकाल इन सब का समेकित एवं सीमित उपजाऊ भौगोलिक क्षेत्र में विलम्बित परंतु अति प्रभावी छाड़न रहा होगा जिस पर बहुत कोलाहल नहीं हुआ होगा। किंतु इसकी विकरालता ऐसी थी कि उसका घटित तीसरी पीढ़ी तक को सुनाया गया।
गत दो जून को सामाजिक संचार मञ्चों पर ‘दो जून की रोटी’ को ले कर घिसे पिटे हास्य प्रसंग देखने को आये थे। यह वह पीढ़ी है जिसे दो जून का अन्न, कहें तो square meal उपलब्ध है, कोई विशेष चिंता नहीं है। जिस दुर्भिक्ष की बात की जा रही है, उसमें दो जून क्या दो दो दिनों के अंतर पर लोगों ने आहार के नाम पर वह खाया जिसकी कल्पना आज नहीं की जा सकती। वट, पीपल, कटहल, जामुन आदि वृक्षों की हरी छालें उतार कर उन्हें कूटा जाता। स्वाद या खनिज पोषण(?) हेतु उनके साथ पुराने लखौरी ईंटों को भी कूटा जाता। ऐसे ‘आहार’ का गोला लोग पानी के साथ घोंट लेते! अतिसार एवं अन्य रोगों से अधिक मृत्य हुई या भूख से, बताना कठिन है। भूख मृत्यु को खा नहीं पाती किंतु मृत्यु अवश्य भूख का अस्तित्त्व समाप्त कर देती है।
कम्युनिस्ट सिद्धि का अनुकरण कर भूख को पाट देने का सपना लिये यह देश दशकों तक घुटने से पेट दबाये सोता रहा। उस कालखण्ड के स्वतंत्र भारत के अधिकांश घरों में भोजन एक ही समय बनता, दूसरे जून या meal square करने के नाम पर चना चबेना एवं गुड़ ही होते थे। अब जब कि हमें दो जून की मिल रही तो भी पूछने को जी करता है कि आज भूख, सबसे बड़ी पेट की भूख की क्या स्थिति है? हमें नहीं लगता कि आज के युग में कोई विशेष समस्या है परंतु क्या वास्तव में ऐसा ही है? कहीं हम शनै: शनै: किसी नये प्रकार के दुर्भिक्ष की दिशा में तो नहीं बढ़ रहे?
कथित विकास हेतु लाखो वृक्ष काटे जा रहे हैं। ‘पेड़ लगाओ’ का पाँच जुनिया पर्यावरणीय नारा केवल सेल्फी एवं प्रचार चित्रों तक ही सीमित है। वह पौधा, जिसे पेड़ बता कर रोपा जाता है, वह जीता भी है या उसे पानी डालने वाला भी कोई है, इसकी चिंता कोई करता भी है? पोखर एवं तड़ाग पटते चले गये, उद्यान कटते गये एवं चरावर भूमि सिकुड़ती गयी है। व्यावसायिक उद्यमों को छोड़ दें तो इस पीढ़ी या इससे पहले की पीढ़ी ने भी विविध जातियों के वृक्षों सहित ‘बढ़ते हुये’ उद्यान नहीं देखे होंगे, उन्हें केवल रिक्त होती कृषि भूमि पर कंकालों की भाँति खड़े होते सोसाइटी फ्लैट आदि को ही विकास मानने का प्रशिक्षण प्राप्त है तथा विद्यालयों में पर्यावरण शिक्षण भूमि से कटे नारों की उस लम्बी शृंखला के समान है जिसका व्याकरण वायवीय है। अपनी जीवनदायिनी भूमा से कट कर इतना गौरवशाली किसी भी मानव पीढ़ी ने कभी अनुभव नहीं किया होगा जितना यह पीढ़ी कर रही है। तेजी से लुप्त एवं विषाक्त होते तथा रसातल को प्रयाण करते भूजल की आज यह स्थिति है कि गाँव गाँव ‘आर ओ वाटर’ सप्लाई के लघु उद्यम खुलते चले जा रहे हैं। कहाँ जा रहा है वह पानी? क्या हो गया उसे? कैसे हुआ?
