यद्यपि भारतीय गणना-पद्धति प्रारम्भ से ही दाशमिक प्रणाली आधारित रही है तथापि भारतीय गणना-कर्म में षोडश पद्धति का भी बहुत प्रचलन रहा है। षोडश पद्धति अर्थात् सोलह को आधार (base) मान कर की जाने वाली गणना। प्राचीन भारत में शास्त्रीय गणित भले दस के गुणक में चले, व्यवहार गणित तो चार, आठ, सोलह, बत्तीस की शैली में ही चला करता था जो परम्परा अभी भी पूर्णतः समाप्त नहीं हुई है। खेती में सस्य के बोझ या गाँठ आज भी सोरही में गिने जाते हैं। अन्य क्षेत्रों में भी यह प्रणाली रची-बसी सी ही है।
गणना में ही नहीं, सोलह की संख्या का भारतीय संस्कृति में अन्य प्रकार से भी बहुत महत्व है। अमावस्या और पूर्णिमा की कलाओं को मिला कर चंद्रमा की सोलह कलायें होती हैं। षोडशी नारी का सौंदर्य तथा आकर्षण अपने चरम पर तथा उसकी प्रजनन शक्ति प्रबलतम होती है। अष्टाङ्ग योग, अष्टाङ्ग धूप, अष्ट दुर्गा, नारियों के सोलह शृंगार, षोडश संस्कार, षोडश मातृकायें, बत्तीस लक्षणों से युक्त नारी, पुरुषों वा महापुरुषों के बत्तीस लक्षण और अस्सी अनुव्यञ्जन आदि सब इसी गणना-पद्धति के अवदान हैं, या यह कहिये कि इन सब के कारण ही षोडषी पद्धति हमारे देश में बहुत प्रचलित रही। इन पर किसी अन्य लेख में विस्तार से चर्चा करेंगे।
गणना में इस प्रणाली की उपयोगिता का आधार है किसी संख्या को चार भागों में विभाजित करने की सुविधा! अर्थात् इस प्रणाली का ही एक भाग चतुर्थांश प्रणाली भी है जिसमें पूर्ण अंक एक (१) को चार भागों में विभाजित किया जाता था और अब भी किया जाता है। इन भागों का मान १/४ है तथा इन भागों को पाद या चरण कहते हैं। इस प्रकार चार से विभाजित संख्या की लब्धि का मान १/४ भाग ही एक पाद या एक चरण है। आप सभी ने सत्ययुग में धर्म के चार, त्रेता में तीन, द्वापर में दो और कलियुग में धर्म के एक पाद के सम्बंध में सुना होगा, नक्षत्रों के चार चरण सुने होंगे, शनि की साढ़े साती के चार पाद सुने होंगे, और ये पाव, पवन्ना, सवा, ड्योढ़ा, अढैया जो इस आलेख का विषय ही हैं, ये सभी, सभी उसी चतुर्थांश प्रणाली के ही शब्द हैं। चतुर्थांश का अर्थ है चौथा भाग या १/४।
‘एक’ पूर्णांक के चार भाग ही चार पाद या चार चरण कहे जाते हैं। यही पाद या चरण साधारण बोली में पाँव और अनंतर ‘पाव’ हो गया। एक पाव का अर्थ है एक पाद, या एक पूर्णांक का चतुर्थांश! संख्या १ के एक पाद के लिये एक की अभिव्यक्ति आवश्यक नहीं क्योंकि वह अंतर्निहित है, तब भी एक पाद को एक पाव कहा ही जाता है! किन्तु यहाँ एक (१) का उच्चारण आवश्यक नहीं क्योंकि स्पष्ट है कि यह ‘पूर्णांक एक’ का ही चतुर्थांश है। अतः ‘पाद’ मात्र या ‘पाव’ भर कहना पर्याप्त है। समय के साथ यह ‘पाद’ मात्र या ‘पाव’ भर, ही ‘पाव भर’ हो गया। यह चतुर्थांश भाग एकाकी ही हो तो एक पाद या एक पाव या पाव भर है, किन्तु यह चतुर्थांश या १/४ यदि किसी संख्या के साथ जुड़ा हो तो उस संख्या को स-पाद संख्या या ‘सवा संख्या’ कहते हैं जो अभी स्पष्ट होगा किन्तु उसके पूर्व पौन, पौना, पौने या पवन्ना!
