Valmiki Ramayan Sundarkand वाल्मीकीय रामायण सुन्दरकाण्ड भाग – 33 से आगे
तुमने अपने श्लाघनीय विक्रम से जलीय जीवों से भरे इस सौ योजन विस्तीर्ण सागर को गाय के खुर के (माप) समान (तुच्छ सिद्ध) कर दिया है – विक्रमश्लाघनीयेन क्रमता गोष्पदीकृतः।
न हि त्वां प्राकृतं मन्ये वानरं वानरर्षभ। यस्य ते नास्ति सन्त्रासो रावणान्नापि सम्भ्रमः॥
हे वानरश्रेष्ठ ! मैं तुम्हें साधारण वानर नहीं मानती। तुममें न तो रावण को ले कर कोई सम्भ्रम है, न ही सन्त्रास ।
अर्हसे च कपिश्रेष्ठ मया समभिभाषितुम्। यद्यसि प्रेषितस्तेन रामेण विदितात्मना ॥
हे कपिश्रेष्ठ ! यदि तुम्हें आत्मज्ञानी राम ने भेजा है तो तुम अवश्य इस योग्य हो कि मैं तुमसे संवादित होऊँ।
प्रेषयिष्यति दुर्धर्षो रामो न ह्यपरीक्षितम्। पराक्रममविज्ञाय मत्सकाशं विशेषतः ॥
दुर्धर्ष राम बिना परीक्षा किये किसी को (यहाँ) नहीं भेजेंगे, विशेषत: मेरे पास तो (उस व्यक्ति के) पराक्रम से विज्ञ होने पर ही भेजेंगे।
सीता जी ने हनुमान को संवाद योग्य बताते समय विदितात्मना शब्द का प्रयोग किया जिसका अर्थ आत्मज्ञानी होता है किंतु यहाँ यह भी कह सकते हैं कि उनका अभिप्राय स्वयं से भी था – वे राम जो सीता को जानते हैं, उन्हों ने प्रेषित किया है। कपट वेशधारी रावण से अपनी सरलता में संवादित हो देवी सीता ने अपहरण का सामना किया था। राम दूत वानर रूप में उपस्थित हुआ तो मन इतना शङ्कालु था कि उस प्रतिकूल परिस्थिति में भी विश्वास करने में उन्हों ने बहुत समय लिया। हनुमान के मुख से सब सुन कर उन्हें विश्वास हो गया कि लङ्का की स्थिति का भान राघव को है तथा रण में अजेय रहने वाले राम ने ऐसा पराक्रमी दूत ही भेजा होगा जो समस्त बाधाओं एवं सङ्कटों का सफलतापूर्वक सामना कर अजेय रहे।
प्रिय के दूत की पुष्टि होने पर भीतर, एक साथ, सुहाग का मान, उपालम्भ उलाहना, कातरता, अधैर्य, जाने कितने भावों के प्रपात प्रस्फुटित होने लगे। देवी सीता कहती चली गयीं :
दिष्ट्या च कुशली रामो धर्मात्मा सत्यसङ्गरः। लक्ष्मणश्च महातेजास्सुमित्रानन्दवर्धनः ॥
(सङ्कट में हूँ किन्तु) मेरा सौभाग्य है कि सत्यसंध धर्मात्मा राम कुशल हैं, माता सुमित्रा का मोद बढ़ाने वाले महातेजस्वी लक्ष्मण कुशल हैं। (हर्ष के साथ उपालम्भ कि मेरी कुशलता की तो उन्हें चिन्ता ही नहीं, अन्यथा अब तक चुप नहीं बैठे होते।)
प्रणयरोष मुखरित हुआ :
कुशली यदि काकुत्स्थः किं नु सागरमेखलाम् । महीं दहति कोपेन युगान्ताग्निरिवोत्थितः ॥
यदि काकुत्स्थ (राम) कुशल हैं तो (मेरे अपहरणजनित रोष से) युगांत के समय उत्पन्न अग्नि से जिस भाँति पृथ्वी का दहन हो जाता है, उसी भाँति सागर को मेखला के समान धारण की हुई इस मही को दग्ध क्यों नहीं कर देते? (यहाँ कुशलता एवं रोष का समवाय उपालम्भ को तीखा बना रहा है।)
अथवा शक्तिमन्तौ तौ सुराणामपि निग्रहे। ममैव तु न दुःखानामस्ति मन्ये विपर्ययः ॥
अथवा वे दोनों तो देवों को भी दण्डित करने की सामर्थ्य रखते हैं, मुझे लगता है कि मेरे दु:खों का अन्त ही अभी नहीं आया है। (यहाँ भी दोनों राघवों के सामर्थ्य पर उपालम्भ है कि मुझे दु:खग्रस्त ही रहने देना चाहते हैं!)
