गत अङ्क के आमुख लेख में हमने लिखा था कि पितृपक्ष अमरत्व का आयोजन है। पितृविसर्जन हो गया जो आगत एक वर्ष हेतु हमें अपने मूल से जोड़ उद्योग रत होने की ऊर्जा दे गया कि हम उन्नति करेंगे तो पितरों का भी सम्मान बढ़ेगा एवं वे ‘तृप्त’ होंगे। जहाँ यह पक्ष कर्मकाण्डीय तिलाञ्जलि द्वारा उनकी तृप्ति का प्रतीकात्मक आयोजन होता है, वहीं शेष वर्ष के 23 पक्ष अपने कर्मों द्वारा उन्हें तृप्त करने के होते हैं।
पितृपक्ष में कतिपय आरम्भ एवं कतिपय उद्योगों के निषेध के पीछे यह मनोविज्ञान है कि वर्ष के शेष दिनों हेतु कर्मठ रहने को पाथेय के रूप में ऊर्जा सहेज लें जो पितरों के आशीर्वाद से पूरित हो। ऐसे जन भी हैं जो इस समयान्तराल को शुभारम्भ हेतु उपयुक्त मानते हैं, जो भी हो, है यह विशिष्ट।
पितर अपने होते हैं, देवता सबके होते हैं। समस्त धरा को कृषिक्षेत्र मानें तो पितर वह मेंड़ या बाँध होते हैं जो हमें वैशिष्ट्य तो प्रदान करते ही हैं, कर्मरत होते हुये सहस्राब्दियों से सञ्चित स्मृतियों, अनुभवों, निष्ठा, आस्था, श्रद्धा एवं अभिमान के साथ कर्म के फल की रक्षा हेतु जागृत रखते हैं। जो सभ्यता अपने महान पितरों को भूल जाती है, मूल से अपने को च्युत कर देती है, प्रवाह में संयम तज उड़ने लगती है; उसका सब किया धरा शत्रु भोगते हैं। यदि आप मनन करेंगे तो इस कथन के मर्म एवं पितृ स्मृति आयोजन के महत्त्व को समझ पायेंगे। बिन मर्म के कर्म निष्प्राण एवं अन्तत: शून्य परिणामों वाला हो सकता है, साथ ही नकारात्मकता भी सिर पर आरूढ़ हो जाती है।
गत अङ्क में हमने तीन जन्मों की भी बात की थी, जिनमें तीसरा था मृत्यु। पितर हमारे बीच रह कर तीसरा जन्म ले हमसे गत हो चुके होते हैं। नवजन्म का, पुनर्जन्म का आयोजन तो माँ के गर्भ से होता है। पितृपक्ष के पश्चात, तब जब कि सम्वत्सर के सूर्य विषुव सम की स्थिति पार कर चुके होते हैं या निकट होते हैं, मातृ आराधना के नौ दिन ले नवरात्र पर्व आयोजित होते हैं। हस्त नक्षत्र के सूर्य वर्षा के अन्त के साथ शरद ऋतु लिये आ चुके होते हैं— अब खेतों में काम पर लग जाओ। इस पर्व के उपसंहार के पश्चात विजयादशमी का पर्व आता है— प्रयाण करो, जयी बनो। नवरात्र में नये काम, महत्त्वपूर्ण क्रय, प्रकल्प उद्घाटन आदि के साथ यही नवोन्मेषी उत्सवी भाव जुड़ा है।
पितरों को जलाञ्जलि से ले कर जगज्जननी देवी के आराधन तक का यह सम्पूर्ण समय एक दृढ़ कड़ी के रूप में श्रद्धाञ्जलि के साथ नवाचार को जोड़ता है, आगे बढ़ने, जीवन को भरपूर जी लेने की ऊर्जा प्रदान करता है। इसमें क्षय एवं निर्माण, मृत्यु एवं जन्म, श्रांति एवं कर्म; समस्त गुम्फित हैं।
जीवेम शरदः शतम्, बुध्येम शरदः शतम्, रोहेम शरदः शतम् … के इन प्रार्थना मनकों में शरद का महत्त्व अब आप समझ सकते हैं कि इनके नेपथ्य में कितना विराट नैरन्तर्य है।
