बुद्धिमत्ता (wisdom) से जुड़े अध्ययनों में विगत वर्षों में एक रोचक तथ्य सामने आया जिसका मर्म था :
जिन परिस्थितियों में स्वयं के लाभ के लिए अपनी बुद्धि से जैसा उत्तम निर्णय लेना चाहिए वैसा न ले कर हम बहुधा उसके विपरीत करते हैं, हम दूसरों को वैसी ही परिस्थियों के लिए अच्छे सुझाव देते हैं।
वाटरलू विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक ईगोर ग्रॉसमैन ने वर्ष २०१४ में सम्बन्धों के संदर्भ में प्रकाशित अपने शोध में इसे सॉलोमन विरोधाभास (Solomon’s Paradox) की संज्ञा दी — यहूदी सम्राट सॉलोमन जो दूसरों के लिए तो उत्तम निर्णय लेता और समुचित सुझाव देता परन्तु स्वयं के लिए कभी अच्छे निर्णय नहीं लिये और अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी मूढ़ की भाँति एक के पश्चात एक बुरे निर्णय लेता रहा।
अर्थात् उसी समस्या के लिए यदि हमें किसी और को सुझाव देना हो तो हम भली-भाँति विचार कर समुचित एवं बुद्धिमता पूर्ण सुझाव देते हैं पर स्वयं के लिए उस प्रकार से वैसे निर्णय नहीं ले पाते। उसी समस्या के लिए हम अपने लिए बहुधा अतार्किक निर्णय ले लेते हैं। सोचें तो हम अपने लिए तो सदा ही अच्छे निर्णय लेंगे न? हम अपने भले-बुरे, लाभ-हानि को भली-भाँति समझते हैं तथा स्वयं को भी भली भाँति समझते हैं। और जो बातें हमें प्रभावित करने वाली हैं हम उन बातों पर भली-भाँति विचार करते हैं न कि दूसरों की समस्या का?
ऐसा कैसे हो सकता है कि हम गहराई से विचार तब करते हैं जब समस्या किसी और की हो?
दूसरों को इतना नहीं जानते हुए भी किस प्रकार हम उनके लिए हर विकल्प को सोच अच्छा निर्णय ले पाते हैं?
यह विरोधाभास सहज ग्राह्य नहीं है। परंतु एक के अनन्तर एक कर अनेक अध्ययनों में इसकी पुष्टि हुई।
वर्ष २०१७ में सामाजिक विरोध के संदर्भ में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में भी इस विरोधाभास की पुष्टि हुई, जिसमें यह पाया गया कि सामाजिक विरोध के संदर्भ में भी स्वयं की तुलना में व्यक्ति दूसरों के संदर्भ में अधिक तार्किक रूप से सोचते हैं। इस अध्ययन में यह भी कहा गया कि सच्चा पाण्डित्य (wisdom) उसके पास ही है जो स्वयं के लिए भी उसी प्रकार के तार्किक निर्णय ले सके जैसे अन्य के लिए विचारते हुए ले पाता है। इसी प्रकार रचनात्मकता के संदर्भ में वर्ष २०११ में हुए एक अध्ययन में भी ऐसा ही पाया गया। वर्ष २०१७ में हुये अध्ययन ने इस सिद्धांत को संकट स्थिति (risk taking) की अवस्था में भी सच पाया। लाभ होने वाली अवस्थाओं में हम दूसरों के लिए स्वयं की तुलना में अधिक अत्यय (risk) लेने का परामर्श देते हैं, इसके विपरीत हानि होने की अवस्थाओं में हम दूसरों के लिए अल्प अत्यय लेने का सुझाव देते हैं और स्वयं के लिए अधिक।
इस विरोधाभास का हल क्या है?
यदि बुद्धिमान होते हुए भी हम सम्बन्धों, सामाजिक समस्याओं, निवेश इत्यादि में स्वयं से अधिक दूसरों के लिए अच्छे निर्णय लेते हैं तो स्वयं के लिए भी बुद्धिमान कैसे बना जाय?
