Valmikiya Ramayan अत्याचारी स्वामी के सेवक उसकी मानसिक दुर्बलताओं एवं आशंकाओं का प्रयोग उसे मतिभ्रमित कर समस्या से ध्यान हटा स्वयं को बचाने हेतु करते हैं।
Valmikiya Ramayan वाल्मीकीय रामायण – 42 से आगे
प्रमदावन के विनाश के चित्रण में वाल्मीकी जी प्रेक्षण की सूक्ष्मता तो दर्शाते ही हैं, अनूठी उपमायें भी देते हैं, अद्भुत सांगीतिक गढ़न के साथ – किसलयैः क्लान्तै: क्लान्तद्रुमलतायुतम् !
तद्वनं मथितैर्वृक्षैर्भिन्नैश्च सलिलाशयैः। चूर्णितैः पर्वताग्रैश्च बभूवाप्रियदर्शनम्॥
नानाशकुन्तविरुतैः प्रभिन्नैस्सलिलाशयैः। ताम्रैः किसलयैः क्लान्तै: क्लान्तद्रुमलतायुतम्॥
न बभौ तद्वनं तत्र दावानलहतं यथा। व्याकुलावरणा रेजुर्विह्वला इव ता लताः॥
लतागृहैश्चित्रगृहैश्च नाशितैर्महोरगैर्व्यालमृगैश्च निर्धुतैः। शिलागृहैरुन्मथितैस्तथा गृहैः प्रणष्टरूपं तदभून्महद्वनम्॥
मथ दिये गये वृक्षों, कूलभङ्गित जलाशयों एवं चूर चूर कर दी गयी चोटियों वाले (कृत्रिम) पर्वतों के साथ वह वन अप्रिय दिखने लगा। नाना प्रकार के पक्षी विविध प्रकार के रव करने लगे। जलाशयों के घाट टूट-फूट गये, वृक्षों के ताम्रवर्णी पल्लव क्लांत हो गये तथा वृक्ष एवं लतायें रौंद दी गईं। प्रमदावन ऐसा लगने लगा मानो दावानल में झुलस गया हो। लतायें आवरण के विचलित हो हट जाने से भयाकुल काँपती (आभरणहीन) स्त्रियों की भाँति प्रतीत हो रही थीं।
लतामण्डप एवं चित्रशालायें उजाड़ हो गयीं। महासर्प, वन्य जंतु, मृगादि नष्ट हो गये। प्रस्तरनिर्मित प्रासाद तथा अन्य साधारण गृह भी नष्ट भ्रष्ट हो गये। इससे उस महान प्रमदावन का रूप सौंदर्य नष्ट हो गया।
प्रमदावन का अर्थ है – ऐसी वन वाटिका जिसमें स्त्रियाँ केलि क्रीड़ा करती प्रमोद भरी विचरण करती हों। ऐसे वन में ऐसी सीता को बंदिनी बना रावण ने दिन रात दु:ख एवं आतंक में रखा था जिन्हें सुरसुतोपमा कहा गया – देवकन्याओं की भाँति सुंदरी। कपि हनुमान ने मानो इस विपर्यय का विकट प्रतिशोध उसे उजाड़ कर लिया, उसे प्रमोदहीन कर दिया!
सा विह्वलाऽशोकलताप्रताना वनस्थली शोकलताप्रताना। जाता दशास्यप्रमदावनस्य कपेर्बलाद्धि प्रमदावनस्य॥
एक स्त्री (सीता) की रक्षा को आये कपि द्वारा बलात पूर्णत: नष्ट कर दिये जाने से दशानन का प्रमदावन ऐसा प्रतीत होने लगा मानो (मोद के स्थान पर) दु:ख की लताओं का प्रसार कर रहा हो। (प्रमदावनस्य शब्द समूह का एक अर्थ प्रमदा अवनस्य भी होगा – उससे सम्बंधित जो एक महिला की रक्षा करने आया हो, इसमें यमक अलंकार है।)
स तस्य कृत्वार्थपतेर्महाकपि;र्महद्व्यलीकं मनसो महात्मनः ।
युयुत्सुरेको बहुभिर्महाबलैः; श्रिया ज्वलंस्तोरणमाश्रितः कपिः ॥
अपने अद्भुत तेज से प्रकाशित महाकपि इस प्रकार उत्पात द्वारा वैभवशाली रावण के मन को विशेष कष्ट पहुँचाने वाला कार्य कर, अनेक महाबलियों के साथ अकेले ही युद्ध करने के उत्साह के साथ प्रमदावन के तोरण पर आ पहुँचे।
ततः पक्षिनिनादेन वृक्षभङ्गस्वनेन च । बभूवुस्त्राससंभ्रान्ताः सर्वे लङ्कानिवासिनः ॥
विद्रुताश्च भयत्रस्ता विनेदुर्मृगपक्षुणः । रक्षसां च निमित्तानि क्रूराणि प्रतिपेदिरे ॥
ततो गतायां निद्रायां राक्षस्यो विकृताननाः । तद्वनं ददृशुर्भग्नं तं च वीरं महाकपिम् ॥