यदि किसी संख्या का एक चतुर्थांश या १/४ भाग अल्प है तो इसका अर्थ है कि उसमें चार में से एक पाद नहीं है, न्यून है। इसे संस्कृत में पादोन (पाद+न्यून = पाद+ऊन = पादोन) संख्या कहेंगे। ‘ऊन’ शब्द, न्यून का ही द्योतक है जिसका तात्पर्य है हीनता व्यक्त करना। जैसे, ३.७५ या ३+(३/४) का अर्थ हुआ चार पूर्ण अंक से एक का एक चतुर्थांश न्यून अर्थात् पादोन चतुः या पादोन चार। यही पादोन बिगड़ते-बिगड़ते ‘पौन’ हो गया, तो भी बोली में इसका अर्थ यही है – पाद न! पाँव न! पाव न! पौ न! पौन! अब बोली उसे पौन कहे, पौना कहे, पौने कहे, जो कहे! क्योंकि जनता-जनार्दन द्वारा अपनी भाषा के शब्दरूप स्वयं गढ़े जाते हैं और क्योंकि जनता स्वयं में ही किसी भी ‘यास्क’ से अधिक समर्थ है।
जिस संख्या में एक चतुर्थांश अधिक हो वह संख्या स-पाद संख्या हुई, ‘पूर्ण संख्या, एक अतिरिक्त पाद सहित’। यह ऊपर उल्लिखित है। सपाद अर्थात् एक पाद सहित, एक पाव अधिक! जैसे, ४.२५ या ४+(१/४) का संस्कृत संस्करण हुआ सपाद चतुः या सपाद चार। यही सपाद बिगड़ कर सवा हो गया। अब जैसा कि हम देख चुके हैं, एक का उच्चारण अनिवार्य नहीं है अतः १.२५ या १+(१/४) के लिये भी एक का बोला जाना आवश्यक नहीं। इसमें एक अंतर्निहित है। अतः सपाद मुद्रा का अर्थ हुआ सवा एक रुपया किन्तु यहाँ सवा एक कहने की आवश्यकता नहीं! सवा रुपया कहना या सवा सेर कहना या सवा घण्टा कहना ही पर्याप्त है। सवा एक कहने में दोष इसी कारण है कि जब कहने की आवश्यकता ही नहीं तो क्यों कहा जाय? किन्तु जब पूर्णांक संख्या एक से अधिक हो तो वह संख्या बतानी होगी जिससे चतुर्थांश अधिक हुआ। तब पूरा कहना पड़ेगा। जैसे सपाद पञ्च मुद्रा हुई सवा पाँच रुपया या सपाद सप्त सेर हुआ सवा सात सेर आदि।
यदि एक के चार भाग करके उसके दो भागों का ग्रहण करें तो यह भाग २/४ होगा। अर्थात् दो पाद। किन्तु चार भाग से दो भाग का चुनाव आधे-आध का चुनाव है। जो संख्या चार भाग में से दो भाग कम या दो भाग अधिक हो वह पूर्णांक की आधी न्यून या आधी अधिक हुई। जैसे, ४.५० या ४+(२/४) या ४+(१/२) को या तो चार से आधा अधिक कहा जायेगा या पाँच से आधा न्यून। अब क्योंकि अधिक कहना गरिमायुक्त है और न्यून कहना हीनताद्योतक तो गरिमायुक्त शब्द ही प्रयोज्य है। संस्कृत में इसे सार्ध चतुः या सार्ध चार (स+अर्ध = सार्ध = आधे के साथ) कहा जायेगा। यही सार्ध बिगड़ कर पहले सार्धे और उसके अनंतर ‘साढ़े’ हो गया।
