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सुभाषितानि (विविध)
नाम्भोधिरर्थितामेति सदाम्भोभिश्च पूर्यते ।
आत्मा तु पात्रतां नेय: पात्रमायान्ति संपद: ॥सागर जल के लिये भिक्षा नही मांगता तो भी सदैव जल से भरा रहता है। स्वयं को योग्य (पात्र) बना लेने पर सम्पदा पास आ जाती है।
यो यमर्थं प्रार्थयते यदर्थं घटतेऽपि च ।
अवश्यं तदवाप्नोति न चेच्छ्रान्तो निवर्तते ॥यदि कोई (मनुष्य) कुछ चाहता है एवं उसके लिये अथक प्रयत्न करता है तो वह उसे प्राप्त करके ही रहता है।
योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका ।
आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति ॥मन्द गति से चलती हुई चींटी भी हजार योजन (की दूरी) चल लेती है, परन्तु बिना चले तो वैनतेय गरुड़ (जिनकी गति जग प्रसिद्ध है) भी एक पग आगे नहीं बढ़ सकते।
अप्रकटीकॄतशक्ति: शक्तोपि जनस्तिरस्क्रियांलभते,
निवसन्नन्तर्दारुणिलङ्घ्यो विनर्नतु. ज्वलित: ॥शक्ति होते हुये भी उसे प्रकट न करने पर मनुष्य तिरस्कृत होता है। लकड़ी उपेक्षित पड़ी रहती है किन्तु वही आग पकड़ ले तो उससे सब भय खाते हैं।
विक्लवो वीर्यहीनो य: स दैवमनुवर्तते ।
वीरा: संभावितात्मानो न दैवं पर्युपासते ॥जिसे अपने पर विश्वास नहीं, जो बलहीन है, वह दैव (भाग्य) के भरोसे रहता है। बलशाली एवं स्वाभिमानी भाग्य भरोसे नहीं रहते (अनुकूल कर्म करते हैं)।
उपयोगी वचनों की यह प्रस्तुति एक प्रणम्य प्रयत्न है?