Sundarkand सुंदरकांड पिछले भाग से आगे
{1}
हनुमान महाविनाश के समय की कालाग्निशिखा की भाँति लग रहे थे – मुमोच हनुमानग्निं कालानलशिखोपमम्॥ {2}
श्वसनेन च संयोगादतिवेगो महाबलः। कालाग्निरिव जज्वाल प्रावर्धत हुताशनः॥
प्रदीप्तमग्निं पवनस्तेषु वेश्मस्वचारयत्।
वायु का संयोग पा कर वह प्रबल आग बड़े वेग से आगे बढ़ने लगी और आहुति पा कर कालाग्नि के समान भभकती प्रज्ज्वलित हो उठी। पवन देव उस आग का घरों में प्रसार करने लगे। {3}
तानि काञ्चनजालानि मुक्तामणिमयानि च। भवनान्यवशीर्यन्त रत्नवन्ति महान्ति च॥
तानि भग्नविमानानि निपेतुर्वसुधातले । भवनानीव सिद्धानामम्बरात्पुण्यसंक्षये ॥
मुक्तामणि युक्त स्वर्ण जालियों से युक्त व रत्नसज्जित महान भवन व विमान (सततले भवन) टूट टूट धरा पर गिरने लगे। वे पुण्यक्षयी सिद्धों के अम्बर से गिरते भवनों के समान लग रहे थे। {4}
हनुमान ने भवनों से विचित्र हीरक, वैदूर्यमणि, चाँदी आदि को भवनों से पिघल पिघल कर टपकते व बहते देखा – वज्रविद्रुमवैदूर्यमुक्तारजतसंहितान्। विचित्रान्भवनाद्धातून् स्यन्दमानान्ददर्श सः॥
नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां तृणानां च यथा तथा। हनूमान्राक्षसेन्द्राणां वधे किंचिन्न तृप्यति॥
जिस प्रकार अग्नि सूखे काठ व तृणों को जला जला कर भी तृप्त नहीं होती उसी प्रकार हनुमान भी राक्षसनायकों का वध करते हुये तृप्त नहीं हो रहे थे अर्थात उन्हें मारते ही जा रहे थे। {5}
हुताशनज्वालसमावृता सा हतप्रवीरा परिवृत्तयोधा ।
हनूमतः क्रोधबलाभिभूता बभूव शापोपहतेव लङ्का॥
स सम्भ्रमत्रस्तविषण्णराक्षसां समुज्ज्वलज्ज्वालहुताशनाङ्किताम्।
ददर्श लङ्कां हनुमान्महामनाः स्वयम्भूकोपोपहतामिवावनिम्॥
आहुतियों के भोजन से तृप्त होती अग्नि द्वारा घिरी, हत और पराजित योद्धाओं से एवं हनुमान के क्रोध से अभिभूत लङ्का किसी शाप से आक्रांत लग रही थी। महामनस्वी हनुमान ने लङ्कापुरी को स्वयम्भू के कोप से नष्ट हुई धरा के समान देखा। अति प्रज्ज्वलित ज्वालाओं से अलङ्कृत हुताशन अग्नि द्वारा अङ्कित लङ्का के राक्षस भ्रमित हो त्रस्त एवं विषादग्रस्त हो गये थे। {6}
[55]
लङ्कां समस्तां सन्दीप्य लाङ्गूलाग्निं महाबलः। निर्वापयामास तदा समुद्रे हरिसत्तमः॥
सन्दीप्यमानां विध्वस्तां त्रस्तरक्षोगणां पुरीम्। आवेक्ष्य हनुमान् लङ्कां चिन्तयामास वानरः॥
अपनी पूँछ की आग से समस्त लङ्का को जला कर महाबली हरिश्रेष्ठ ने समुद्र में उसे बुझा दिया।
तस्याभूत्सुमहांस्त्रासः कुत्सा चात्मन्यजायत। लङ्कां प्रदहता कर्म किंस्वित्कृतमिदं मया॥
जलने से ध्वस्त हुई पुरी व संत्रस्त राक्षसों से भरी लङ्का को देखते हनुमान विचार करने लगे, महान त्रास और आत्मकुत्सा से भर उन्होंने स्वयं से कहा – लङ्कादहन कर दिया, मैंने यह कैसा कुत्सित कर्म कर दिया?