कुशलता पूछने के समांतर व्याजोक्तियों की, आशयगर्भी प्रश्नों की झड़ी सी लग गयी। वक्रोक्तियाँ जो कटु कदापि नहीं थीं किंतु वस्तुस्थिति संप्रेषण में पूर्णत: सक्षम थीं।
कपि को इस वाग्विदग्धता को समझने में सुख हुआ होगा कि अहो ! मान एवं सम्मान का कैसा सङ्गम है !!
कच्चिन्न व्यथितो रामः कच्चिन्न परितप्यते। उत्तराणि च कार्याणि कुरुते पुरुषोत्तमः ॥
कच्चिन्न दीन स्सम्भ्रान्तः कार्येषु न च मुह्यति। कच्चित्पुरुषकार्याणि कुरुते नृपतेस्सुतः ॥
द्विविधं त्रिविधोपायमुपायमपि सेवते। विजिगीषुस्सुहृत्कच्चिन्मित्रेषु च परन्तपः ॥
कच्चिन्मित्राणि लभते मित्रैश्चाप्यभिगम्यते। कच्चित्कल्याणमित्त्रश्चमित्रत्त्रैश्चापिपुरस्कृतः ॥
कच्चिदाशास्ति देवानां प्रसादं पार्थिवात्मजः। कच्चित्पुरुषकारं च दैवं च प्रतिपद्यते ॥
राम व्यथित तो नहीं होते ? कष्ट में तो नहीं हैं? आगे जो कार्य (मेरे उद्धार का) है, उस हेतु पुरुषोत्तम कर्मरत तो हैं?
वे दीन तो नहीं रहते? घबराते तो नहीं? कर्तव्य के समय मोहग्रस्त तो नहीं हो जाते? वे राजकुमार श्रीराम पुरुषार्थ कर्म में लगे तो रहते हैं?
शत्रुओं को तपाने वाले राम सुहृद मित्रों के प्रति मैत्री भाव रख विजय की आकाङ्क्षा के साथ द्विविध (मित्रों के साथ साम एवं दान) एवं त्रिविध (शत्रुओं के साथ दान, दण्ड एवं भेद) नीतियों का सेवन करते हैं न ?
श्रीराम (नये) मित्र बना रहे हैं न? लोग भी मैत्री हेतु उनके पास आते हैं न? वह मित्रों के प्रति कल्याण कामना रखते हैं न ? मित्र भी उनका सम्मान करते हैं न ?
राजकुमार देवताओं के अनुग्रह के प्रति आशान्वित तो रहते हैं न? वह पौरुष एवं भाग्य, दोनों के समान योगदान से अवगत रहते हैं न ?
(धीरमना पुरुषोत्तम श्रीराम में ये समस्त गुण सदा से थे। यहाँ उनकी स्मृति दिला सीता जी उलाहना दे रही हैं कि राम से कहीं उन सारे गुणों का लोप तो नहीं हो गया जो संग्राम में सफलता हेतु अनिवार्य हैं!)
इतना कह लेने के पश्चात वैदेही ने अपना स्त्री हृदय उद्घाटित किया :
कच्चिन्न विगतस्नेहः विवासान्मयि राघवः। कच्चिन्मां व्यसनादस्मान्मोक्षयिष्यति वानर ॥
मैं उनके सङ्ग वास नहीं कर रही, इस कारण से राघव का मेरे प्रति स्नेह समाप्त तो नहीं हो गया है? हे वानर ! वे मुझे इस विपदा से मुक्त करायेंगे न ?
सुखानामुचितो नित्यमसुखानामनौचितः। दुःखमुत्तरमासाद्य कच्चिद्रामो न सीदति॥
वह सदा सुखी रहने योग्य हैं, दु:ख का उन्हें अभ्यास नहीं। दु:खों के इन दिनों में पड़ कर कहीं राम खिन्न एवं निराश तो नहीं हो गये हैं?
उन्हें माता कौशल्या, सुमित्रा एवं भरत की कुशलता के नियमित समाचार मिलते रहते हैं न?
(कुशल क्षेम पृच्छा के साथ यहाँ भी उपालम्भ है कि केवल मेरी ही सुध भूले हैं या अपने सहित अन्यों की भी?)
