Valmiki Ramayan Sundarkand वाल्मीकीय रामायण सुन्दरकाण्ड भाग – 32 से आगे
अपना राज्य पा सुग्रीव ने दसो दिशाओं में महाबली एवं पर्वत के समान वानरों को आप के सन्धान हेतु प्रेषित किया। वे वानर सर्वत्र विचरण कर रहे हैं। एक तिहाई वानर सैन्य अङ्गद के नेतृत्व में निकली थी (जिसमें मैं भी था)।
तेषां नो विप्रनष्टानां विन्ध्ये पर्वतसत्तमे
भृशं शोकपरीतनामहोरात्रगणा गताः
पर्वतश्रेष्ठ विंध्य में हम मार्ग भटक गये। बहुत कष्ट सहते हुये हमने वहाँ कई दिन रात गँवा दिये।
ते वयं कार्यनैराश्यात्कालस्यातिक्रमेण च
भयाच्च कपिराजस्य प्राणांस्त्यक्तुं व्यवस्थिताः
विचित्य वनदुर्गाणि गिरिप्रस्रवणानि च
अनासाद्य पदं देव्याः प्राणांस्त्यक्तुं व्यवस्थिताः
भृशं शोकार्णवे मग्नः पर्यदेवयदङ्गदः
तव नाशं च वैदेहि वालिनश्च तथा वधम्
प्रायोपवेशमस्माकं मरणं च जटायुषः
आप को न पाने की निराशा एवं दी गयी अवधि बीत जाने पर कपिराज के (दण्ड के) भय वश हम सबने प्रायोपवेश (अन्न जल त्याग कर बैठ जाना) कर अपने प्राण त्यागने देने का निश्चय कर लिया। सबको इस प्रकार बैठा देख आप के नाश, वालि के वध एवं जटायु के मरण की बात कह अंगद विलाप करने लगे।
तेषां नः स्वामिसंदेशान्निराशानां मुमूर्षताम्
कार्यहेतोरिवायातः शकुनिर्वीर्यवान्महान्
गृध्रराजस्य सोदर्यः संपातिर्नाम गृध्रराट्
स्वामी के आदेश का पालन न होने की निराशा में हम मरना ही चाहते थे कि (मानो) हमारा कार्य सिद्ध करने को ही (एक) महान बलशाली पक्षी उपस्थित हुआ। वह गृध्रराज जटायु का भाई एवं समस्त गिद्धों के राजा सम्पाती थे।
अङ्गदोऽकथयत्तस्य जनस्थाने महद्वधम्
रक्षसा भीमरूपेण त्वामुद्दिश्य यथातथम्
जटायोस्तु वधं श्रुत्वा दुःखितः सोऽरुणात्मजः
त्वामाह स वरारोहे वसन्तीं रावणालये
आप की रक्षा करते हुये जनस्थान में जटायु के मारे जाने का समाचार अङ्गद से सुन वह बड़े व्यथित हुये। वरारोहे! उन्हों ने ही आप के रावण के यहाँ होने की बात बताई।
त्वद्दर्शनकृतोत्साहा हृष्टास्तुष्टाः प्लवंगमाः
अथाहं हरिसैन्यस्य सागरं दृश्य सीदतः
व्यवधूय भयं तीव्रं योजनानां शतं प्लुतः
लङ्का चापि मया रात्रौ प्रविष्टा राक्षसाकुला
रावणश्च मया दृष्टस्त्वं च शोकनिपीडिता
समाचार जान कर तुष्ट एवं आप के दर्शन को उत्साहित वानर सागर तट पहुँचे। वहाँ जब मैंने देखा कि अथाह सागर को देख वानर सेना का उत्साह क्षीण हो रहा है तो उनके तीव्र भय को दूर करता हुआ मैं सौ योजन समुद्र को पार कर आ गया। राक्षसों से भरी हुई लङ्का में मैंने रात में प्रवेश किया, रावण को देखा एवं शोकनिमग्न आप के भी दर्शन किये।