धन्यास्ते पुरुषश्रेष्ठा ये बुद्ध्या कोपमुत्थितम्। निरुन्धन्ति महात्मानो दीप्तमग्निमिवाम्भसा॥
वे महान जन धन्य हैं जो अपनी बुद्धि के प्रयोग द्वारा कोप की उठान को उसी प्रकार नियन्त्रित रखते हैं जैसे आग की बढ़त को पानी द्वारा नियंत्रित किया जाता है। {7}
मन में जो आशङ्का उठी थी, उसने शब्दरूप ले लिया। हनुमान स्वयं को धिक्कारते चले गये –
यदि दग्धा त्वियं लङ्का नूनमार्याऽपि जानकी। दग्धा तेन मया भर्तुर्हितं कार्यमजानता॥
यदर्थमयमारम्भस्तत्कार्यमवसादितम्। मया हि दहता लङ्कां न सीता परिरक्षिता॥
ईषत्कार्यमिदं कार्यं कृतमासीन्न संशयः। तस्य क्रोधाभिभूतेन मया मूलक्षयः कृतः॥
विनष्टा जानकी नूनं न ह्यदग्धः प्रदृश्यते। लङ्कायां कश्चिदुद्धेशस्सर्वा भस्मीकृता पुरी॥
यदि यह लङ्का भस्मीभूत हो चुकी है तो निश्चय ही आर्या जानकी भी … । उन्हें जला कर अपने स्वामी के कार्य का भी मैंने अनजाने ही नाश कर दिया। इसमें संशय नहीं कि एक छोटा सा रह गया कार्य मैंने पूरा किया किंतु क्रोध से अभिभूत हो मैंने तो मूल का ही नाश कर दिया! कुछ भी तो ऐसा नहीं दिखता जो जलने से रह गया हो, पूरी लङ्का राख हो गई है, निश्चित ही जानकी भी विनष्ट हो गई होंगी।
यदि तद्विहतं कार्यं मम प्रज्ञाविपर्ययात्। इहैव प्राणसंन्यासो ममापि ह्यद्य रोचते॥
मेरी प्रज्ञा के विपर्यय से यदि मेरा कार्य नष्ट हो गया है तो प्राणत्याग कर देना चाहिये, मुझे तो यही उचित लग रहा है।
(वाल्मीकि जी शब्द प्रयोग करते हैं – प्राणसंन्यास। मृत्यु हेतु संन्यास शब्द भी प्रयुक्त होता है। संन्यास लेने वाला मनुष्य अपने अंतिमसंस्कार कर के ही इस आश्रम में प्रवेश करता है।)
किमग्नौ निपताम्यद्य आहोस्विद्बडबामुखे। शरीरमाहो सत्त्वानां दद्मि सागरवासिनाम्॥
अभी के अभी अग्नि में कूद जाऊँ या बड़वाग्नि के मुख में कूद कर प्राणत्याग कर दूँ? या अपने शरीर को सागर में रहने वाले जंतुओं को अर्पित कर दूँ?
कथं हि जीवता शक्यो मया द्रष्टुं हरीश्वरः। तौ वा पुरुषशार्दूलौ कार्यसर्वस्वघातिना॥
मया खलु तदेवेदं रोषदोषात्प्रदर्शितम्। प्रथितं त्रिषु लोकेषु कपित्वमनवस्थितम्॥
सारा काम बिगाड़ कर मैं कैसे वानरराज सुग्रीव को अपना जीवित मुँह दिखा सकता हूँ? उन दो नरशार्दूलों को कैसे देख पाऊँगा?
अपने रोषप्रदर्शन के दोष के कारण मैंने कपिसुलभ अस्थिर आचरण दिखाया तथा उसकी तीनों लोकों में पुष्टि कर दी!