मन्निमित्तेन मानार्हः कच्चिच्छोकेन राघवः। कच्चिन्नान्यमना रामः कच्चिन्मां तारयिष्यति ॥
मेरे कारण आदरणीय राम शोक में डूबे तो नहीं रहते? कहीं अनमने तो नहीं रहते? वह मुझे (इस सङ्कट से) तारेंगे न?
कच्चिदक्षौहिणीं भीमां भरतो भ्रातृवत्सलः। ध्वजिनीं मन्त्रिभिर्गुप्तां प्रेषयिष्यति मत्कृते ॥
मेरी मुक्ति हेतु भ्रातृवत्सल भरत मंत्रियों द्वारा रक्षित ध्वजाधारी भयङ्कर अक्षौंहिणी सेना क्या भेजेंगे? (यह व्यङ्ग्योक्ति है कि जिस भरत के लिये राजधानी छूटी, वनवास हुआ, वे सङ्कट के समय सहायता करेंगे क्या ! )
सुग्रीव की सेना एवं देवर लक्ष्मण के अस्त्र बल द्वारा राक्षसों के भावी संहार की सम्भावना को भी पूछती जानकी ने प्रश्न किया :
रौद्रेण कच्चिदस्त्रेण रामेण निहतं रणे। द्रक्ष्याम्यल्पेन कालेन रावणं ससुहृज्जनम् ॥
क्या मैं आशा करूँ कि अल्प समय में ही राम की क्रोधाग्नि एवं अस्त्र प्रयोग से सुहृदों सहित रावण को रण में मारा गया देखूँगी ?
कच्चिन्न तद्धेमसमानवर्णं तस्याननं पद्मसमानगन्धि ।
मया विना शुष्यति शोकदीनं जलक्षये पद्ममिवातपेन ॥
मेरे बिना कृष्ण अश्व के समान वर्ण वाला उनका कमलगंधी मुखमण्डल, जल के क्षय एवं आतप के कारण सूख गये कमल के सामन शोकग्रस्त एवं दीन तो नहीं दिखता ? (प्रेम में अपेक्षा है कि ऐसा होना चाहिये, चिन्ता भी है कि ऐसा नहीं होना चाहिये, उपालम्भ भी कि उन्हें तो मेरी चिंता ही नहीं है, क्या होना जाना है !)
धर्मापदेशात्त्यजतश्च राज्यं मां चाप्यरण्यं नयतः पदातिम् ।
नासीद्व्यथा यस्य न भीर्न शोकः कच्चित्स धैर्यं हृदये करोति ॥
(उन्हों ने) धर्म स्थापन हेतु राज्य तज दिया एवं मुझे भी पैदल वन में ले गये। उन्हें न व्यथा हुई, न भय, न शोक। कदाचित वह धैर्य वे अभी भी धारण किये हुये हैं। (यहाँ उपालम्भ है।)
इतना सब कहने के पश्चात वैदेही ने स्वयं के प्रति श्रीराम के प्रेम की प्रगाढ़ता का परिचय दिया, मानों किसी अनुपम वाद्य वृन्द रचना के वे अन्तिम प्रभावी स्वर हों जो मौन का सृजन कर देते हैं :
न चास्य माता न पिता च नान्यः स्नेहाद्विशिष्टोऽस्ति मया समो वा ।
तावत्त्वहं दूत जिजीविषेयं यावत्प्रवृत्तिं शृणुयां प्रियस्य ॥
न माता से, न पिता से एवं न किसी अन्य से उनका प्रेम, मेरे प्रति प्रेम से विशिष्ट है (अर्थात मेरे प्रति उनका प्रेम समस्त सम्बन्धों के प्रेम से विशिष्ट है)।
अत:, हे दूत ! मेरी जीने की इच्छा तब तक ही बनी रहनी है, जब तक मैं अपने प्रिय का वृतान्त सुनती रहूँ।
इतीव देवी वचनं महार्थं तं वानरेन्द्रं मधुरार्थमुक्त्वा ।
श्रोतुं पुनस्तस्य वचोऽभिरामं रामार्थयुक्तं विरराम रामा ॥
वानरेन्द्र हनुमान से अपने प्रिय राम हेतु मधुरता युक्त महान अर्थ भरे ये वचन कह कर देवी सीता ने विराम ले लिया जिससे कि उनसे राम का सुंदर वृतांत पुन: सुनने को मिले।