बीते कुछ वर्षों से जैविक (organic) उत्पादों के बारे में सुना जा रहा है, प्रमाणन है, बड़ा विपणन तंत्र है तथा इसका उपभोक्ता वह वर्ग है जो गुड़ को किसी वृक्ष का फल बताये तो आश्चर्य न हो, जिसे भात एवं चावल में अंतर नहीं ज्ञात तथा जो पहले तो तकनीकी से बने सुंदर उत्पाद खा कर स्वास्थ्य बिगाड़ता है एवं आगे सुधारने हेतु पाँच गुने मूल्य पर भी कथित जैविक उत्पाद क्रय करने की क्षमता रखता है। कितनों के लिये ‘स्वस्थ आहार’ की आवश्यकता ऐसा तंत्र पूरी कर पायेगा? पशुपालन होगा ही नहीं तो बृहद, १३० करोड़ की, जनता का पेट भरने योग्य ‘जैविक उपज’ हेतु ‘जैविक खाद’ कहाँ से आयेगी? महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि हम कैसे या जैसे तैसे जी रहे हैं, जी ले रहे हैं, महत्त्वपूर्ण यह है कि हम क्या छोड़ कर जायेंगे? आगामी पीढ़ी हेतु ‘उत्परिवर्तित दुर्भिक्ष’, जिसकी कहानियाँ सुनने सुनाने को भी लोग नहीं बचेंगे?
जो भी कथित उपाय हो रहे हैं, वे तात्कालिक मात्र हैं, उनमें न तो दूरदृष्टि है, न ही समस्या का दृढ़ता से सामना कर उसके उन्मूलन हेतु संकल्प। मौलिक कारणों की उपेक्षा हो रही है, हम या तो सोचने में भी आलस कर रहे हैं या सत्य इतना विद्रूप है कि हम कन्नी काट कर निकलते जा रहे हैं।
ये राजमार्ग, विद्युत उत्पादन केंद्र, ‘चतुर नगर’ आदि अनादि सहित इतना विकास क्यों चाहिये? यह बड़ा ही मौलिक प्रश्न है,जिसका उत्तर बहुत सरल है – बढ़ती हुई जनसंख्या हेतु जिसे ‘जीवन की गुणवत्ता सुधारने’ का नाम दे कर प्रक्षेपित किया जाता है।
नये आधारभूत ढाँचे आज खड़े किये जाते हैं तथा पाँच-दस वर्षों में ही वे अपर्याप्त हो जाते हैं। क्यों? जनसंख्या के कारण। हमने अरबों लगा कर ऐसे ‘भूत नगर’ क्यों बनाये जिनमें रहने को आज लोग मिल ही नहीं रहे? जनसंख्या को नियंत्रित करने के स्थान पर उसकी अभूतपूर्व वृद्धि की ‘आस’ में बनाये – लोग भाग कर नगर आयेंगे ही, क्यों कि गाँवों में तो सुविधायें हैं ही नहीं!
आज के भारत की दो बड़ी समस्यायें हैं- जनसंख्या एवं उजड़ते गाँव। दोनों एक बहुत ही बुरे एवं आत्मघाती चक्र के अंग हैं। हमने नगरों के रूप में ‘सुविधाओं एवं समृद्धि के दीप’ खड़े किये। जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं तथा नागर सुविधाओं की मृगतृष्णा भी रहती है, पेट पालने को गाँव वाले नगर को भागते हैं। गाँव उजड़ते हैं तो कृषि पर ‘उत्पादक समय का निवेश’ भी घटता है, पशुपालन भी। उत्पादन घटने से कुछ विशेष ‘पॉकेट्स’ पर भार बढ़ता जाता है, अत्यधिक दोहन से भूमि बञ्जर होने लगती है, हताशा को नगर से औषधियाँ मिलती हैं, मादक द्रव्यों के रूप में तथा शनै: शनै: वह ‘उत्पादक अक्षय पात्र’ भी ऊसर होने लगता है। नहीं समझ में आ रहा हो तो पञ्जाब पर सूक्ष्म दृष्टि डालें। ऐसा कब तक चलते रह सकता है? एक दशक, दो दशक? उसके पश्चात क्या होगा?
