धर्मचक्रप्रवर्तन पूर्णिमा अर्थात विशाखा की पूर्णिमा, माधव मास। बसंत एवं ग्रीष्म ऋतुओं की यह सन्धि पूर्णिमा बहुत सुन्दर होती है। आज चन्द्र के साथ खुले आकाश नीचे कुछ समय अवश्य बितायें, बृहस्पति भी साथ होंगे।
कहते हैं कि गौतम बुद्ध का जन्म, संबोधि प्राप्ति एवं निर्वाण, तीनों घटनायें इसी दिन हुई थीं। सौंदर्य के प्रति भारतीय वैचारिकी एवं व्यवहार की जो निष्ठा है, वह अपने पुराण प्रतीकों को उसके विविध पक्षों को जोड़ती रही है। देखें तो अन्तिम तीनों ऐतिहासिक अवतार राम, कृष्ण एवं गौतम अप्रतिम सौंदर्य के स्वामी थे। यदि कहें कि अपने समय के सबसे सुन्दर पुरुष थे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सत्य एवं शिव के साथ सुन्दर को भी रख कर चलने वाली सभ्यता के मानदण्ड भी अनुकूल ही होंगे न!
प्राची में पूर्ण चंद्र का उदय हो रहा था, पश्चिमी आकाश में सूर्य अपनी समस्त गैरिक गरिमा के साथ अस्त हो रहे थे। सहस्राब्दियों पुरानी प्रकाश भूमि काशी के सारङ्गनाथ मृगदाव में एक भारत पुत्र मात्र पाँच उत्सुकों के समक्ष वह कह रहा था जिसे आगे धर्मचक्रप्रवर्तन की संज्ञा मिलनी थी। सहस्राब्दियों तक जिसकी अनुगूँज सम्पूर्ण विश्व में प्रतिध्वनित होनी थी, उसके श्रोता हाथ की अंगुलियों की संख्या इतने ही थे।
समर्पण युक्त उत्सुकता का फलित होना भारतीय वाङ्मय की विशेषता है। गौतम के समक्ष पाँच समर्पित थे, दु:ख निरोध, दु:ख मुक्ति का मार्ग सनातन प्रज्ञा के मन्थन से मक्खन समान निकला। सृष्टि रव से भर उठी।
ब्रह्मलोकों तक हर्षध्वनियाँ पहुँची। दस हजार लोक काँप उठे, हिल उठे। महान अपरिमेय आभा ब्रह्माण्ड में उपस्थित हुई जो देवों के सम्मिलित तेज का भी अतिक्रमण कर गई!इतिह तेन खणेन (तेन लयेन) तेन मुहुत्तेन याव ब्रह्मलोका सद्दो अब्भुग्गच्छि।
अयञ्च दससहस्सिलोकधातु सङ्कम्पि सम्पवेधि, अप्पमाणो च उळारो ओभासो
लोके पातुरहोसि अतिक्कम्म देवानां देवानुभावन्ति।कृष्ण के समक्ष मात्र एक समर्पित था – सरल, ऋजु प्रकृति वाला अर्जुन। शंख बज चुके थे, महायुद्ध के आरम्भ से कुछ क्षण पूर्व ही सब छोड़ कर बैठ गया – मुझे नहीं लड़ना! मानों आश्चर्य में पड़ कर कृष्ण ने एक उत्साह बँधाने वाले मित्र की भाँति झिड़का – कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्? अर्जुन के अपने तर्क थे, कह कर, समर्पण के साथ चुप हो गया – जो श्रेयस्कर हो, उसे बतायें, मैं आप का शिष्य शरण में हूँ – यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।
शरण से भगवान होते हैं। वह समय, वह क्षण, वह अर्जुन न होता तो कृष्ण हँसते हुये ‘अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे‘ से आरम्भ कर सरल संस्कृत में ज्ञान की वह अर्थधारा नहीं प्रवाहित करते जो आज तक सबको भिगोती रहती है।
अर्जुन के अतिरिक्त किसी मनुष्य को सीधे सुनने का सौभाग्य मिला तो वह सञ्जय था। अन्धे राजा को प्रकरण सुनाते हुये अंत में सञ्जय कहता है – जो देखा सुना, हरि के उस अद्भुत रूप की बारम्बार स्मृति से मुझे महान विस्मय हुआ है, मैं पुन: पुन: हर्षित हो रहा हूँ।तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः॥कालान्तर में उनसे दुहराने को कहा गया, स्वयं अर्जुन ने कहा, कृष्ण ने उत्तर दिया – मुझे विस्मृत हो गया फाल्गुनी! पुन: नहीं कह सकता। किसी हिंदी साहित्यकार ने लिखा है, बुद्ध दुबारा बोधिवृक्ष के नीचे नहीं बैठे होंगे!
….
सनातन प्रज्ञा ऐसे ही जाने कितने क्षणों, अवसरों एवं परमाणुओं से रची बसी है। आज के अङ्क में एक अंश अपरिग्रह एवं Paradox of choice पर है।
लघु दीप शृंखला में हम ‘हजार यात्रायें, पाँव के नीचे’ के लघु संकलन करते चल रहे हैं, नहीं पता कि कौन सा स्फुल्लिंङ्ग विराट प्रकाश स्रोत हो जाये!
परम प्रज्ञावान मारुति की अशोकवनिका में दुविधा पर जय भी है। एक परिणाम के पीछे जाने कितने सहस्र आत्ममंथन एवं यातनाओं की पृष्ठभूमि होती है, समझने के लिये रामायण का सुंदरकांड उपयुक्त क्षेत्र है।
आजाद सिंह पक्षियों के बारे में यहाँ सहेजते चल रहे हैं। कामना है कि उनके हजार यहाँ पूरे हों।
आप सबके लिये यह पूर्णिमा प्रकाशमयी हो।