इसका एक हल मनोवैज्ञानिकों ने सुलझाया जिसे उन्होंने आत्म-दूरी (self-distancing) की सञ्ज्ञा दी। अर्थात् यदि कोई महत्त्वपूर्ण व्यक्तिगत निर्णय लेना हो तो ऐसी कल्पना करना कि यह समस्या मेरी नहीं है या अपने आप को उससे दूर कर देखना। वर्ष २०१२ में प्रकाशित अध्ययन Boosting wisdom: Distance from the self enhances wise reasoning, attitudes, and behavior के अनुसार ऐसा करने से व्यक्ति स्वयं के लिए भी बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय ले पाता है। अध्ययनों में यह भी पाया गया कि अपनी समस्याओं को किसी और की समस्या के रूप में लिखने से भी अच्छे निर्णय लेने में लाभ मिलता है। अर्थात् अपनी समस्या को ऐसे लिखना जैसे वे किसी अन्य की हों और तब ‘उस व्यक्ति’ को सुझाव देना। इसे कुछ मनोवैज्ञानिक बुद्धिमत्ता के प्रशिक्षण के रूप में उपयोग में लाने पर भी विचार कर रहे हैं। परंतु यह इतना सरल नहीं है।
इस नए अध्ययन, विरोधाभास एवं उसके हल को यदि सनातन सन्दर्भ में देखें तो ‘Distance from self’ भला ‘निष्काम कर्म’ या ‘अनासक्ति’ से किस प्रकार भिन्न है? जहाँ ये विगत दशक के शोध कहते हैं कि ऐसा होना स्वाभाविक है या प्राकृतिक नियम है, वहीं इस समस्या और समाधान दोनों को ही सनातन दर्शन में अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले, मोह जाल में फँसे तथा विषयभोगों में आसक्त लोग के संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है — जो कि कुछ सीमा तक सारे मनुष्य होते हैं।
स्पष्ट रूप से गीता के सोलहवें अध्याय में विवरण आता है कि अनेकचित्त विभ्रान्त, आत्मकेन्द्रित और विषयासक्त पुरुष का मन सदैव अस्थिर रहता है। ऐसे व्यक्ति अनेक प्रकार की भ्रामक कल्पनाओं से अपने मन की एकाग्रता की क्षमता को क्षीण कर लेते हैं। उनकी बुद्धि की स्थिति भी दयनीय ही होती है। विवेक और निर्णय की उनकी क्षमता मोह और असत मूल्यों में फँस जाती है। आश्रयविहीन बुद्धि किस प्रकार उचित निर्णय और जीवन का सही मूल्याङ्कन कर सकती है?
ऐसे दोषपूर्ण मन और बुद्धि के द्वारा अवलोकन करने पर भला क्या दिखेगा? स्वामी चिन्मयानन्द अपनी व्याख्या में लिखते हैं — विषयों में आसक्त जिस पुरुष की बुद्धि मोह से आच्छादित हो और मन विक्षेपों से अशान्त हो, उसकी इन्द्रियाँ भी असंयमित ही होंगी। यदि वाहन की चालकशक्ति ही मदोन्मत्त हो तो कार की गति भी संयमित नहीं हो सकती।
मन से भ्रमित और बुद्धि से विचलित ये लोग यहीं पर स्वनिर्मित नरक में रहते हैं तथा अपने दुख और कष्ट सभी को वितरित करते हैं। इस तथ्य को समझने के लिए हमें कोई महान् दार्शनिक होने की आवश्यकता नहीं है। …यदि समस्त वातावरण और परिस्थितियाँ अनुकूल भी हों तो ऐसा व्यक्ति अपनी आन्तरिक पीड़ा और दुख के द्वारा उन्हें प्रतिकूल बना देता है। यदि इन आसुरी गुणों से युक्त केवल एक व्यक्ति भी सुखद परिस्थितियों को दु:खद बना सकता है तो हम उस जगत् की दशा की भली-भाँति कल्पना कर सकते हैं जहाँ बहुसंख्यक लोगों में अल्पाधिक मात्रा में यही धारणायें होती हैं।
अधिक क्या, यह तो प्रसिद्ध ही है कि जो व्यक्ति भय का हेतु अथवा हर्ष का कारण उपस्थित होने पर भी विचार-विमर्श से काम लेते हैं तथा कार्य को सहसा ही नहीं कर डालते, वे कभी भी सन्ताप को प्राप्त नहीं होते। इन विचार-विमर्शों में यह भी तो समाहित ही है कि कार्य से स्वयं को दूर कर देखा जाय। इस प्रकार Distance from self तो स्पष्टतः निष्काम कर्म का विशेष रूप ही है — कार्य-फल की आकांक्षा से रहित हो – सम्बंध, सामाजिक विरोध, रचनात्मकता ही क्यों, जीवन का प्रत्येक कार्य ही निष्काम हो।
निष्काम कर्म का अर्थ यही तो है कि कार्य करते समय या उसका विचार करते समय इन्द्रियों में किसी प्रकार की लिप्तता का अनुभव न हो। जब कर्म करते समय चित्त में कर्माशय एवं कर्मफल अनुपस्थित हों तो भला ऐसे व्यक्ति को Distance from self सोचने की आवश्यकता भी क्या होगी? अपनी इच्छा से स्वयं को अनासक्त करने की शक्ति ही तो Distance from self है! सनातन अनासक्त तो सांसारिक घटनाओं का केवल साक्षी है- तटस्थ द्रष्टा है, Distance from self उसका विशेष रूप मात्र है।