संख्या विशेष २.५० या २+(१/२) वास्तव में है २+(२/४) ही! शब्द ‘दो’ के साथ इस ‘आधे’ का जुड़ाव संस्कृत में सार्ध द्वय कहा जायेगा। कालक्रम में जिह्वासुख के कारण सार्धद्वय से पहले ‘स’ अलग हुआ और शब्द रह गया अर्धद्वय। यह अशुद्ध था, क्योंकि इसका अर्थ हुआ ‘दो आधे’ अर्थात् एक, किन्तु जब दो और आधे के अर्थ-विशेष सहित यह शब्द प्रचलन में आ गया तो आ ही गया! यही अर्धद्वय बिगड़ कर पहले अर्ध्वाय, उससे अर्ध्वाई तथा उससे आगे अढ़वाई हुआ जो घिसते-घिसते ‘अढ़ाई’ बना। अन्तत: अ हट कर ‘ढाई’ हो गया। अब बचा डेढ़, १.५० या १+(२/४) या १+(१/२! दो की संख्या से आधे अल्प को संस्कृत में द्वयोनार्ध (द्वयो न अर्ध या द्वय + ऊन + अर्ध = दो में आधा नहीं) कहा जायेगा। यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि इसे दो से आधा अल्प क्यों कहा गया, एक से आधा अधिक क्यों नहीं? जबकि पूर्व-वर्णित प्रकरण में आधा अल्प या न्यून कहना हीनताबोधक सिद्ध किया जा चुका है? तो इसका कारण यह है कि एक की संख्या का अकारण उच्चारण ही उचित नहीं माना जाता है, क्योंकि यदि कोई पूर्णांक संख्या है और वह एक से अधिक पूर्णांक नहीं है तो स्पष्ट है कि वह पूर्णांक अधिक से अधिक एक ही हो सकता है। अब जब एक लगाना ही नहीं है तो बिना किसी पूर्णांक संख्या के इस अर्ध को जोड़ें किस संख्या में? मात्र अर्ध से तो आधे का ही बोध होगा! अतः १.५० को एक से आधा अधिक के स्थान पर दो से आधा न्यून कहा गया और इसका संस्कृत स्वरूप द्वयोनार्ध हुआ। यही द्वयोनार्ध जब बिगड़ा तो द्वयोडार्द्ध, उससे ड्योढ़ा, डेढ़ा और अंतत: ‘डेढ़’ हो गया।
अब अन्त में एक संख्या और, जो इसी सोरही संस्कृति की ही देन है! वह संख्या है कोड़ी! अर्थात् बीस! यह संख्या दशक या दस का दूना अर्थ में नहीं है! यह सोलह का सवाया है। बीस की संख्या दस की दूनी अवश्य है, पर जब कोड़ी कहेंगे तो यह षोडश की सपादगुणित (सवा गुना) संख्या है। यह अलग बात है कि दोनों का मान एक ही है किन्तु शैली में भिन्नता के कारण #बीस और #कोड़ी परस्पर भिन्न भाववाची हैं। अतः यह जो ‘कोड़ी’ है वह वास्तव में सपादषोडशी है – सोलह का सवाया! यह सपादषोडशी ही सवासोशी, स्वोशी, खोशी, कोशी से होते होते कोड़ी बन गया।
चार की संख्या तथा इसके गुणन का वर्णन यजुर्वेद-संहिता के अध्याय १८, मंत्र संख्या २५ में भी है जिसके अनुसार –
चतस्रश् च मेऽष्टौ च मेऽष्टौ च मे द्वादश च मे द्वादश च मे षोडश च मे षोडश च मे विᳯशतिश् च मे विᳯशतिश् च मे चतुर्विᳯशतिश् च मे चतुर्विᳯशतिश् च मेऽष्टाविᳯशतिश् च मेऽष्टाविᳯशतिश् च मे द्वात्रिᳯशच् च मे द्वात्रिᳯशच् च मे षट्त्रिᳯशच् च मे षट्त्रिᳯशच् च मे चत्वारिᳯशच् च मे चत्वारिᳯशच् च मे चतुश्चत्वारिᳯशच् च मे चतुश्चत्वारिᳯशच् च मेऽष्टाचत्वारिᳯशच् च मेऽष्टाचत्वारिᳯशच् च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥
अर्थात् यज्ञ के द्वारा मुझे चार, आठ, बारह, सोलह, बीस, चौबीस, अठाइस, बत्तीस, छत्तीस, चालीस, चौवालीस तथा अड़तालीस स्तोम के फल प्राप्त हों! सामान्यतः स्तोम शब्द का अर्थ स्तवन या स्तुति है।
