जीवन कैसे? किसने बनाया? क्यों? इसके उद्देश्य? इसकी सिद्धि? मृत्यु क्यों? उसके पश्चात क्या? ईश्वर या कोई पारलौकिक सत्ता? स्वर्ग? नरक? ….. सरल से दिखते इन लघु प्रश्नों के उत्तर देने के प्रयासों ने ही सभ्यताओं व संस्कृतियों को गढ़ा। जाने कितने रक्तपात, विनाश, प्रवजन, समूल नाश आदि उन लोगों द्वारा किये गये जिनकी मान्यता थी कि उन्होंने सभी उत्तर पा लिये हैं। ये प्रश्न ऐसे हैं जिनके उत्तर मिल कर भी नहीं मिलने और प्रक्रिया चलती रहेगी। संसार में कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहनें चाहिए, रहेंगे।
बड़ी विचित्र सी बात दिखती है उन लोगों में जिन्होंने उत्तर पा लेने की बातें कहीं। किसी के समस्त प्रश्न समाप्त हो जायें, यह बहुत ही अनोखी स्थिति होती होगी, कुछ कुछ वैसी जिसका आभास नासदीय सूक्त में मिलता है। वैसे मनई के लिये क्या संसार, क्या देह? उसे तो विमीय जगत से परे हो जाना चाहिये किन्तु वास्तविकता में हम क्या पाते हैं? एक मृत्युपर्यंत ४० वर्षों तक घूमता रहता है यह बताने को कि मुझे उत्तर मिल गये हैं, ये हैं उत्तर! वह अन्यों से वाद-विवाद करता चलता है। अरे बाबा! मिल गया तो मौन बैठो न! दूसरों को स्वयं पाने दो न! यह घूमना, वाद विवाद, संघ, मठ, दीक्षा आदि ये सब तो घोर राजस भाव हैं। या तो तुम्हें उत्तर मिले ही नहीं, केवल अभिनय कर रहे हो या तुम्हें भय है कि तुम्हारे उत्तर खो जायेंगे, उन्हें चिरञ्जीवी करो। तुम भूल गये कि यदि उत्तर वही थे जो होने थे तो यह सब करने की आवश्यकता ही नहीं थी। तुम भूल गये कि अमर नहीं हो और जिनके मत्थे सब पटक कर जाओगे वे तुम जैसे तो नहीं ही होंगे। परिणाम क्या होगा? वे अपनी समझ उसमें मिलायेंगे, प्रतिमायें बनायेंगे, मत्था पटकने के सूक्त, स्तोत्र, सेवा के नियम और जाने क्या क्या और यही सब उनके उत्तर हो जायेंगे! और संसार के समक्ष नये प्रश्नों की बाढ़ बढ़ती जायेगी।
हम इतिहास देखें तो सर्वत्र, हर काल में यही हुआ पाते हैं। जिन्हें उनकी समझ से उत्तर मिल गये, मानों उनके भीतर राजस भाव के चक्रवात चल रहे थे। वे हर दृष्टि से यह सुरक्षित कर देना चाहते थे कि उनके उत्तर सदातन रहें। कोई दक्षिण से उत्तर तक वाद-विवाद करता घूमा और चारो दिशाओं में मठ बना गया। मठ, विहार आदि निरंतरता सुनिश्चित करने को बनाये जाते हैं। एक मठाधीश होगा, वह शिष्य बनायेगा, जीवन भर सुनी व लिखी बातों को दुहरायेगा और मरते समय उसका परम सन्तोष इसमें होगा कि अपने जैसा एक मठाधीश छोड़ गया और कुछ प्रतिशत शिष्य भी बढ़ा गया।
सबसे हास्यास्पद स्थिति तो उनकी है जो एक और केवल एक कहते रहते हैं। संसार में सबसे अधिक रक्त इनके द्वारा बहाया गया, सबको अपने जैसा बनाने के लिये। वह भी कैसा? यह पुस्तक है और इसमें सारे उत्तर हैं। या तो इसे मानो या मरण समझो! ऐसे मूर्ख बुत नहीं पूजते तो क्या हुआ? मूर्खता के भेड़झुण्डों के बीच वे बड़े-बड़े ऐसे निर्माण करते चले गये और अभी भी लगे हुये हैं जिनका कि सामरिक महत्व भी हो। प्रार्थना हेतु जब किसी प्रतिमा विशेष की आवश्यकता ही नहीं तो साप्ताहिक जुटान व उनके लिखे अट्टालिक निर्माणों की क्या आवश्यकता? नहीं, हमें तो उत्तर प्रसार करने हैं? अपने जैसों की संख्या बढ़ानी है और उसके लिये कुछ संख्यायें घटानी पड़ें तो ऐसे निर्माणों की आवश्यकता तो रहेगी ही! एक स्थान पर जुटा कर सम्मोहित करना सरल होता है। नारा लगाते हुये हजार एक स्थान से निकलें तो उसका प्रभाव कितना बड़ा होता है! जिसके कारण यह सब हुआ और हो रहा है, उसे उत्तर कदापि नहीं मिले थे, इतना निश्चित है।
एक अन्य जमात छल व छद्म से यह काम करती है। उसके अनुसार उसके आका ने सबके पापों के निवारण हेतु स्वयं को टँगवा दिया था! इससे मूर्खतापूर्ण बात क्या हो सकती है? किंतु उनके अनुसार तो आका को सब उत्तर मिल गये थे और वे भी इतने सटीक कि चाहे जो करना पड़े, उन्हें दूसरों को रटाना कर्तव्य है। अरबों खरबों धन आ रहा है, नित नये निर्माण हो रहे हैं, छल-छद्म-प्रलोभन के नये कीर्तिमान स्थापित किये जा रहे हैं। यह सब शताब्दियों से चल रहा है और सबके पास अपने अपने उत्तर हैं। कोई भी उत्तर किसी अन्य के उत्तर से मेल नहीं खाता। मेल खाते तो यह सब करने की आवश्यकता ही नहीं थी। संसार व उसके जीवधारी कितना नीरस जीवन बिता रहे होते! कितना बोरडम चहुँओर पसरा होता, है कि नहीं?