एक तर्क दिया जाता है गुणवत्ता का कि जनसंख्या अपने आप में समस्या नहीं है, उसकी निम्न गुणवत्ता है। ढेर सारे सरलीकृत सूत्रों की ही भाँति यह तर्क भी अनेक विकारी कारकों की उपेक्षा करता है। बात ठीक है किंतु अकेले नहीं। गुणवत्ता का कौन सा स्तर आप पाना चाहते हैं? वह सुनिश्चित एवं सुविचारित है या वायवीय चाहना मात्र? उसके अनुसार चलने पर १३० करोड़ को ‘सुधारने’ में कितना समय लगेगा, तब जब कि ‘संख्या उत्पादन’ चलता ही रहेगा? क्या आप ने उन मजहबी कारकों को ध्यान में रखा है जिन्हें ‘सुधार’ स्वीकार ही नहीं? इस पूरी स्थिति को यथावत बनाये रखने हेतु एक बहुत बड़ा ‘बौद्धिक’ तंत्र भी लगा हुआ है, वह तंत्र को किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं चाहता तथा जिसके पास प्रत्येक समस्या हेतु कृत्रिम, भ्रामक एवं झूठे औचित्य प्रमाण हैं, समाधान दिखते बचने के उपाय भी हैं। इस वर्ग की मनोवृत्ति का एक उदाहरण बिहार में लीची खा कर प्रत्येक वर्ष मरते बच्चों के समाचार पर उनकी प्रतिक्रियायें या विश्लेषण हैं। वे इन्हें दोषी बताते हैं – कीटनाशकों का प्रयोग, रात को खाली पेट सोये बच्चों द्वारा प्रात:काल पहले आहार के रूप में लीची खाना, कच्ची लीचियाँ खाना तथा बिना धोये खाना आदि।
उनके समक्ष दो प्रश्न रखे जाने चाहिये। क्या भारत में या विशेषकर उस क्षेत्र में ऐसे गाँव हैं जहाँ आज भी ‘दो जून’ का भोजन नहीं मिलता जो बच्चे भूखे सो जाते हैं? यदि ऐसा है तो ऐसी स्थिति क्यों है? यदि नहीं है तो ऐसी बातें क्यों की जा रही हैं?
दूसरा प्रश्न भी बड़ा है – कीटनाशकों या रसायनों की आवश्यकता क्यों है?
जिस वर्ग के ऊपर सोचने का, कुछ सार्थक करने का भार है, वह सामान्यीकरण एवं साधारणीकरण में लगा है। बिना किसी आलस्य के, समय दे कर विचार करने पर आप यह पायेंगे कि इस तकनीकी युग में इस प्रकार की घटनाओं तथा उनके घटित होने पर ऐसी उपरौछा बातों के मूल में जनसंख्या की बाढ़ एवं उजड़ते गाँवों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव; ये दो कारण ही हैं। प्रभाव किसी भी रूप में अभिव्यक्त हो सकता है, कहीं लीची होगी, कहीं पानी में फ्लोराइड का सांद्रण होगा, कहीं व्यापक ज्वर होगा तो कहीं मरते पशु होंगे। हम देखते हुये भी, बच्चों की पुस्तकों में निर्दोष दिखती बड़ी बड़ी बातों को लिखते हुये भी अपनी आँखें मूँदे हुये हैं क्यों कि हमें किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं चाहिये, क्यों कि हमें उस भावी अराजकता से भय है जिसके कारणों का उन्मूलन नहीं किये जाने पर आज नहीं तो कल विनाश अवश्यम्भावी है।
जनसंख्या का पेट भरने हेतु किये जा रहे अंधाधुंध दोहन एवं स्वार्थ के कारण हम अपना मृत्युगीत लिख रहे हैं। प्रकृति लघु चेतावनियाँ देती जा रही है, सूखते जलस्रोतों के रूप में, नीचे जाने जलस्तर के रूप में, लीची से होने वाली मृत्यु के रूप में किंतु हमें चेत नहीं है। दोषी वे नहीं हैं जो ‘दो जून की रोटी’ को हास्य का विषय मानते हैं, दोषी वे हैं जो इस हेतु उन्हें उपादान उपलब्ध कराते ही जा रहे हैं। समय रहते यदि दोनों स्थितियों को उलटा नहीं गया अर्थात जनसंख्या नियंत्रण के प्रभावी उपाय एवं गाँवों को रहने योग्य बनाये रखने के हेतु मौलिक सुधार नहीं किये गये तो चार तो नहीं, ‘चालीस के अकाल’ पर ऐसे ही कोई पीढ़ी लिख रही होगी। और वह अकाल पारम्परिक अर्थों वाला दुर्भिक्ष नहीं होगा, हमारा अपना ‘अद्वितीय सृजन’ होगा।