भारत में लोकतान्त्रिक व गण व्यवस्था के विविध रूपों के प्रमाण इतिहास ग्रंथ महाभारत में तो मिलते ही हैं, कथित षोडश महाजनपद काल तक उनकी बातें हैं। हरिवंश में यादव संघ हेतु कृष्ण इन्द्र द्वारा प्रदत्त एक वैकल्पिक नागरिक व प्रशासन व्यवस्था को लागू करते बताये गये हैं। वह अक्षय Sudharma सुधर्मा सभा हरिवंश की है, जो देवों के यहाँ से लाई गई है :
सभां सुधर्मादाया देवेभ्यस्त्वमिहानय
यादवा धार्मिका ह्येते विक्रान्ताश्च सहस्रश:
तस्यां विशेयुरेते वै न तु या कृत्रिमा भवेत्
या ह्यक्षया सभा रम्या कामगा कामरूपिणि
सा यदून् धारयेत् सर्वान् यथैव त्रिदशांस्तथा
कामगा है, कामरूपिणी है अर्थात जन की इच्छा अनुसार रूप परिवर्तित करती चलती है। त्रिदश अर्थात देवताओं के समान ही वह यादवों को धारण करे। वह कृत्रिम नहीं हो।
पौराणिक चमत्कारप्रियता को किनारे कर के देखें तो यह किसी ऐसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था की ओर सङ्केत है जो कृष्ण से पूर्व देव जातियों में प्रचलित थी तथा उसे कृष्ण ने नवनिर्मित द्वारका पुरी हेतु आदर्श माना, राजतन्त्र को नहीं।
कहने का अर्थ यह कि भारत में आनुवंशिक राजसत्ता से इतर अन्य लोकतान्त्रिक सभा व्यवस्थाओं के स्पष्ट लिखित प्रमाण उपलब्ध हैं। आज प्राय: समस्त सभ्य विश्व किसी न किसी रूप में लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था को अपना चुका है तथा राजतन्त्र के अवशेष मात्र ही बचे हैं। ऐसा कैसे व क्यों हुआ, उस पर न जाते हुये इस पर विचार करें कि इस लोकतन्त्र में लोक के दायित्त्व क्या हैं? एक ही शब्द ध्यान में आता है – मर्यादा, मर्यादा पोषित संतुलन बनाये रखना ही लोकतंत्र में जनता का कर्तव्य है क्योंकि वही प्रधान है। हरिवंश में उसे इस प्रकार बताया गया है –
मर्यादाश्चैव सञ्चक्रे श्रेणीश्च प्रकृतीस्था
बलाध्यक्षांश्च युक्तांश्च प्रकृतीशांस्तथैव च
समस्त श्रेणियों व्यापारी, सेनापति व प्राकृत प्रजाजन के लिये मर्यादायें। सन्तुलन तो तब ही रह पाता है न जब विभिन्न घटक अपने अपने दायित्त्व का निर्वहन सुचारु करते रहें?
सम्भवत: आदर्श जितना ऊँचा है, उतनी पहुँच जनसामान्य की नहीं होती। इस कारण ही विशिष्ट प्रशिक्षण एवं कठोर जीवनचर्या वाले विष्णु रूपी राजा की उद्भावना हुई। यहाँ तक कि कौटल्य का राजा भी सामान्य जनजीवन की तुला में बहुत ही अनुशासित व कठोर जीवन जी रहा होता है। राजतन्त्र में विकृतियाँ आईं तथा उसके कारण ही वह तिरोहित भी हुआ किन्तु वह कालचक्र का अंतर है, यह देखें कि शताब्दियों तक धरा उसके द्वारा शासित रही जब कि उसका विकास लोकतंत्र का परवर्ती है। कालचक्र की परिकल्पना करने वाली भारती मेधा की स्थापनायें प्रेक्षण आधारित व जनकल्याण केंद्रित रही हैं, भले उन पर दैवीयता एवं पारलौकिकता के आवरण पड़े हों।
अब कोई स्थायी राजा नहीं, प्रत्येक पाँच वर्ष पर परिवर्तन हैं किन्तु जनता की, विशेषकर हिंदू जनता की मानसिकता वही है कि जो सिंहासन पर है, वही कर्त्ता धर्त्ता है, हमने चुन कर अपना काम कर दिया, अब उसकी बारी है! देखें तो यह सच भी है कि जनता द्वारा चुनी सरकार को जनहित काम करने चाहिये किन्तु केवल यही सच हो, ऐसा कैसे हो सकता है?