इस मंत्र से स्पष्ट है कि यह चार की संख्या तथा इसके गुणन वैदिक काल से ही बहुत महत्वपूर्ण रहे हैं। इस मंत्र में चार है सोलह का पउवा, आठ है सोलह का आधा, बारह है सोलह का पौना, सोलह है पूर्ण सोरही, बीस है सवा सोरही या सपादषोडशी या कोड़ी, चौबीस है ड्योढ़ा सोरही, अठाइस है पौने दो सोरही, बत्तीस है दो सोरही, छत्तीस है सवा दो सोरही, चालीस है ढाई सोरही या दो कोड़ी, चौवालिस है पौने तीन सोरही और अड़तालीस है तीन सोरही। षोडशी या सोरही के पाव से लेकर, आधा, पौना, पूरा, सवा, डेढ़, ढाई, कोड़ी सब इस मंत्र में आ जाते हैं भले वे हैं दाशमिक पद्धति में। सोलह के द्विगुण और त्रिगुण अर्थात् दूना और तिगुना के रूप बत्तीस तथा अड़तालीस तो हैं ही! भारत के विविध क्षेत्रों तथा भाषाओं में इन शब्दों की उपलब्धता इसी कारण है कि इनका स्रोत संस्कृत है।
वेदों में ही नहीं, तत्त्व-दर्शन, तंत्र तथा आगम के क्षेत्र में भी यह षोडशी अपनी माया का जाल-विस्तार प्रसरित किये है। तत्त्व-दर्शन, तंत्र तथा आगम के संदर्भ में किसी भी टिप्पणी हेतु इन पंक्तियों का लेखक अधिकारी नहीं है किन्तु इनकी धूप-छांह में थोड़ी उछल-कूद की जा सकती है यदि इसमें कोई ललिता सखी साथ देने को सहमत हो।
तत्त्व-दर्शन, तंत्र तथा आगम सम्पूर्ण गोचर-अगोचर, व्यक्त-अव्यक्त, अस्ति-नास्ति के मूल में शिव तथा शक्ति को मानते हैं। काल का आरोप भी शिव-तत्त्व पर ही है तथा उसकी भी अभिव्यक्ति अंततः शक्ति-तत्त्व द्वारा ही होती है। तत्त्व-दर्शन यह मानता है कि पूर्णिमा तथा अमावस्या भी काल-शक्ति के ही दो आनन हैं जिसमें पूर्णिमा काल-शक्ति का स्वयं उद्घाटित स्वरुप है जिसे त्रिपुरसुन्दरी रूप कहा जाता है तथा अमावस्या उसी काल-शक्ति का रहस्यमय बीज रूप है जिसे कालिका कहा जाता है। अतः पूर्णिमा की रात्रि शक्ति-तत्त्व के त्रिपुरसुन्दरी स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती है तथा अमावस्या की रात्रि शक्ति-तत्त्व के कालिका स्वरुप का। इन दोनों स्वरूपों को मिला कर चन्द्रमण्डल की कुल सोलह कलायें हैं जिनमें पंद्रह काल के अधीन हैं और जिनका उद्घाटन शुक्ल-पक्ष की प्रतिपदा से पूर्णिमा तक की रात्रियाँ करती हैं। कृष्ण पक्ष की रात्रियाँ एक-एक कर चन्द्रमण्डल की एक-एक कला का भक्षण करती जाती हैं तथा अमावस्या की रात्रि सर्वभक्षी रात्रि है जो समस्त कलाओं का भक्षण कर लेती है। यहाँ तक सब सामान्य है, साधारण गणित!
ज्योतिष के अनुसार सूर्य तथा चन्द्रमा की स्थितियों में बारह अंश के गुणन में अन्तर के आधार पर ही तिथियों का निर्धारण होता है तथा जब तक यह अन्तर १८० अंश तुल्य वर्द्धमान होता रहता है तब तक शुक्ल पक्ष की तिथियाँ होती हैं तथा क्रमशः यह अंतर जब १८० अंश से बारह के गुणन में ही घटने लगता है तब तिथियाँ कृष्ण पक्ष की होती हैं। यह कलन में भी सरल है, बोधगम्य भी है तथा दृश्य भी है। तत्त्व-दर्शन का रहस्य तो इसके आगे है!
