कभी एक रोचक सैद्धांतिक अध्ययन में सम्पूर्ण विश्व को एक समवाय मानते हुये उसका शताधिक चरों के आधार पर आज से लगभग ४० वर्ष पूर्व गणितीय विश्लेषण किया गया था। चरों की संख्या, परिकल्पनाओं एवं निष्कर्ष पर प्रश्न उठ सकते हैं किन्तु महत्त्वपूर्ण यह है कि आधुनिक ज्ञान विज्ञान के उपयोग द्वारा ऐसा विश्लेषण किया गया था। निष्कर्ष भी रोचक थे :
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यदि सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो २०२०-२५ ग्रे. में संसार का अस्सी प्रतिशत नष्ट हो जायेगा, जीवधारी, मानव संरचनायें, संस्कृति आदि सबका।
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यदि रोकथाम के सफल उपाय किये गये तो आपदा टल तो जायेगी किन्तु २०५०-५५ ग्रे. में सम्पूर्ण विनाश होगा – प्रलय जैसा।
अध्ययन मिल नहीं रहा तो स्मृति के आधार पर लिखने के कारण मूल से अंतर हो सकते हैं किन्तु मोटा मोटी बातें यही थीं।
२०२० बीतने वाला है तथा अस्सी प्रतिशत विनाश की आशंका नहीं दिख रही किंतु हिंस्र व आक्रामक मतावलम्बियों के कारण उत्पन्न हुई समस्यायें अवश्य जटिलतर होती जा रही हैं। गति मंद है और धीमे धीमे गरम होते पानी में पकती हुई मछली की भाँति लोग अभ्यस्त हो रहे हैं, इस कारण ‘पता नहीं चल रहा’। २०५० अभी दूर है, कुछ कहा नहीं जा सकता ।
इस प्रकार के प्रतिरूप अध्ययन अभियांत्रिकी एवं उच्च सांख्यिकी आदि में होते रहते हैं जिनकी परास सीमित होती है तथा जिनके चर चयन पर प्रश्न भी नहीं किये जा सकते। उनके निष्कर्ष साङ्केतिक रूप से उपयोगी भी होते हैं।
अब पुराणों को देखें ।
पुराणों का प्रलय प्रतिरूप विशुद्ध रूप से गणितीय है । मानव वर्षों से होते हुये ब्रह्मा के परार्द्ध, द्विपरार्द्ध, विष्णु के शयन, नैमित्तिक आदि तीन प्रकार के प्रलय, मनु, मन्वन्तर, युग, युगसंधि आदि आदि समस्त पूर्णत: गणितीय बंध में हैं जिनमें सूर्य की अयनादि गतियों का, नाक्षत्रिक प्रेक्षणों का भी समावेश है।
निरन्तर ह्रासमान समाज में अपने अध्ययन, अनुमान एवं निष्कर्षों के आधार पर विधि विधान समायोजनों के साथ एक गतिशील प्रक्रिया जो कि शास्त्रबद्ध है; पुराण अपने समकालीन सभ्यताओं से जाने कितने योजन आगे दिखते हैं। यह एक बहुत ही उन्नत एवं जीवन्त संस्कृति का गुण है।
परिणाम क्या हुये?
यह प्रश्न स्वत: ही आधुनिक शिक्षा पद्धति के ‘उत्पाद’ जन के मन में आता है। इस प्रश्न में नकार एवं निषेध अन्तर्निहित रहते हैं। ऐसे जन दीर्घजीविता को भूल जाते हैं, नैरन्तर्य को भूल जाते हैं, सम्पूर्ण मानवता को प्रदत्त अवदान भूल जाते हैं, पुरखे तो उन्हें महामूर्ख लगते ही हैं … भूलना कहना ठीक नहीं होगा, वह तो तब होगा जब ज्ञान हो, बताया गया हो। वे जानते ही नहीं! उन्हें बताया ही नहीं गया। संक्षेप में कहें कि उन्हें संस्कारित ही नहीं किया गया।
दूसरी समस्या अपने सँकरे घेरे में निज केंद्रित विश्लेषण की भी होती है जिसकी परिणति ऐसे प्रश्नों में भी होती है :
- क्या बुरा हो जायेगा जो समस्त भारत की जनसंख्या मतान्तरित हो जायेगी?
- क्या बुरा हो जायेगा यदि भारत टुकड़े टुकड़े हो कुछ सौ देशों में बचा रह जायेगा?
लोग तो तब भी रहेंगे ही। पाकिस्तान या अन्य मतान्तरित देश हैं तो!- सनातनी बने रहने में ऐसा क्या विशेष है जो कुछ लोग इतना कोलाहल मचा रखे हैं?
- क्या हममें बुराइयाँ नहीं थीं या हैं? सब एक जैसे हैं।
एक बात और ध्यान देने की है कि ऐसे प्रश्न उस पट्टी से ही अधिक आते हैं जो कभी आर्यावर्त, ब्रह्मावर्त आदि आदि थी। यह पट्टी मुख्य भारत भूमि की सबसे अल्प नवोन्मेषी, अल्प उद्योगी, महा अहंकारी, सर्व स्वार्थी एवं गुणवत्ताहीन सघन जनसंख्या को अपने में समेटे हुये है। अध्ययन नहीं, साहस नहीं, थेथरई एवं बकलोलई तत्त्व यहाँ प्रधान हैं।
वे जन स्वाँग तो बहुत अच्छा करते हैं किन्तु यह विचार तक नहीं करते कि उनके प्रश्न तो संसार के प्रत्येक देश पर लागू होते हैं। वैश्विक नागरिक होने का नारा लगाते वे किसी चीनी, किसी जापानी या किसी रूसी से वैसे प्रश्न करने का साहस तक नहीं कर सकते क्यों कि जो उत्तर मिलेंगे वे सुरक्षात्मक बने सामान्य भारतीय जन के उत्तरों की अपेक्षा बहुत ही आक्रामक होंगे।
दोष कहाँ है?
दोष शिक्षा एवं संस्कार पद्धति के हैं, गुरुओं के हैं, अध्यापकों के हैं, अभिभावकों के हैं। हमने सब कुछ विद्यालयों पर छोड़ रखा है, अर्थसाध्य ‘नाम बड़े दरसन को थोरो’ विद्यालयों पर ही समस्त नैतिकता, आदर्श, संस्कार आदि का दायित्त्व है, हम वर्ष में लाख रूपये शुल्क जो देते हैं !
अन्तिम बार आप ने अपने बच्चे को जो कि किशोर भी हो सकता है, कब ‘अच्छी बातें’ बताईं? पीढ़ियों के बीच जो संवादहीनता है, जो निर्वात है, उसे सांस्कृतिक आक्रमण का कचरा भर रहा है।
संस्कारों की बातें तक करना पिछड़ापन हो चला है। न भूलें कि मनुष्य उनसे ही मनुष्य होता है। न भूलें कि संरचना मे एक भाँति के होते हुये भी प्राचीन भारत में राक्षस, गंधर्व, नाग, यक्ष आदि को मनुज ‘मनुष्य’ से भिन्न मानने की परिपाटी रही जिसके कि जाने कितने निहितार्थ थे। विचार करें तथा संवादहीनता समाप्त करें, बच्चों को ‘अच्छी बातें’ बतायें।
Have-talks-with-your-children!