अपरिग्रह एवं Paradox of Choice
सनातन बोध पिछले भाग से आगे
पिछले लेखांश में हमने देखा कि किस प्रकार विकल्पों की बहुलता बहुधा सुख का कारण न होकर दुविधा और उलझन को जन्म देती है। सनातन बोध में हमने प्रिय वस्तुओं और कार्यों में अनेक विकल्पों में चिंतन के स्थान पर एक संकल्प की चर्चा भी की – एवं सर्वेषां संकल्पानां मन एकायनम् ! इसी दर्शन और सिद्धांत की कड़ी में प्रो डैन अरिएली का एक अत्यंत रोचक अध्ययन है। उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि हम अपने विकल्पों को खोना नहीं चाहते, उन्हें खुले रखना चाहते हैं; वैसी परिस्थितियों में भी जब उनकी हमें कोई आवश्यकता नहीं या उन विकल्पों को बचाए रखने में चाहे हमें हानि ही क्यों न उठानी पड़ रही हो! इस संदर्भ में वह 210 ई.पू. के चीनी योद्धा जियांग यु का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि एक विशाल युद्ध से पहले उसने अपने सैनिकों के युद्धपोत और बर्तन इत्यादि ध्वस्त कर डाले जिसके बाद उनके पास केवल युद्ध करने और मृत्यु को वरने का विकल्प शेष रह गया। अन्य विकल्पों के समाप्त हो जाने पर उसके योद्धाओं ने अद्भुत कौशल का प्रदर्शन किया और वह एक के बाद एक नौ युद्ध जीत गया। परन्तु वास्तव में हम इस प्रकार विकल्पों का अन्त कर एक संकल्प लेने के स्थान पर विकल्पों को खुले रखना चाहते हैं। विकल्पों का अन्त कर आगे बढ़ जाना बहुत कठिन होता है। यह सिद्ध करने के लिए प्रो. अरिएली और शिन ने एक प्रायोगिक अध्ययन किया।
इस अध्ययन के लिए उन्होंने एक कंप्यूटर खेल बनाया। एमआईटी के छात्रों को उन्होंने वह खेल खेलने को दिया। इसमें छात्रों ने कोई लाभ नहीं होने पर भी अपने विकल्प खुले रखे। यहाँ तक कि हानि होने पर भी! उस खेल में तीन रंग के द्वार बने थे एवं पहले सौ क्लिक करने पर हर क्लिक के लिए कुछ धन मिलना था। हर द्वार के भीतर क्लिक करने पर अलग अलग धन मिलता। खेल की उत्कृष्ट रणनीति यह होती कि हर द्वार के भीतर जाँच कर जहाँ सबसे अधिक धन मिले वहाँ सारे बचे क्लिक करना परन्तु जब खेल में स्क्रीन पर एक सहायक दृश्य डाल दिया गया जिसमें हर क्लिक के साथ अन्य द्वारों को घटते हुए दिखाया जाने लगा तब छात्र केवल उन द्वारों को खुला रखने के लिए द्वार परिवर्तन करने लगे। इससे उन्हें पंद्रह प्रतिशत तक की हानि होती तब भी! यही नहीं, जब खेल को परिवर्तित कर उसमें द्वार परिवर्तन के लिए अतिरिक्त अर्थदण्ड लगाया गया तब भी खेलने वालों ने द्वार खुले रखने चाहे। ऐसा करने से उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ बल्कि अतिरिक्त मूल्य ही चुकाना पड़ा। आभासी द्वारों से खिलाड़ियों की इस प्रकार आसक्ति थी कि जब उनके घटकर शून्य हो जाने के पश्चात एक क्लिक से पुनः प्राप्त करने का विकल्प भी डाल दिया गया, तब भी खेलने वालों के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया! जब विश्व के सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले संस्थान के मस्तिष्कों की यह गति है तो अन्य मनुष्यों का कहना ही क्या!
प्राचीन काल से चले आ रहे दर्शन वाली बात सदृश ही नूतन निष्कर्ष यह था कि हम विकल्पों में इस प्रकार आसक्त और भ्रमित रहते हैं कि हमारे लिए उन बातों को भूलकर आगे बढ़ जाना अत्यंत कठिन होता है, भले ही हमें उनसे कोई लाभ तो क्या, हानि ही हो रही हो। उसी प्रकार किसी वस्तु को खरीदते समय हम उसमें उन विशेषताओं को भी चाहते हैं जिसकी हमें कोई आवश्यकता नहीं होती। कम्प्यूटर, मोबाइल, वाहन इत्यादि खरीदते समय हमें भले ही कई विशेषताओं की आवश्यकता न हो, हम उसमें सारी विशेषताओं को चाहते हैं। जिन सम्बन्धों में कुछ भी शेष नहीं रहा, उन्हें भी नित्य के लिए समाप्त कर देने जैसी बात हमसे नहीं हो पाती, ठीक उसी प्रकार जैसे द्वारों के चले जाने के भय से हानि उठाकर भी खेलने वाले छात्रों ने उस विकल्प को जीवित रखा, यह जानते हुए भी कि जब चाहें वे उसे पुनर्प्राप्त कर सकते हैं! विकल्पों के अन्त को हमारा मस्तिष्क बड़ी हानि के रूप में देखता है – आसक्ति!
