आज की अमावस्या जब कि मघा नक्षत्र पर सूर्य एवं चंद्र एक साथ हैं, हम आप को दूसरा साहित्य विशेषाङ्क अर्पित कर रहे हैं। पत्रिका के आरम्भ के समय विशेषाङ्क हेतु इस विशेष नाक्षत्रिक स्थिति का चयन किया गया था तथा ऐसी स्थिति पिछले वर्ष नहीं होने के कारण विशेषाङ्क नहीं आया। इस बार क्या विशेष है? पहले कनी सी नाक्षत्रिकी।
लोक में ऋतुओं के तीन स्थूल विभाजन प्रचलित हैं – ग्रीष्म, वर्षा एवं जाड़ा। एक वर्ष में सूर्य नक्षत्रमण्डल का एक चक्र पूरा करते हैं। कुल २७ नक्षत्रों को तीन ऋतुओं में बाँटें तो प्रति ऋतु नौ नक्षत्र होते हैं। रोहिणी नक्षत्र को वर्षा गर्भिणी कहा जाता है तथा उत्तराफाल्गुनी में सूर्य के प्रविष्ट होने पर वर्षा ऋतु समाप्त हो जाती है। कर आकार का हस्त नक्षत्र लोक में हस्ति, हाथी हो जाता है, लोकोक्ति प्रचलित है – हथिया के पेटे जाड़।
किंतु छ: ऋतुओं वाले सूक्ष्म विभाजन (यह सूक्ष्म है क्यों कि इसकी सीमाओं हेतु लोक नहीं, शास्त्र की आवश्यकता अधिक पड़ती है। वैदिक वाङ्मय में दो ऋतुओं को मिला कर कुल पाँच ऋतुओं की भी बात मिलती है।) में वर्षा हेतु साढ़े चार नक्षत्र पड़ते हैं। इस सीमा का आरम्भ आर्द्रा नक्षत्र से होता है, नाम में ही आर्द्रता है जिसके पूर्व मृगशिरा की तपन होती है। मघा से इसका अंत होता है। कुल पाँच नक्षत्र नामों में आरम्भ एवं अंत के आंशिक कोणीय मान ले कर साढ़े चार में सीमित कर सकते हैं।
मघा में सूर्य के विलास का अन्त अर्थात वर्षान्त। क्या इसे वर्ष का अंत भी मान सकते हैं? विचार करें। इस बार विशेष संयोग है। कल की प्रतिपदा से सूर्य नये नक्षत्र पूर्वा फाल्गुनी में प्रविष्ट हो रहे हैं तो अश्विनीकुमारों के नाम पर लोक में कुवार नाम से प्रसिद्ध चान्द्र मास आश्विन का आरम्भ भी कल से हो रहा है। विशुद्ध सौर गति आधारित ग्रेगरी कैलेण्डर के दिनांक ३० अगस्त को ऐसी स्थिति पुन: १९ वर्षों पश्चात ही आयेगी। चांद्रमास नाम पूर्णिमा पर चंद्र की स्थिति पर आधारित हैं, अमांत पद्धति में मास को नाम देने वाली पूर्णिमा मध्य में पड़ती है तो पूर्णिमान्त पद्धति में अन्त में। उस तिथि जिस नक्षत्र पर चंद्र रहेंगे, उससे मास नाम यथा आश्विन मास की पूर्णिमा को चंद्र अश्विनी नक्षत्र पर।
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भोर, उषा, अरुण लालिमा, सूर्योदय, बदली, खिलते पुष्प, उड़ती तितलियाँ, रस चूसती मधुमक्खियाँ, चढ़ता दिनमान, घाम, छाँह, बादर, बतास, बरसात, दुपहर, तिजहर, गोधूलि, घिरती पड़ती साँझ, केसर अंशुमान, रात, तारे टिमटिम, अमृतवर्षी सोम, नक्षत्र, राका, रजनी, विभावरी, शर्वरी, तुहिन बिंदु, ओस, पोषित विटप, कुञ्ज लतायें, कभी शीतल मंद, कभी उग्र, धीर समीर, पवन, बवण्डर, झञ्झा, तड़ित अग्नि तड़ तड़, झमझम कभी रिमझिम कभी वर्षा, होता बिहान, खगरव, विष्णु गान – सब वैसे ही हैं, आगे भी रहेंगे।
हम इन सबसे कटते जा रहे हैं। हमने पिता पर्जन्य, भूमाता, वैद्य सोम, सजनी रात, मित्र दिन – इन सबसे नाता तोड़ सा लिया है जैसे वे हमारे लिये हैं ही नहीं। प्रेम नहीं रहा। है न? विविध मानवीय सम्वेदनाओं से पूरित साहित्य को सर्वहित मानें तो कोई आपत्ति तो नहीं होनी चाहिये। जब सबकी माता प्रकृति पृथ्वी हो तो ऐसी संवेदनायें तो होनीं ही चाहिये जो सार्वत्रिक हों, सार्वकालिक हों।
इस बार के विशेषाङ्क में हमने वैश्विक साहित्य से उन सम्वेदनाओं को अनुवादों के माध्यम से सँजोया है जो देश काल से परे सबको झङ्कृत करती हैं। एशिया, यूरोप, दोनों अमेरिका, अफ्रीका एवं ऑस्ट्रेलिया महाद्वीपों से विविध कालखण्डों की ऐसी रचनायें प्रस्तुत हैं जिनमें मानवीय प्रेम, उत्साह, विलास एवं हताशा से उठती आशायें दिखती हैं। एक प्रकार से समस्त नृजातियों की ये लघु भाव सरियाँ हैं। स्थायी धारावाहिक सामग्री भी है। तुभ्यमेव समर्पये।