तत्त्व-दर्शन मानता है कि काल के अधीन होने के कारण चन्द्रमण्डल की पन्द्रह कलाओं का तो एक-एक कर भक्षण कर लिया जाता है किन्तु सोलहवीं कला काल के अधीन न होकर महाकाल के अधीन है अतः काल-शक्ति की सर्वभक्षी रात्रि भी उस सोलहवीं कला का भक्षण नहीं कर पाती। वह षोडशी कला ही अमृता कला है तथा अमावस्या के भीतर भी सिनीवाली संज्ञा धारण कर के विद्यमान रहती है।
यही षोडशी कला ललिता है जिसे तंत्र तथा आगम में त्रिपुरसुन्दरी का स्वरुप माना गया है। तंत्रों में त्रिपुरसुन्दरी का एक नाम ललितासुन्दरी भी है और भोग तथा मोक्ष आदि मिले अथवा न मिले, जिसे ललितासुन्दरी का कृपा-कटाक्ष मिल जाये वह लालित्य से संपन्न अवश्य हो जाता है और जिसे इसका कृपा-कटाक्ष नहीं प्राप्त होता वह अपने समस्त योग, तप, अभ्यास, अध्यवसाय आदि से अन्य कुछ भी और सब कुछ भी प्राप्त कर सकता है किन्तु उसमें लालित्य का अभाव रह ही जाता है। सिनीवाली का उल्लेख वेदों में भी है।
इतना ही नहीं, जिन शक्ति-पीठों पर किसी मानुषी को देवी का प्रतिरूप घोषित करने की परम्परा है वहाँ भी किसी षोडश वर्षीया कुमारिका को ही यह सौभाग्य प्राप्त होता है तथा वह अपने सोलहवें वर्ष से ले कर अठाईसवें वर्ष तक देवी पद पर रहती है। यहाँ यह अठाईस की संख्या भी दाशमिक प्रणाली की नहीं वरन इसी षोडश पद्धति की ही संख्या है और पौने दो सोरही तुल्य है। काल का आयुध बना चन्द्रमा भचक्र में क्रमशः सताईस नक्षत्रों का भोग करता है किन्तु महाकाल की वह शक्ति, वह आद्या इससे ऊपर अवस्थित है – मुर्घ्निस्थिता! तो इस सताईस से ऊपर है अठाईस की संख्या जिसे तंत्र-शास्त्र ‘महाषोडशी’ कहता है। भगवती शक्ति का लक्षण है आकर्षण तथा सृजन! सोलह से अठाईस वर्ष आयु तक की नारी ही इस शक्ति से सर्वाधिक संपन्न होती है तथा इसके पश्चात उसकी इस शक्ति का ह्रास होने लगता है।
तंत्र तथा आगम में शक्ति का एक स्वरुप वर्णमालिनी भी है। यह वर्णमालिनी है हमारे वर्णमाला के ‘अ’ से प्रारम्भ हो, ‘ह’ तक के सारे बावन अक्षरों का समूह! यद्यपि व्याख्या की आवश्यकता तो नहीं है, तब भी अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः, ऋ, ॠ, ऌ, तथा ॡ ये सोलह स्वर जिनमें अनुस्वार तथा अनुनासिक (अं तथा अँ) दो भेद से कुल सत्रह स्वर, कवर्ग के क् ख् ग् घ् ङ्, चवर्ग के च् छ् ज् झ् ञ्, टवर्ग के ट् ठ् ड् ढ् ण् (तथा द्विगुण व्यञ्जन ड़् एवं ढ़् भी), तवर्ग के त् थ् द् ध् न्, पवर्ग के प् फ् ब् भ् म्, चार अन्तःस्थ व्यञ्जन य्, र्, ल्, व्, चार ऊष्म व्यञ्जन श् ष् स् ह् ये कुल बावन वर्ण हमारी वाचा की बावनी रचते हैं। व्यञ्जन मात्र वर्णों के व्यञ्जक हैं, वर्ण नहीं। ये वर्ण तब बनते हैं जब कोई स्वर इनसे संयुक्त होता है इसी कारण ये अपने मूल रूप में अर्धाक्षर हैं तथा हल् चिह्न (्) के साथ व्यक्त होते हैं। चार संयुक्त व्यञ्जन क्ष, त्र, ज्ञ तथा श्र संयुक्ताक्षर होने के कारण वर्णमाला की इस तंत्र-बावनी से पृथक हैं। ध्यान रहे कि यह व्याख्या आधुनिक हिन्दी में प्रयुक्त देवनागरी लिपि की वर्ण-संख्या से समान होते हुए भी अपने दार्शनिक अभिज्ञान में भिन्न है।