एतत्ते सर्वमाख्यातं यथावृत्तमनिन्दिते
अभिभाषस्व मां देवि दूतो दाशरथेरहम्
अनिन्दिते! इस प्रकार मैंने आप को समस्त कथा यथावत कह सुनाई। देवी! मुझसे बात करें, मैं दाशरथि (राम) का दूत हूँ।
त्वं मां रामकृतोद्योगं त्वन्निमित्तमिहागतम्
सुग्रीव सचिवं देवि बुध्यस्व पवनात्मजम्
राम के उद्योग से तुम्हारे निमित्त ही मैं तुम तक पहुँचा हूँ। देवी! मुझे सुग्रीव का सचिव पवनसुत जानें।
आप के श्रीराम कुशल हैं, लक्ष्मण कुशल हैं।
मयेयमसहायेन चरता कामरूपिणा
दक्षिणा दिगनुक्रान्ता त्वन्मार्गविचयैषिणा
इच्छारूपधारी मैंने, आप के संधान में बिना किसी सहायता के दक्षिण दिशा छान डाली है।
अपनेष्यामि संतापं तवाभिगमशंसनात्
दिष्ट्या हि न मम व्यर्थं देवि सागरलङ्घनम्
प्राप्स्याम्यहमिदं दिष्ट्या त्वद्दर्शनकृतं यशः
राघवश्च महावीर्यः क्षिप्रं त्वामभिपत्स्यते
समित्रबान्धवं हत्वा रावणं राक्षसाधिपम्
आप के विनाश की आशङ्का के कारण जो संताप हैं, उसे मैं दूर करूँगा। दैव योग से मेरा सागरलङ्घन व्यर्थ नहीं हुआ है। (हरण के पश्चात) आप के दर्शन का यश भी मैंने प्राप्त किया है।
महाबलशाली राघव शीघ्र से मित्र एवं बंधुओं सहित राक्षसाधिपति रावण को मार कर आप को प्राप्त करेंगे।
कौरजो नाम वैदेहि गिरीणामुत्तमो गिरिः
ततो गच्छति गोकर्णं पर्वतं केसरी हरिः
स च देवर्षिभिर्दृष्टः पिता मम महाकपिः
तीर्थे नदीपतेः पुण्ये शम्बसादनमुद्धरत्
तस्याहं हरिणः क्षेत्रे जातो वातेन मैथिलि
हनूमानिति विख्यातो लोके स्वेनैव कर्मणा
विश्वासार्थं तु वैदेहि भर्तुरुक्ता मया गुणाः
वैदेही ! पर्वतों में एक गिरिश्रेष्ठ कौरज है। वहाँ से मेरे पिता महाकपि केसरी गोकर्ण पर्वत गये जहाँ देवर्षियों की आज्ञा से उन्हों ने (उस) समुद्र तट के तीर्थ में शम्बसादन का उद्धार किया। मैथिली! उसी केशरी की स्त्री से वायुदेवता द्वारा मेरा जन्म हुआ। मैं लोक में अपने कर्म द्वारा हनुमान नाम से विख्यात हूँ।
वैदेही! आप का विश्वास प्राप्त करने के लिये ही मैंने आप के स्वामी के गुणों का वर्णन किया है।
एवं विश्वासिता सीता हेतुभिः शोककर्शिता
उपपन्नैरभिज्ञानैर्दूतं तमवगच्छति
अतुलं च गता हर्षं प्रहर्षेण तु जानकी
नेत्राभ्यां वक्रपक्ष्माभ्यां मुमोचानन्दजं जलम्
इस प्रकार युक्तियुक्त एवं विश्वसनीय कारणों तथा अभिज्ञान के रूप में बताये गये चिह्नों से शोक से कृशगात सीता को हनुमान ने अपना विश्वास दिलाया। उन्हों ने हनुमान को श्रीराम का दूत समझा।