ठीक इसी प्रकार जब विकल्प एक ही प्रकार के हों, भले वे दो ही क्यों न हों, उनमें से एक चुनना अत्यंत ही कठिन होता है। प्रो. अरिएली कहते हैं कि हम दुविधा वाली अवस्था से हो रही हानि के बारे में नहीं सोचते। हमें जागृत होकर कुछ द्वारों को बंद करते रहना चाहिए। स्थिति कठिन हो तो सिक्का उछल कर निर्णय ले लेना चाहिए लेकिन इस दुविधा की परिस्थिति से अपनी हानि कराना भला कहाँ की बुद्धिमता है! मनोवैज्ञानिक बैरी स्च्वार्त्ज़ की पुस्तक ‘पैराडॉक्स ऑफ़ चॉइस – व्हाई मोर इज लेस’ भी इसी सिद्धांत पर आधारित है। वह इस बात का सन्दर्भ देकर कहते हैं कि विकल्पों को कम कर देने से ग्राहकों की व्यग्रता में कमी आएगी।
इस सिद्धांत के सनातन बोध के सन्दर्भों की चर्चा हम पिछले लेखांश में कर चुके हैं परन्तु पुनः कहेंगे कि इस सिद्धांत के विश्व में कहीं भी सर्वप्रथम बोध के लिए ‘अपरिग्रह’ से सुन्दर भला क्या सिद्धांत हो सकता है! सहज और प्रसन्न जीवन के लिए अपरिग्रह को योग परम्परा (अष्टांङ्ग योग के यम) और जैन धर्म में अत्यंत आवश्यक बताया गया है। जैन धर्म में तो अहिंसा और अपरिग्रह सबसे महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। अहिंंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः। योग ही नहीं आयुर्वेद में भी अपरिग्रह और अनासक्ति की बात की गयी है। ये विकल्पों में आसक्त रहने के आधुनिक सिद्धांत क्या उसी विस्तृत दर्शन की विशेषावस्था नहीं हैं? किसी विचार, व्यक्ति या वस्तु के प्रति आसक्ति या मोह नहीं रखना एवं निरपेक्ष भाव से जीना ही तो अपरिग्रह है। सनातन दर्शन स्पष्टतः कहता है – उस मोह से चिंता, चिंता से सारी समस्यायें! विषयों में आसक्त होने की बात अष्टांङ्ग योग के अतिरिक्त भी लगभग हर ग्रन्थ में आती है। मनुस्मृति में इसे दोष कहा गया है। मन की व्यर्थ बातों, वस्तुओं एवं व्यक्तियों को संग्रहीत न करना अपरिग्रह की परिभाषा है। Paradox of choice एवं Why options distract us पर पुस्तकें पढ़ने से भला वही बात कैसे नहीं लगेगी। पश्चिमी देशों में प्रचलित आधुनिक ‘योगा’ के शिक्षकों द्वारा ‘let go’ को संस्कृत के अपरिग्रह का अनुवाद कहा जाना सही ही है। इस अनुवाद से पता चलता है सिद्धांत किस प्रकार विभिन्न सभ्यताओं में एक अन्तर्निहित सत्य के साथ विभिन्न स्वरुप लेते गए।
Paradox of choice का सिद्धांत अपरिग्रह की विशेषावस्था तो है ही, इसे विस्तृत कर देखें तो ये वैराग्य के दर्शन से भी जुड़ता प्रतीत होता है। Paradox of choice का सिद्धांत ही है अत्यधिक संचय एवं जहाँ आवश्यक नहीं हो वहाँ भी अधिक से अधिक विकल्पों को एकत्रित कर रखना। वस्तुयें हों या विचार या व्यक्ति – सञ्चय एवं आसक्ति। अपरिग्रह से पहले के चार यम कुछ इस प्रकार हैं जो मानों हमें अपरिग्रह की इस अवस्था के लिए सन्नद्ध कर रहे हों। अधिक क्या कहना जब सञ्चय, अनावश्यक विकल्प एवं आसक्ति तोड़ने की बात हो तो भला सनातन दर्शन से सुन्दर ढंग से इसे अन्य कौन बता सकता है! – तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।
पुनश्च, आशा, तृष्णा एवं मनोरथों की बात हो या विषयों को त्याग कर आगे बढ़ने की, भर्तृहरि के वैराग्य शतकम् के इन सुन्दर छंदों का अवलोकन करें:
अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषया
वियोगे को भेदस्त्यजति न मनो यत्स्वयममून्।
व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनसः
स्वयं त्यक्ता ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति॥ (16)
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आशानामनदीमनोरथजला तृष्णातरङ्गाकुला,
रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी।
मोहावर्तसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तुङ्गचिन्तातटी
तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दन्ति योगीश्वराः। (41)
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