हनुमान स्वयं को धिक्कारने लगे –
धिगस्तु राजसं भावमनीशमनवस्थितम्। ईश्वरेणापि यद्रागान्मया सीता न रक्षिता॥
मुझे धिक्कार है जो उत्तेजित हो अनियंत्रित चञ्चल निर्णय ले बैठा। राग के वशीभूत हो मैं सीता की रक्षा न कर सका यद्यपि उसमें समर्थ था।
विनष्टायां तु सीतायां तावुभौ विनशिष्यतः। तयोर्विनाशे सुग्रीवः सबन्धुर्विनशिष्यति॥
एतदेव वचश्श्रुत्वा भरतो भ्रातृवत्सलः। धर्मात्मा सहशत्रुघ्नः कथं शक्ष्यति जीवितुम्॥
इक्ष्वाकुवंशे धर्मिष्ठे गते नाशमसंशयम्। भविष्यन्ति प्रजास्सर्वाश्शोकसन्तापपीडिताः॥
तदहं भाग्यरहितो लुप्तधर्मार्थसङ्ग्रहः। रोषदोषपरीतात्मा व्यक्तं लोकविनाशनः॥
सीता का नाश जान दोनों राजकुमार भी प्राण त्याग देंगे। उनके नष्ट होने से बंधु बांधवों सहित सुग्रीव भी प्राण त्याग देंगे। यह सब सुन कर भ्रातृवत्सल धर्मात्मा भरत शत्रुघ्न सहित कैसे जीवित रह पायेंगे? इस प्रकार जब धर्मिष्ठ इक्ष्वाकुवंश नष्ट हो जायेगा तो इसमें संशय नहीं कि समस्त प्रजा शोक और संताप से पीड़ित हो जायेगी। मुझ अभागे ने धर्म व अर्थ की रक्षा करने में असफलता पाई है। स्पष्ट है कि रोष के दोष से व्याप्त हो मैंने लोक के विनाश का ही काम किया है!
(अज्ञानता वश कुछ बहुत ही अनर्थ हो जाने से मनस्वी व्यक्ति की मानसिकता कैसे हानि सम्भावना को अतार्किक स्तर तक पहुँचा देती है, इस मनोवैज्ञानिक सचाई को वाल्मीकि जी ने हनुमान के माध्यम से दर्शाया है।)
इति चिन्तयतस्तस्य निमित्तान्युपपेदिरे। पूर्वमप्युपलब्धानि साक्षात्पुनरचिन्तयत्॥
इस प्रकार अपने को दोष देते मन ही मन परम संतप्त हनुमान को तब पुराने शुभ शकुन पुन: दिखने लगे। उन्हें साक्षात होता पा हनुमान पुन: विचार करने लगे।
अग्निशिखा समान पवित्र सीता का स्वरूप उनके संतप्त मानस को सम्बल देता चला गया –
अथवा चारुसर्वाङ्गी रक्षिता स्वेन तेजसा। न नशिष्यति कल्याणी नाग्निरग्नौ प्रवर्तते॥
न हि धर्मात्मनस्तस्य भार्याममिततेजसः। स्वचारित्राभिगुप्तां तां स्प्रष्टुमर्हति पावकः॥
नूनं रामप्रभावेण वैदेह्यास्सुकृतेन च। यन्मां दहनकर्मायं नादहद्धव्यवाहनः॥
त्रयाणां भरतादीनां भ्रातृणां देवता च या। रामस्य च मन: कान्ता सा कथं विनशिष्यति॥
यद्वा दहनकर्मायं सर्वत्र प्रभुरव्ययः। न मे दहति लाङ्गूलं कथमार्यां प्रधक्ष्यति॥
सम्भव है कि सर्वाङ्गसुंदरी सीता निज तेज से ही सुरक्षित रह गई हों। वह कल्याणी नष्ट नहीं होंगी, आग आग को नष्ट कर सकती है भला! जो स्वयं के चरित्र से ही पावन है, जो अमिततेजस्वी धर्मात्मा की भार्या है, उसका स्पर्श पावक नहीं कर सकता।
हवि का भक्षण करने वाले अग्नि ने मुझे नहीं जलाया। निश्चय ही राम के प्रभाव और वैदेही के सुकर्मों के पुण्य प्रताप के कारण अग्नि ने मुझे नहीं जलाया।
