पाँच दिनों का पर्व समुच्चय – धन त्रयोदशी, रूप चतुर्दशी, दीपावली, प्रतिपदा (परुवा, पड़वा) एवं यम द्वितीया। आज मध्य दिवस है, प्रकाश पर्व। युगों युगों से चले आ रहे ये पर्व समुच्चय शक्रमख (इन्द्रयज्ञ) के स्थान पर नवोन्मेषी गिरियज्ञ (गोवर्द्धन पूजा) के साथ जुड़ कर समाज के विविध वर्गों के बीच एक अद्भुत एकता या कह लें कि परस्पर निर्भरता को पुष्ट करते हैं। वर्ष का नाम वर्षा ऋतु से है, जो कभी नववर्ष की ऋतु होती थी। गुजरात में ये दिन नववर्ष के रूप में ही मनाये जाते हैं।
वर्षा ऋतु के पश्चात समाज के समस्त वर्गों के उद्योग अभियान का श्रीगणेश इन पर्वों से होता है जिनके केन्द्र में अर्थ अर्थात श्री लक्ष्मी रहती हैं। अर्थ की महत्ता किसी से कभी छिपी नहीं रही किन्तु यहाँ इन पर्वों के माध्यम से विविध वर्गों के मध्य सन्तुलन का आयोजन होता है। निरन्तर प्रवाही काल में कभी कृषिकर्मियों के निषेध में गोपालकों द्वारा आयोजित गिरियज्ञ (पर्वत पूजा) आगे चल कर पशु केंद्रित कृषि समाज का महत आयोजन हो गया जो समस्त राष्ट्र की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन चुका था।
यह पर्व नवोन्मेष को प्रेरित करना चाहिये, अन्यथा श्री तो चञ्चला हैं, जहाँ सुविधा होगी, चली जायेंगी। आवश्यक नहीं कि नवोन्मेष बहुत बृहद स्तर का हो, जीवन को पग पग नवोन्मेषी होना चाहिये। श्री को मात्र धन नहीं, अर्थ समझें, जीवन का अर्थ। जीवन की अर्थसिद्धि हेतु तत्पर हों, अप्रतिहत उद्योगी बनें। निश्चित नीति के साथ श्री, विजय एवं विभूति प्राप्ति के पथ पर अग्रसर हों।
आज यह अंक समर्पित करने के साथ साथ मघा प्रबन्धन समस्त पाठकों की श्रीवृद्धि हेतु मङ्गल कामना करता है।