स ता दृष्ट्व महाबाहुर्महासत्त्वो महाबलः । चकार सुमहद्रूपं राक्षसीनां भयावहम् ॥
उधर पक्षियों के कोलाहल एवं वृक्षों के टोटने के स्वर सुन समस्त लङ्कानिवासी भयभ्रांत हो उठे। पशु पक्षी भयभीत हो भागने तथा आर्त्तनाद करने लगे। राक्षसों के समक्ष भयङ्कर अपशकुन प्रकट होने लगे। प्रमदावन मे सोई विकृतमुखी राक्षसियों की निद्रा टूट गयी। तब उन्हों ने भग्न हुये वन एवं वीर महाकपि को देखा। महाबली, महान सत्त्ववान एवं महाबाहु हनुमान ने जब उन राक्षसियों को देखा, तब उन्हें भयावह लगता महान रूप धारण कर लिया।
ततस्तं गिरिसंकाशमतिकायं महाबलम् । राक्षस्यो वानरं दृष्ट्वा पप्रच्छुर्जनकात्मजाम् ॥
कोऽयं कस्य कुतो वायं किंनिमित्तमिहागतः । कथं त्वया सहानेन संवादः कृत इत्युत ॥
आचक्ष्व नो विशालाक्षि मा भूत्ते सुभगे भयम् । संवादमसितापाङ्गे त्वया किं कृतवानयम् ॥
पर्वताकार काया वाले महाबली वानर को देख वे राक्षसियाँ जानकी से पूछने लगीं,”विशाललोचने! यह कौन है? किसका है? और कहाँ से किस निमित्त से यहाँ आया है? इसने तुम्हारे साथ क्यों संवाद किया?
राक्षसियाँ घबराई हुई थीं, अत: सीता हेतु चित्तनुरञ्जक संबोधनों के साथ अपनी घबराहट उनके ऊपर आरोपित कर पूछने लगीं – कजरारे नेत्रों वाली सुन्दरी! भयभीत न हो, इसने तुमसे क्या बातें की?
चतुर सीता ने स्थिति को समझते हुये लोकोक्ति एवं राक्षसों के बारे में प्रचलित बातों का आश्रय ले उन्हें घुमा दिया। साध्वी शब्द द्वारा वाल्मीकि आकर्षक विरोधाभास गढ़ते हैं कि एक साध्वी भी ऐसा कर सकती है!
अथाब्रवीत्तदा साध्वी सीता सर्वाङ्गशोभना । रक्षसां कामरूपाणां विज्ञाने मम का गतिः ॥
यूयमेवास्य जानीत योऽयं यद्वा करिष्यति । अहिरेव अहेः पादान्विजानाति न संशयः ॥
अहमप्यस्य भीतास्मि नैनं जानामि कोऽन्वयम् । वेद्मि राक्षसमेवैनं कामरूपिणमागतम् ॥
सर्वाङ्गसुंदरी साध्वी सीता बोलीं,”इच्छानुसार रूप धारण करने वाले राक्षसों के अभिज्ञान का मेरे पास क्या उपाय है? तुम्हीं जानो कि यह कौन है और क्या करेगा? साँप के पैरों को साँप ही जानता है, इसमें संशय नहीं! मैं भी इसे देख कर अति भयभीत हूँ, नहीं जानती कि यह कौन है? मैं तो इसे इच्छानुसार रूप धारण कर आया हुआ कोई राक्षस ही समझती हूँ।”
साँप के पाँव नहीं होते परंतु मायावियों के आचरण हेतु लोकोक्ति रूप में प्रचलित उस सम्भावना की बात कर सीता ने राक्षसियों को भुलावा दे दिया।
वैदेह्या वचनं श्रुत्वा राक्षस्यो विद्रुता द्रुतम् । स्थिताः काश्चिद्गताः काश्चिद्रावणाय निवेदितुम् ॥
राक्षसियों ने यह सुना तो कुछ वहीं बनी रहीं तथा कुछ प्राणभय से रावण को यह समाचार सुनाने दौड़ पड़ीं। अत्याचारी एवं शक्तिशाली स्वामी के सेवक उसकी मानसिक दुर्बलताओं एवं आशंकाओं का प्रयोग उसकी मति भ्रमित करने एवं समस्या से ध्यान हटा अपने को बचाने हेतु करते हैं। राक्षसियों ने यही किया।
रावणस्य समीपे तु राक्षस्यो विकृताननाः । विरूपं वानरं भीममाख्यातुमुपचक्रमुः ॥
अशोकवनिका मध्ये राजन्भीमवपुः कपिः । सीतया कृतसंवादस्तिष्ठत्यमितविक्रमः ॥
न च तं जानकी सीता हरिं हरिणलोचणा । अस्माभिर्बहुधा पृष्टा निवेदयितुमिच्छति ॥
वासवस्य भवेद्दूतो दूतो वैश्रवणस्य वा । प्रेषितो वापि रामेण सीतान्वेषणकाङ्क्षया ॥