भरतादि तीनों भाइयों हेतु जो देवता है, जो राम के मन की कांता है, उसका कैसे विनाश हो सकता है? नहीं हो सकता।
यदि ऐसा नहीं है तो सर्वत्र दहन सक्षम जो कभी असफल नहीं होते, वह अग्नि मेरी पूँछ कैसे नहीं जला पाये? (जो मेरी पूँछ तक का बाल भी बाँका नहीं कर पाये) वे अग्नि आर्या सीता का दहन कैसे कर पायेंगे!{8}
तपसा सत्यवाक्येन अनन्यत्वाच्च भर्तरि। अपि सा निर्दहेदग्निं न तामग्निः प्रधक्ष्यति॥
स तथा चिन्तयंस्तत्र देव्या धर्मपरिग्रहम्। शुश्राव हनुमान्वाक्यं चारणानां महात्मनाम्॥
अहो खलु कृतं कर्म दुष्करं हि हनूमता।अग्निं विसृजताऽभीक्ष्णं भीमं राक्षसवेश्मनि॥ {9}
दग्धेयं नगरी सर्वा साट्टप्राकारतोरणा। जानकी न च दग्धेति विस्मयोऽद्भुत एव नः॥
स निमित्तैश्च दृष्टार्थैः कारणैश्च महागुणैः। ऋषिवाक्यैश्च हनुमानभवत्प्रीतमानसः॥
ततः कपिः प्राप्तमनोरथार्थस्तामक्षतां राजसुतां विदित्वा।
प्रत्यक्षतस्तां पुनरेव दृष्टवा प्रतिप्रयाणाय मतिं चकार॥
अपने तप, सत्य व पति के प्रति अनन्य समर्पण की शक्ति से सीता तो अग्नि का भी दहन कर दें, अग्नि उन्हें नहीं जला सकती।
यह सब सोचते हुये ही हनुमान को महान चारणों द्वारा देवी सीता के धर्माचरण की शक्ति की महिमा बताते वाक्य सुनाई पड़े। वे कह रहे थे – ओह! हनुमान ने राक्षसों के निवासों में आग लगाने का दुष्कर कार्य कर दिखाया है! लङ्कापुरी अट्टालिकाओं, तोरणों और प्राकारों सहित जला दी गयी है किंतु यह अद्भुत विस्मयकारी है कि जानकी दग्ध नहीं हुई हैं। अनेक बार के प्रत्यक्ष अनुभव किये हुये शुभ शकुनों, महा गुणदायक कारणों तथा ऋषिवाक्य द्वारा देवी सीता का जीवित बच जाना जान कर हनुमान को बड़ी प्रसन्नता हुई।
राजकुमारी सीता को कोई क्षति नहीं पहुँची है, यह जान कर कपिवर हनुमान ने अपना मनोरथ सफल समझा और पुन: उनका प्रत्यक्ष दर्शन करके लौट जाने का विचार किया।
(56)
ततस्तु शिंशपामूले जानकीं पर्युपस्थिताम्। अभिवाद्याब्रवीद्दिष्ट्या पश्यामि त्वामिहाक्षताम्॥
तब शिंशपा वृक्ष के नीचे उसके मूल पर स्थित जानकी के पास पहुँच कर हनुमान ने उनका अभिवादन किया और कहा, यह मेरा सौभाग्य है कि आप को अक्षत देख रहा हूँ।
ततस्तं प्रस्थितं सीता वीक्षमाणा पुनः पुनः। भर्तृस्नेहान्वितं वाक्यं हनुमन्तमभाषत॥
पति के स्नेह में डूबी सीता ने प्रस्थान को उद्यत हनुमान को बारम्बार देखा और कहा –
काममस्य त्वमेवैकः कार्यस्य परिसाधने। पर्याप्तः परवीरघ्न यशस्यस्ते बलोदयः॥
बलैस्तु सङ्कुलां कृत्वा लङ्कां परबलार्दनः। मां नयेद्यदि काकुत्स्थस्तत्तस्य सदृशं भवेत्॥
