सूर्यास्त सोनाटा Sunset Sonata
– अटुक्वेइ ओकइ Atukwei Okai,
घाना, अफ्रीका
… धुँधलाते दिन को चमकने दो,
… साँझ के तूर्य बजने दो,
… गलते पर्वतों को जाने दो,
… पर साँझ को बोने दो,
निज आत्मा में अकेली एवं एकांतिक
अभिलाषा का नभनिंदित बीज, रात हेतु
जो जने अवश्य मुझमें वह अग्नि-कामना
तुम्हारे लाड़न को,
कि मुझे उठना चाहिये दलने को वह रीति
जो तुम्हारी माटी को करती विलग मेरे रोपण से
और कर देती हमें उस अश्व पर आरूढ़
जिसका शिथिल पड़ती भूमि पर पद आधार
प्रतिध्वनित करता है उस क्रंदन को
कि एक कुम्हलाते शिशु के आँसू की कोई पूछ नहीं –
… ओ, साँझ को बोने दो,
… गलते पर्वतों को जाने दो,
… साँझ के तूर्य बजने दो,
… धुँधलाते दिन को चमकने दो,
… साँझ के तूर्य बजने दो,
… गलते पर्वतों को जाने दो,
… किंतु साँझ को बोने दो,
अपनी आत्मा में वह भू-अनुमोदित,
प्राकार-हाड़
निश्चित कर दे जो तुम्हारी आत्मा को
लौहकवचयुक्त विरुद्ध
दण्ड और पत्थर दोनों के,
और कर दे तुम्हारे पञ्जे कठोर
कि यात्रा है आसन्नसंक्रमित
शत नरकों से
ढूँढ़ते रहो हृदय में मानवता
जब कि पड़ रहे हों इसके द्वार
अर्बुद प्रहार
और निर्दय कररुह उद्वेलित हों अग्रसर
सब ओर से
जब तक कि क्रूर चीखें
इसके अंतस्थल तक हों परिपक्व :
हठपूर्वक थिर डटे रहो
अरुणोदय को गलहस्त करते पाषाणों के समक्ष
हठपूर्वक थिर डटे रहो
प्रात को अपङ्ग करते पाषाणों के समक्ष
हठपूर्वक थिर डटे रहो
सूर्य पर धावा बोलते पाषाणों के समक्ष
हठपूर्वक थिर डटे रहो
मनुष्य पर घात लगाते पाषाणों के समक्ष –
… ओ, साँझ को बोने दो,
… गलते पर्वतों को जाने दो,
… साँझ के तूर्यों को बजने दो,
… धुँधलाते दिन को चमकने दो,
शब्द : तूर्य – तुरही; दलना – पीस कर चूर चूर करना; लाड़न – दुलार; प्राकार – विशाल भवन, अटारी; कररुह – पञ्जे; गलहस्त करते – गला घोंटते; पाषाण – पत्थर
घाना के अटुक्वेइ ओकइ उस वाचिक परम्परा के कवि हैं जिसकी तुलना घूम घूम कर रामायण, महाभारत एवं पुराण सुनाती कुशीलव एवं सूत धाराओं से ले कर घुमंतू जोगियों तक की गायन परम्परा से की जा सकती है। श्रोताओं से सीधे संवाद स्थापित करते ओकइ मञ्चीय परम्परा से नहीं आते।
इनकी कविताओं में गँवई घाना का उत्साह है, उनकी बोली बानी है तथा उन्हीं की लय भी है। कविता को अभिव्यक्ति का पुरा-नूतन संस्कार करने के लिये जाने जाने वाले अटुक्केइ की कविताओं का शब्द चयन बहुत ही सावधान है जिसके कारण वे सीधे वहाँ की देसी जनता के मन में उतर जाती हैं।
अटुक्केइ भाषिक शब्द शुद्धता के बहुत मुखर आग्रही रहे तथा भाषिक प्रदूषण के विरुद्ध भी।
इनकी कविताओं में विराम का प्रयोग भी अनूठा रहता है। उदाहरण के लिये इस कविता का अंत भी अर्द्धविराम से है मानो नैरंतर्य में आगे अभी और भी हो। उठान की कोई सीमा कहाँ होती है ! उनकी कविताओं की उठान मन के साथ अनुनादित हो ऊँचे ले जाती है, बहुत ऊँचे। प्रस्तुत कविता नाइजीरिया के गृहयुद्ध के समय बंदी बनाये गये वोले सोयिङ्का के सम्मान में रची गयी थी।