तंत्र-शास्त्र इन बावन वर्णों को पूर्णम् की संज्ञा देता है। ये पूर्णम् अपने अ-क्षर रूप में निराकार शक्ति के प्रतीक हैं किन्तु जब ये शब्द रूप में ढलते हैं तो सगुण-साकार हो जाते हैं। यह ‘अ’ से ‘ह’ तक की बावनी, यह वर्णमाला, यह निराकार भगवती, यह ‘अ’ से ‘ह’ तक का ‘अहं’, हमारे भाषा-शक्ति का बीज है और यह बावन की संख्या भी उसी षोडशी, उसी त्रिपुरसुन्दरी का यंत्र-चक्र है जो अपने मूल में सपाद-त्रयषोडश अर्थात सवा तीन सोरही है। तो यह षोडशी, यह हमारे बोल-चाल की सोरही, वेदों में तो है ही, परन्तु यह तंत्र तथा आगम में भी भगवती शक्ति बन कर समाई है तथा हमारी नागरी लिपि में भगवती वर्णमालिनी के रूप में अवस्थित हो कर हमारी भाषा का भी आलबाल रचती है। आलबाल का अर्थ है थाला, किसी पौधे के चतुर्दिक बनाई जाने वाली वह मेंड़ युक्त स्थालिका या थाली जैसी संरचना जो पौधे को सींचने पर जल को बह जाने से रोकती है।
शास्त्रों तथा अन्यान्य ऐतिहासिक कथानकों में भी, प्राचीन भारत की जिन मुद्राओं का वर्णन प्राप्त होता है जैसे कपर्दिका या वराटका, काकिणी, पण, द्रम्म तथा निष्क आदि वे सभी इसी षोडश पद्धति में मानकीकृत थीं। दैवज्ञकुल-मार्तण्ड श्री भास्कराचार्य ने अपने लीलावती नामक ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में ही मंगलाचरण के तत्काल पश्चात इन मुद्राओं का जो विवरण दिया है उससे स्पष्ट है कि एक सपादषोडशी अर्थात बीस कौड़ियों (वराटका या कपर्दिका – कौड़ी नामक समुद्री जीव जो कभी मुद्रा रूप में व्यवहृत होता था) का मुद्रामान एक काकिणी तुल्य, चार काकिणी एक पण तुल्य, सोलह पण एक द्रम्म तुल्य तथा सोलह द्रम्म एक निष्क तुल्य होता था –
वराटकानां दशकद्वयं यत् सा काकिणी ताश्च पणश्चतस्रः। ते षोडश द्रम्म इहावगम्यो द्रम्मैस्तथा षोडशभिश्च निष्कः ॥
(लीलावती, श्लोक २)
मुझ मूर्ख को यह कहने का साहस नहीं है और अधिकार तो कदापि नहीं है कि गणित के चक्कर में पड़े आचार्य ललित में चूक गये। आचार्य भास्कर थे एक खाँटी आर्य और ऊपर से गणितज्ञ! उनका काव्य भी धनुष की प्रत्यंचा सा खिंचा जैसा था जो चार और सोलह की लचीली धनुषाकृति मापनियों के बीच ‘दशकद्वयं’ से एक सीधे बाण जैसा ही अपना अभिप्राय-लक्ष्य वेध कर संतुष्ट हो रहा। कोई रसिक होता तो लिखता :
कपर्दिकानां सपादषोडश यत् सा काकिणी ताश्च पणश्चतस्रः। ते षोडश द्रम्म इहावगम्यो द्रम्मैस्तथा षोडशभिश्च निष्कः ॥
तब यह सूत्र उस व्यंग्योक्ति से भी समन्वय स्थापित कर लेता जो मुझ पर सटीक बैठती है – ‘गृहे कपर्दिका नास्ति, द्वारे नृत्यति नर्तकी!’ जिसको भोजपुरिया माटी ने अपने अनुसार ढाल लिया है – ‘घर में नाहीं कौड़ी, दुआरे नाचे छौंड़ी!’। कपर्दिका या कौड़ी ठहरी सबसे छोटी मुद्रा, जिसमें मुझ जैसे सोलह क्रय किये जा सकें!