तद्यथा तस्य विक्रान्तमनुरूपं महात्मनः। भवत्याहवशूरस्य तथा त्वमुपपादय॥
हे शत्रहंता! तुम वास्तव में अकेले ही मेरा कार्य साधने में अर्थात मुझे यहाँ से ले जाने में सक्षम हो (परंतु) उससे तुम्हारे बल का यश बढ़ेगा (राम का नहीं) । यदि शत्रुमर्दन काकुत्स्थ राम लङ्का आते हैं तथा इसे अपने बल से जीत कर यहाँ से मेरा उद्धार करते हैं तो यह उन विक्रांत के योग्य कर्म होगा, उनका यश बढ़ेगा। तुम्हें ऐसा करना चाहिये जिससे युद्धवीर महात्मा राम का उनके योग्य पराक्रम प्रकट हो।
असहनीय दारुण वियोग की स्थिति में भी अपनी नहीं, पति के यश की चिंता थी, सीता का उदात्त चरित्र अपनी पूरी भव्यता में यहाँ दिखता है। चरित्र की परीक्षा सङ्कट के समय ही होती है।
तदर्थोपहितं वाक्यं प्रश्रितं हेतुसंहितम्। निशम्य हनुमांस्तस्या वाक्यमुत्तरमब्रवीत्॥
उनकी अर्थयुक्त और विशेष अभिप्राय से युक्त बात सुन कर हनुमान ने उत्तर दिया –
क्षिप्रमेष्यति काकुत्स्थः हर्यृक्षप्रवरैर्वृतः। यस्ते युधि विजित्यारीन् शोकं व्यपनयिष्यति॥
श्रेष्ठ वानर एवं ऋक्ष वीरों के साथ काकुत्स्थ राम शीघ्र ही आयेंगे। वह युद्ध में विजयी होंगे तथा आप के शोक को दूर करेंगे।
एवमाश्वास्य वैदेहीं हनुमान् मारुतात्मजः। गमनाय मतिं कृत्वा वैदेहीमभ्यवादयत्॥
पति की स्मृति में विदेह सी हो गई वैदेही को मारुतात्मज हनुमान ने इस प्रकार आश्वस्त किया और अभिवादन कर वहाँ से प्रस्थान का निर्णय लिया।
ततस्स कपिशार्दूलः स्वामिसन्दर्शनोत्सुकः। आरुरोह गिरिश्रेष्ठमरिष्टमरिमर्दनः॥
तब अपने स्वामी के दर्शन को उत्सुक वह अरिमर्दन कपिशार्दूल अरिष्ट नाम के उत्तम गिरि पर चढ़ गये।
टिप्पणी :
(क) श्रीराम के एक पूर्वज ककुत्स्थ बड़े प्रतापी राजा हुये। देवासुर सङ्ग्राम में इंद्र उनके लिये कुकुद धारी बैल बन गये थे जिस पर आरूढ़ हो कर ककुत्स्थ ने असुरों को पराजित किया था। जिस पर एक पूर्वज रघु के नाम से श्रीराम को राघव कहा जाता है, उसी प्रकार ककुत्स्थ से काकुत्स्थ भी।
(ख) सुंदरकाण्ड में कुछस श्लोकों का शब्दश: दुहराव भी मिलता है तथा लंकादहन प्रकरण में अतिशयोक्ति एवं पुनरुक्तिपरक क्षेपकों की भरमार है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कवियों ने अपनी प्रतिभा दर्शाने हेतु इसमें बहुत से अंश जोड़े। एक उदाहरण दहन के समय विभिन्न राक्षसों के भवनों का वर्णन एवं विभीषण का घर नहीं जलाने वाला है। हनुमान को यह ज्ञात ही नहीं था कि कौन किसका घर है। स्पष्टत: यह परवर्ती भक्त कवियों द्वारा जोड़ा गया प्रकरण है। अच्छा है कि पुरातन पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध थीं तथा शोधित पाठ निश्चित करते समय ये सारे प्रसंग क्षेपक ही पाये गये – परवर्ती।