उस समय जानकी को अतुलनीय हर्ष की प्राप्ति हुई एवं वह हर्ष में अपनी वक्र बरौनियों वाले नेत्रों से आनंद के आँसू बहाने लगीं।
चारु तच्चाननं तस्यास्ताम्रशुक्लायतेक्षणम्
अशोभत विशालाक्ष्या राहुमुक्त इवोडुराट्
हनूमन्तं कपिं व्यक्तं मन्यते नान्यथेति सा
अथोवाच हनूमांस्तामुत्तरं प्रियदर्शनाम्
हतेऽसुरे संयति शम्बसादने; कपिप्रवीरेण महर्षिचोदनात्
ततोऽस्मि वायुप्रभवो हि मैथिलि; प्रभावतस्तत्प्रतिमश्च वानरः
उस अवसर पर सीता जी का सुंदर आनन जोकि श्वेत, ताम्रवर्णा बड़ी बड़ी आँखों से युक्त था, राहु के ग्रहण से मुक्त चंद्रमा की भाँति शोभा पाने लगा। उन्हें विश्वास हो गया कि यह हनुमान नामक वानर ही है, कोई अन्य नहीं। तदनंतर हनुमान जी ने प्रियदर्शना सीता जी से कहा कि शंबसादन नामक असुर को महर्षियों की प्रेरणा से संयत करने वाले कपिराज का मैं वायु प्रभाव से उत्पन्न पुत्र हूँ एवं प्रभाव में उनकी प्रतिमा अर्थात उनके समान हूँ।
समय उपयुक्त जान कर हनुमान ने अपना पुन: परिचय देते हुये मानो कि पुष्ट कर रहे हों, अपने अभिजान का अंतिम प्रमाण प्रस्तुत कर दिया – वानरोऽहं महाभागे दूतो रामस्य धीमतः
रामनामाङ्कितं चेदं पश्य देव्यङ्गुलीयकम्
समाश्वसिहि भद्रं ते क्षीणदुःखफला ह्यसि
गृहीत्वा प्रेक्षमाणा सा भर्तुः करविभूषणम्
भर्तारमिव संप्राप्ता जानकी मुदिताभवत्
चारु तद्वदनं तस्यास्ताम्रशुक्लायतेक्षणम्
बभूव प्रहर्षोदग्रं राहुमुक्त इवोडुराट्
ततः सा ह्रीमती बाला भर्तुः संदेशहर्षिता
परितुष्टा प्रियं श्रुत्वा प्राशंसत महाकपिम्
हे महाभागा ! मैं वानर बुद्धिमान राम का दूत हूँ। हे देवी ! यह राम नाम अङ्कित अंगूठी है, इसे देखें। आप का कल्याण हो। आप धैर्य धारण करें। आप को जो दु:ख रूपी फल मिल रहा था, समझें कि समाप्त हो गया।
अपने स्वामी के हाथों की आभूषण उस अंगूठी को ले कर जानकी ने देखा एवं ऐसी मुदित हुईं मानों स्वामी श्रीराम ही मिल गये हों ! (कोनों पर) ताम्रवर्णी स्वच्छ विशाल आँखों से युक्त उनका सुंदर मुख हर्ष से खिल उठा जैसे चंद्रमा राहु के ग्रहण से मुक्त हो गया हो।
स्वामी का संदेश पा एवं प्रिय की सुन हर्षित वे लज्जालु विदेहबाला संतुष्ट मन से महाकपि हनुमान की प्रशंसा करने लगीं:
विक्रान्तस्त्वं समर्थस्त्वं प्राज्ञस्त्वं वानरोत्तम
येनेदं राक्षसपदं त्वयैकेन प्रधर्षितम्
हे वानरश्रेष्ठ! तुम विक्रान्त हो, तुम समर्थ हो, तुम प्राज्ञ हो जिससे कि तुमने अकेले ही राक्षस राजधानी को प्रधर्षित कर दिया है।