तेन त्वद्भूतरूपेण यत्तत्तव मनोहरम् । नानामृगगणाकीर्णं प्रमृष्टं प्रमदावनम् ॥
न तत्र कश्चिदुद्देशो यस्तेन न विनाशितः । यत्र सा जानकी सीता स तेन न विनाशितः ॥
जानकीरक्षणार्थं वा श्रमाद्वा नोपलभ्यते । अथ वा कः श्रमस्तस्य सैव तेनाभिरक्षिता ॥
चारुपल्लवपत्राढ्यं यं सीता स्वयमास्थिता । प्रवृद्धः शिंशपावृक्षः स च तेनाभिरक्षितः ॥
तस्योग्ररूपस्योग्रं त्वं दण्डमाज्ञातुमर्हसि । सीता संभाषिता येन तद्वनं च विनाशितम् ॥
कोई विकटरूपधारी भयङ्कर वानर प्रमदावन में आ पहुँचा है। राजन! अशोकवनिका में आया वह वानर भीमकाय है। उसने सीता से बातचीत की है। वह महापराक्रमी वानर अभी वहीं है। और हमारे बहुत पूछने पर भी मृगनयनी जानकी सीता उस वानर के विषय में हमें कुछ बताना नहीं चाहती हैं। सम्भव है कि वह इंद्र या कुबेर का दूत हो अथवा श्रीराम ने ही उसे सीता की खोज हेतु भेजा हो!
अद्भुत रूप धारण करने वाले उस वानर ने आप के मनोहर प्रमदावन को, जिसमें नाना प्रकार के पशु पक्षी रहा करते थे, उजाड़ दिया। वहाँ कोई भी ऐसा भाग नहीं है जिसे उसने नष्ट न कर डाला हो। केवल जानकी सीता जहाँ रहती हैं, उस स्थान को नष्ट नहीं किया है। जानकी की रक्षा के लिये उसने उस स्थान को बचा दिया है या परिश्रम से थक कर – यह निश्चित रूप से जान नहीं पड़ता। अथवा उसे परिश्रम से क्या हुआ होगा, उसने उस स्थान को बचा कर सीता की ही रक्षा की है। मनोहर पल्लवों और पत्तों से भरा हुआ वह विशाल शिंशपा वृक्ष, जिसके नीचे सीता का निवास है, उसने सुरक्षित रख छोड़ा है।
जिसने सीता से वार्त्तालाप किया और उस वन को उजाड़ डाला, उस उग्र रूपधारी वानर को आप कोई कठोर दण्ड देने की आज्ञा प्रदान करें।
सीता को ले कर रावण के मन का काम दौर्बल्य राक्षसियों को ज्ञात था। उन्हों ने उसके क्रोध को धधकाने हेतु ईर्ष्या जगाती बात जोड़ी :
मनःपरिगृहीतां तां तव रक्षोगणेश्वर । कः सीतामभिभाषेत यो न स्यात्त्यक्तजीवितः ॥
हे राक्षसेश्वर! आप की मनोनीता सीता से बातचीत कर कोई क्यों कर जीता रह सकता है?
राक्षसीनां वचः श्रुत्वा रावणो राक्षसेश्वरः । हुताग्निरिव जज्वाल कोपसंवर्तितेक्षणः ॥
तस्य क्रुद्धस्य नेत्राभ्यां प्रापतन्नश्रुबिन्दव: । दीप्ताभ्यामिव दीपाभ्यां सार्चिष: स्नेहबिन्दव: ॥
वाञ्छित प्रभाव हुआ, राक्षसियों के वचन सुन कर राक्षसराज रावण आहुति प्राप्त अग्नि की भाँति क्रोध से प्रज्ज्वलित हो उठा और उसके नेत्र रोष से घूमने लगे। क्रोध के चरम में वह हुआ जो अत्यल्प ही घटित होता है।
क्रोध में भरे रावण की आँखों से आँसू की बूँदें टपकने लगीं, मानो जलते हुये दो दीपों से आग की लपटों के साथ तेल की बूँदें झर रही हों!
(कुछ संस्करणों में हुताग्नि के स्थान पर चिताग्नि है जो कि यहाँ अधिक सटीक लगता है। हनुमान के रूप में उसका काल मानो मृत्यु का संदेश ले आ पहुँचा था तथा वह वैसे ही भभक पड़ा जैसे मृत देह पा कर चिता धधक उठती है। जलते हुये दीपों से झरते तेल की उपमा भी मृतक संस्कार में प्रयुक्त विशेष दीपों से साम्य रखती है।)
रावण ने हनुमान को पकड़ने हेतु – निग्रहार्थे हनूमत:, अपने समान ही वीर किङ्कर नाम से प्रसिद्ध राक्षसों को आज्ञा दे दी – आत्मन: सदृषान्वीरान्किङ्करान्नाम राक्षसान् ।