वे अंश जो पुरातन पाण्डुलिपियों में नहीं होने के कारण शोधित पाठ से हटा दिये गये :
{1} गृहाद्गृहं राक्षसानामुद्यानानि च वानरः। वीक्षमाणो ह्यसन्त्रस्तः प्रासादांश्च चचार सः॥
अवप्लुत्य महावेगः प्रहस्तस्य निवेशनम्। अग्निं तत्र स निक्षिप्य श्वसनेन समो बली॥
ततोऽन्यत्पुप्लुवे वेश्म महापार्श्वस्य वीर्यवान्।
{2} वज्रदंष्ट्रस्य च तदा पुप्लुवे स महाकपिः। शुकस्य च महातेजास्सारणस्य च धीमतः॥5.54.10॥
तथा चेन्द्रजितो वेश्म ददाह हरियूथपः। जम्बुमाले स्सुमालेश्च ददाह भवनं ततः॥5.54.11॥
रश्मिकेतोश्च भवनं सूर्यशत्रोस्तथैव च। ह्रस्वकर्णस्य दंष्ट्रस्य रोमशस्य च रक्षसः॥5.54.12॥
युद्धोन्मत्तस्य मत्तस्य ध्वजग्रीवस्य रक्षसः। विद्युज्जिह्वस्य घोरस्य तथा हस्तिमुखस्य च॥5.54.13॥
करालस्य पिशाचस्य शोणिताक्षस्य चैव हि। कुम्भकर्णस्य भवनं मकराक्षस्य चैव हि॥5.54.14॥
यज्ञशत्रोश्च भवनं ब्रह्मशत्रोस्तथैव च। नरान्तकस्य कुम्भस्य निकुम्भस्य दुरात्मनः॥5.54.15॥
वर्जयित्वा महातेजा विभीषणगृहं प्रति। क्रममाणः क्रमेणैव ददाह हरिपुङ्गवः॥5.54.16॥
तेषु तेषु महार्हेषु भवनेषु महायशाः। गृहेष्वृद्धिमतामृद्धिं ददाह स महाकपिः॥5.54.17॥
सर्वेषां समतिक्रम्य राक्षसेन्द्रस्य वीर्यवान्। आससादाथ लक्ष्मीवान् रावणस्य निवेशनम्॥5.54.18॥
ततस्तस्मिन्गृहे मुख्ये नानारत्नविभूषिते। मेरुमन्दरसङ्काशे सर्वमङ्गळशोभिते॥5.54.19॥
प्रदीप्तमग्निमुत्सृज्य लाङ्गूलाग्रे प्रतिष्ठितम्। ननाद हनुमान्वीरो युगान्तजलदो यथा॥5.54.20॥
{3} अभूच्छ्वसनसंयोगादतिवेगो हुताशनः॥5.54.22॥
{4} संजज्ञे तुमुलश्शब्दो राक्षसानां प्रधावताम्। स्वगृहस्य परित्राणे भग्नोत्साहोर्जितश्रियाम्॥5.54.24॥
नूनमेषोऽग्निरायातः कपिरूपेण हा इति। क्रन्दन्त्यस्सहसा पेतुः स्तनन्धयधराः स्त्रियः॥5.54.25॥
काश्चिदग्निपरीतेभ्यो हर्मेभ्यो मुक्तमूर्धजाः। पतन्त्यो रेजिरेऽभ्रेभ्यस्सौदामन्य इवाम्बरात्॥5.54.26॥
{5} क्वचित्किंशुकसङ्काशाः क्वचिच्छाल्मलिसन्निभाः॥5.54.29॥ क्वचित्कुङ्कुमसङ्काशाश्शिखा वह्नेश्चकाशिरे।
हनूमता वेगवता वानरेण महात्मना। लङ्कापुरं प्रदग्धं तद्रुद्रेण त्रिपुरं यथा॥5.54.30॥
ततस्तु लङ्कापुरपर्वताग्रे समुत्थितो भीमपराक्रमोऽग्निः। प्रसार्य चूडावलयं प्रदीप्तो हनूमता वेगवता विसृष्टः॥5.54.31॥
युगान्तकालानलतुल्यवेग स्समारुतोऽग्निर्ववृधे दिविस्पृक्। विधूमरश्मिर्भवनेषु सक्तो रक्षश्शरीराज्यसमर्पतार्चिः॥5.54.32॥
आदित्यकोटीसदृशस्सुतेजा लङ्कां समस्तां परिवार्य तिष्ठन्। शब्दैरनेकैरशनिप्ररूढैर्भिन्दन्निवाण्डं प्रबभौ महाग्निः॥5.54.33॥
तत्राम्बरादग्निरतिप्रवृद्धो रूक्षप्रभः किंशुकपुष्पचूडः। निर्वाणधूमाकुलराजयश्च नीलोत्पलाभाः प्रचकाशिरेऽभ्राः॥5.54.34॥