वस्तुत: होना यह चाहिये कि किसी भी जाति को स्वहित सतत जागृत रहना चाहिये, हिंदू जैसी सङ्कटस्थ जाति को तो रहना ही चाहिये। प्रकृति के यहाँ भले का भला मंत्र नहीं चलता, बली एवं कर्मठ का भला मंत्र चलता है। उसे किसी भी क्षेत्र में निर्वात सहन नहीं, कूड़ा कचरा भी लाना पड़े तो ला कर भर देती है! उसका रूप, उसकी गढ़न ही ऐसी है। वह अदिति भी है, दिति भी – देने वाली भी, न देने वाली भी तथा दिया हुआ छीनने वाली भी। संसार में जिस जाति ने इस मोटे सच को समझ लिया, तदनुसार कर्मठ हुई; वह विकसित राष्ट्र हुई। जो तामस को सतोगुण समझते हुये सोई रही, वह या तो नष्ट हुई या पतन के गर्त में चली गयी। भारत का जो सच है, समक्ष है।
यह नग्न सत्य है कि यहाँ की विशाल उत्तरी जनसंख्या समस्त प्राकृतिक संसाधनों के हेतु हुये भी आलसी, कलहप्रिय, स्वार्थी, धूर्त एवं कापुरुष है। आँकड़े देखें तो यह जनसंख्या ही भारत के पाँवों में बँधी मन्दार भार समान है जिसकी अल्प गुणवत्ता एवं अकर्मण्यता के कारण सकल भारतीय प्रगति के सूचकाङ्ग धराशायी बने रहते हैं।
इससे भी परे, कोढ़ में खाज के समान, इसकी ‘नौकरीपेशा’ ‘चाकरीप्रिय’ आत्महंता मानसिकता है जिसका शत्रुबोध समाप्त हो चुका है, वरन विषधर नाग को गले लगाने की जैसी तत्परता व जैसी उत्कट इच्छा भारतीय जन में पाई जाती है, ब्रह्माण्ड में दुर्लभ ही होगी। लोकतंत्र में तंत्र लोक से, गुणवत्ता लोक से, व्यवस्था लोक से, प्रगति लोक से, निर्माण व विनाश लोक से, स्वास्थ्य व रोग लोक से, शोक व उत्सव लोक से, सभी लोक से ही हैं। किसी देवलोक से इन्हें आयातित नहीं किया जा सकता।
निर्णय लोक को ही लेना होगा कि सब कुछ सरकार भरोसे छोड़ आगामी चुनावी अवसर पर उसे दण्डित करने की अपनी क्षुद्र अहंमन्यता को तुष्ट मात्र कर नाली में पड़े ही रहना है या लघु से लघु एवं दैनन्दिन स्तर पर भी अपनी सोच व अपने कर्म को सकारात्मक दिशा में प्रवृत्त कर अपनी स्थिति त्वरित सुधारनी है?
इसकी सिद्धि ऐंवे ही नहीं होनी, कृष्ण व यादवों की भाँति ही कर्मठ एवं नवोन्मेषी होना ही होगा –
नाधनो विद्यते तत्र क्षीणभाग्यो पि वा नर:
कृशो वा मलिनो वापि द्वारवत्याङ्कथञ्चन
हरिवंश का एक अर्थ ‘हरि की सन्तान’ भी होगा। आप ‘हरिवंश’ हैं भी? या केवल कीर्तनकल्याण में विश्वास रखते हैं?