कालान्तर में, जब मुद्रा स्वर्ण-निष्क की न रह कर रजत या रौप्य की होने लगी तब उसे रौप्य-मुद्रा कहा जाने लगा जो लोक-भाषा में रुपया हो गया किन्तु षोडश-पद्धति जस की तस रही भले मुद्राओं के नाम परिवर्तित हो गये और तब एक रौप्य में १६ आना, एक आने में ४ पैसे, एक पैसे में ४ छदाम, १ छदाम में २ दमड़ी, १ दमड़ी में २० कौड़ी, १ कौड़ी में २० फौड़ी तथा १ फौड़ी में २० रचौड़ी होने लगी और ये सब उसी षोडश पद्धति में मानकीकृत थीं।
भार मापन में भी मन, पसेरी, सेर, पाव, छटांक, तोला, माशा, रत्ती, चावल तथा खसखस आदि इसी षोडश-पद्धति आधारित मात्रक रहे। १ मन में ८ पसेरी या ४० सेर, १ सेर में चार पाव, १ पाव में ४ छटांक, एक छटांक में पञ्च तोल या पांच तोला या ६० माशा (एक तोला = १२ माशा), १ माशा में ८ रत्ती, १ रत्ती में ८ चावल और १ चावल में ८ खसखस होते थे। तात्पर्य यह, कि भारतवर्ष दाशमिक संख्या पद्धति के साथ षोडश संख्या पद्धति को साथ ले कर चलता रहा है और यह षोडश संख्या पद्धति हमारे शास्त्रों से ले कर हमारे दैनिक व्यवहार, कथा-कहानियों, तंत्र-आगम, दर्शन तथा भाषा तक में अपना महत्वपूर्ण हस्तक्षेप रखती थी।
निबन्धों तथा आलेखों की एक सीमा होती है। किसी भी शास्त्र को किसी एक आलेख में नहीं सँजोया या समोया जा सकता, अतः विराम लेते हैं।
यह थी भाषा में प्रचलित पाव, पौना, सवा, डेढ़, ढाई और साढ़े के साथ ही कोड़ी की उत्पत्ति और उपपत्ति तथा उसके साथ ही भारतीय गणना-पद्धति में षोडश-पद्धति की सर्वमान्यता! आलेख लघुकाय है, तो भी यथासम्भव विस्तार से लिखा गया है अतः शंकाओं की सम्भावना नगण्य ही होगी यह विश्वास है।
भाषा आदिशक्ति का सर्वाधिक परिष्कृत रूप है जो सत्योन्मुख हो तो प्रकाश देती है किन्तु यदि यह तमोगुण की ओर उन्मुख हुई तो मात्र मोह तथा भ्रम की सृष्टि करती है, मात्र आवरण उत्पन्न करती है, केवल कुहेलिकाओं का जाल पसारती है। और यह भाषा बड़ी ही रहस्यमयी देवी है। अपनी नित्य नवीन सृष्टि से यह इतिहास के सत्य पर भी एक गाढ़ा-मोटा माया-प्रच्छद डाल देती है जो यदा-कदा ही अत्यंत कठिनाई से टूटता है, और पूर्णतः तो कभी नहीं टूटता। कुछ फाँकें बस बन जाती हैं जिनसे छन कर सत्याभास होता है।
यह प्रयास भी उन फाँकों से झाँकता सत्याभास मात्र है। उस आद्या का माया-प्रच्छद तोड़ना इतना सरल कहाँ है? और मुझ से अकिञ्चन हेतु शक्य भी कहाँ है?
साधु साधु।
🙏
बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख।मन में और ज्ञानपिपासा जगाते लेखों के लिए साधुवाद
ज्ञानवर्धक लेख
ज्ञान उन्नायक लेख।
विषय ज्ञान और विवेचना, दोनों ही अद्भुत हैं गुरुदेव
बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी🙏🙏
मैं प्राथमिक शिक्षक रहा हूं। शिक्षा दीक्षा भी अत्यल्प। लेकिन आप के आलेख को पढ़कर भाषा (संस्कृत और हिन्दी)को को देखने, समझने और बोधिसत्व प्राप्त करने का किञ्चित अवसर मिला। बहुत बहुत आभारी हूं।
अद्भुद, अति ज्ञानवर्धक, संस्कार एवम गरिमामय पोस्ट
ओमप्रकाश वेदानन्द झा