पेट, पट, आवास और प्रजनन आवश्यकताओं की पूर्ति के पश्चात सरल व लघु अनुत्तरीय प्रश्न ही मिलते हैं अन्यथा जीना कठिन हो जाय! कुछ लोग खाओ, पियो, आनंद मनाओ और मर जाओ; इससे अधिक जीवन को मानते ही नहीं! उनके लिये संतान भी अनावश्यक बोझ होती है। उनका सारा प्रयास अपने अनुकूल जीविका की प्राप्ति होती है और वे जीवन भर उसे लेकर होने वाली संतुष्टि के पीछे भागते रहने को अभिशप्त होते हैं। उनके लिये प्रश्न भी वही, उत्तर भी वही। आजकल यह चलन बढ़ रहा है। आयु अधिक होने पर उनकी क्या स्थिति होगी, भविष्य के गर्भ में है।
पुराना चलन यह था कि कुल की परम्परा में अच्छे से जी लिये, कुछ संतानें उसे आगे बढ़ाने को हो गयीं और आँखें मूँद लिये। देखें तो मठ, पीठ, विहार आदि इसी के दूसरे रूप हैं, संरचना में भले बड़े भेद दिखते हों किंतु मूलभूत बात वही है। परम्परा की स्थिति भी बड़ी विचित्र है। धीरे से एक फुनगी कहीं जोड़ दी जाती है और वह कालक्रम में विशाल वृक्ष बन जाती है, ढूँढ़ते रहिये जन्मकुण्डली! ४० वर्ष घूमते रहने वाले जिस शुक्लदंता परिव्राजक की बात ऊपर की है, उसे अन्यों को न उगलना बने, न निगलना। पहले तो कुछ समय उसे मान्यता दी गई और तब एक फुनगी लगाई गई कि नहीं, यह वह नहीं जिसे सब समझ रहे, वह तो इससे तेरह सौ वर्ष पूर्व कहीं और हुआ था! और उसने अत्याचारियों को अपने भ्रामक उपदेशों से भ्रमित कर दिया जिससे वे वेदविमुख हो कर नष्ट हो गये। अर्थात् छल की भी स्वीकार्यता है। जब सभी नष्ट हो गये तो तेरह सौ वर्षों पश्चात उनके उच्छेद की कैसे आवश्यकता पड़ गयी जो कि तब भी पूरा कलुष मचाये हुये थे? इसके लिये भी कोई न कोई उपाय ढूँढ़ लिया जायेगा।
मानव इतिहास ऐसे प्रकरणों से भरा पड़ा है। आश्चर्य नहीं कि प्रतिक्रिया में पुरोहित वर्ग को गालियाँ पड़ती रही हैं जिनका मार्जन वे शासक वर्ग को गालियाँ दे करते रहे हैं! गाली देने वाले भी विचित्र हैं, सर्वहारा की बातें करते हैं और प्रतिमा निर्माण में, पुस्तक छापने में, क्रूर हिंसा में उन्हें भी हरा देते हैं जिन्हें गालियाँ दे रहे होते हैं!
ले दे कर हमारे पास वही सनातन हल बच जाता है जिसके पास उक्त प्रश्नों के स्पष्ट उत्तर नहीं हैं। उसके लिये वे प्रश्न प्रश्न हैं ही नहीं क्योंकि उन्हें तो अनुत्तरित ही रहना है। उपाय यह है कि सर्वाङ्गीण अभिवृद्धि में लगे रह कर सुखपूर्वक यह जीवन जियो और अपने पीछे अपने जैसे ही छोड़ जाओ। सबको अपने उत्तर स्वयं ढूँढ़ने दो, सबको जीने दो। परंतु अपनी रक्षा करने में कोई चूक नहीं करो क्योंकि वे जो समस्त प्रश्नों के सटीक उत्तर जानने की बातें करते हैं, तुम्हारे लिये चिर सङ्कट बने रहेंगे।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इस शान्तिपाठ का द्रष्टा मनुष्य की प्रकृति जानता था। ऊपर जो भी लिखा है, उसे ध्यान में रखते हुये इस मन्त्र पर विचार करें, यह मात्र उतना ही नहीं है जितना दिखता है। कोलाहल के बीच शान्ति ‘सुनने’ वाले अत्यल्प ही रहे हैं।