वज्री महेन्द्रस्त्रिदशेश्वरो वा साक्षाद्यमो वा वरुणोऽनिलो वा। रुद्रोऽग्निरर्को धनदश्च सोमो न वानरोऽयं स्वयमेव कालः॥5.54.35॥
किं ब्रह्मणस्सर्वपितामहस्य सर्वस्य धातुश्चतुराननस्य। इहाऽऽगतो वानररूपधारी रक्षोपसंहारकरः प्रकोपः॥5.54.36॥
किं वैष्णवं वा कपिरूपमेत्य रक्षोविनाशाय परं सुतेजः। अनन्तमव्यक्तमचिन्त्यमेकं स्वमायया साम्प्रतमागतं वा॥5.54.37॥
इत्येवमूचुर्बहवो विशिष्टा रक्षोगणास्तत्र समेत्य सर्वे। सप्राणिसङ्घां सगृहां सवृक्षां दग्धां पुरीं तां सहसा समीक्ष्य॥5.54.38॥
ततस्तु लङ्का सहसा प्रदग्धा सराक्षसा साश्वरथा सनागा। सपक्षिसङ्घा समृगा सवृक्षा रुरोद दीना तुमुलं सशब्दम्॥5.54.39॥
हा तात हा पुत्रक कान्त मित्र हा जीवितं भोगयुतं सुपुण्यम्। रक्षोभिरेवं बहुधा ब्रुवद्भि श्शब्दः कृतो घोरतरस्सुभीमः॥5.54.40॥
{6} भङ्क्त्वा वनं पादपरत्नसङ्कुलं हत्वा तु रक्षांसि महान्ति संयुगे। दग्ध्वा पुरीं तां गृहरत्नमालिनीं तस्थौ हनूमान्पवनात्मजः कपिः॥5.54.43॥
त्रिकूटशृङ्गाग्रतले विचित्रे प्रतिष्ठितो वानरराजसिंहः। प्रदीप्तलाङ्गूलकृतार्चिमाली व्यराजताऽऽदित्य इवांशुमाली॥5.54.44॥
ततस्तु तं वानरवीरमुख्यं महाबलं मारुततुल्यवेगम्। महामतिं वायुसुतं वरिष्ठं प्रतुष्टुवुर्देवगणाश्च सर्वे ॥5.54.46॥
भङ्क्त्वा वनं महातेजा हत्वा रक्षांसि संयुगे। दग्ध्वा लङ्कापुरीं रम्यां रराज स महाकपिः॥5.54.47॥
तत्र देवास्सगन्धर्वास्सिद्धाश्च परमर्षयः। दृष्ट्वा लङ्कां प्रदग्धां तां विस्मयं परमं गताः॥5.54.48॥
तं दृष्ट्वा वानरश्रेष्ठं हनुमन्तं महाकपिम्। कालाग्निरिति सञ्चिन्त्य सर्वभूतानि तत्रसुः॥5.54.49॥
देवाश्च सर्वे मुनिपुङ्गवाश्च गन्धर्वविद्याधरनागयक्षाः। भूतानि सर्वाणि महान्ति तत्र जग्मुः परां प्रीतिमतुल्यरूपाम्॥5.54.50॥
{7) क्रुद्धः पापं न कुर्यात्कः क्रुद्धो हन्याद्गुरूनपि। क्रुद्धः परुषया वाचा नरस्साधूनधिक्षिपेत्॥5.55.4॥
वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित्। नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नावाच्यं विद्यते क्वचित्॥5.55.5॥
यस्समुत्पतितं क्रोधं क्षमयैव निरस्यति। यथोरगस्त्वचं जीर्णां स वै पुरुष उच्यते॥5.55.6॥
धिगस्तु मां सुदुर्बुद्धिं निर्लज्जं पापकृत्तमम्। अचिन्तयित्वा तां सीतामग्निदं स्वामिघातुकम्॥5.55.7॥
{8} पुनश्चाचिन्तयत्तत्र हनुमान्विस्मितस्तदा। हिरण्यनाभस्य गिरेर्जलमध्ये प्रदर्शनम्॥5.55.27॥
{9} प्रपलायितरक्षः स्त्रीबालवृद्धसमाकुला। जनकोलाहलाध्माता क्रन्दन्तीवाद्रिकन्दरै: ॥5.55.31॥
लेख में इनके स्थान इनके क्रमाङ्क द्वारा दर्शाये गये हैं।