अमरत्त्व का, जीवन का यह सायास आयोजन ऋषियों की ऋतावरी प्रज्ञा का एक उदाहरण है। इस अङ्क में आप देखेंगे कि ऋषि का अर्थ रस्सी या रज्जु भी है जो कि विविध कार्यव्यापारों को जोड़े हुये है।
देव, पितर, ऋषि एवं यजमान के रूप में मनुष्य का चतुष्टय जीवन यज्ञ को सुचारु रूप से सम्पन्न करने हेतु है। जब आप इस दृष्टि से देखते हैं तो इन आयोजनों का विराट मनोवैज्ञानिक महत्त्व समझ में आता है, भौतिक एवं आध्यात्मिक तो हैं ही।
ऋग्वेद में पितर भी देवता हैं। द्रष्टा ऋषि स्वयं यम हैं (10.14.7-9)। ये मन्त्र मृत्यु पर्यन्त संस्कार से सम्बंधित हैं, ध्यान देंगे तो पितरों के मार्ग चलते हुये नवजीवन की प्राप्ति, सन्तुलन इन मंत्रों की विशेषता है— सं गच्छस्व पितृभि: … हित्वायावद्यं पुनरस्तमेहि।
प्रेहि॒ प्रेहि॑ प॒थिभि॑: पू॒र्व्येभि॒र्यत्रा॑ न॒: पूर्वे॑ पि॒तर॑: परे॒युः। उ॒भा राजा॑ना स्व॒धया॒ मद॑न्ता य॒मं प॑श्यासि॒ वरु॑णं च दे॒वम्॥
सं ग॑च्छस्व पि॒तृभि॒: सं य॒मेने॑ष्टापू॒र्तेन॑ पर॒मे व्यो॑मन्। हि॒त्वाया॑व॒द्यं पुन॒रस्त॒मेहि॒ सं ग॑च्छस्व त॒न्वा॑ सु॒वर्चा॑:॥
अपे॑त॒ वी॑त॒ वि च॑ सर्प॒तातो॒ऽस्मा ए॒तं पि॒तरो॑ लो॒कम॑क्रन्। अहो॑भिर॒द्भिर॒क्तुभि॒र्व्य॑क्तं य॒मो द॑दात्यव॒सान॑मस्मै॥
आगे एक पूरा सूक्त (10.15) ही पितर सूक्त है:
उदी॑रता॒मव॑र॒ उत्परा॑स॒ उन्म॑ध्य॒माः पि॒तर॑: सो॒म्यास॑:। असुं॒ य ई॒युर॑वृ॒का ऋ॑त॒ज्ञास्ते नो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु॥
इ॒दं पि॒तृभ्यो॒ नमो॑ अस्त्व॒द्य ये पूर्वा॑सो॒ य उप॑रास ई॒युः। ये पार्थि॑वे॒ रज॒स्या निष॑त्ता॒ ये वा॑ नू॒नं सु॑वृ॒जना॑सु वि॒क्षु॥
आहं पि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॑ अवित्सि॒ नपा॑तं च वि॒क्रम॑णं च॒ विष्णो॑:। ब॒र्हि॒षदो॒ ये स्व॒धया॑ सु॒तस्य॒ भज॑न्त पि॒त्वस्त इ॒हाग॑मिष्ठाः॥
बर्हि॑षदः पितर ऊ॒त्य१॒॑र्वागि॒मा वो॑ ह॒व्या च॑कृमा जु॒षध्व॑म्। त आ ग॒ताव॑सा॒ शंत॑मे॒नाथा॑ न॒: शं योर॑र॒पो द॑धात॥
उप॑हूताः पि॒तर॑: सो॒म्यासो॑ बर्हि॒ष्ये॑षु नि॒धिषु॑ प्रि॒येषु॑। त आ ग॑मन्तु॒ त इ॒ह श्रु॑व॒न्त्वधि॑ ब्रुवन्तु॒ ते॑ऽवन्त्व॒स्मान्॥
आच्या॒ जानु॑ दक्षिण॒तो नि॒षद्ये॒मं य॒ज्ञम॒भि गृ॑णीत॒ विश्वे॑। मा हिं॑सिष्ट पितर॒: केन॑ चिन्नो॒ यद्व॒ आग॑: पुरु॒षता॒ करा॑म॥
आसी॑नासो अरु॒णीना॑मु॒पस्थे॑ र॒यिं ध॑त्त दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य। पु॒त्रेभ्य॑: पितर॒स्तस्य॒ वस्व॒: प्र य॑च्छत॒ त इ॒होर्जं॑ दधात॥
ये न॒: पूर्वे॑ पि॒तर॑: सो॒म्यासो॑ऽनूहि॒रे सो॑मपी॒थं वसि॑ष्ठाः। तेभि॑र्य॒मः सं॑ररा॒णो ह॒वींष्यु॒शन्नु॒शद्भि॑: प्रतिका॒मम॑त्तु॥
ये ता॑तृ॒षुर्दे॑व॒त्रा जेह॑माना होत्रा॒विद॒: स्तोम॑तष्टासो अ॒र्कैः। आग्ने॑ याहि सुवि॒दत्रे॑भिर॒र्वाङ्स॒त्यैः क॒व्यैः पि॒तृभि॑र्घर्म॒सद्भि॑:॥
ये स॒त्यासो॑ हवि॒रदो॑ हवि॒ष्पा इन्द्रे॑ण दे॒वैः स॒रथं॒ दधा॑नाः। आग्ने॑ याहि स॒हस्रं॑ देवव॒न्दैः परै॒: पूर्वै॑: पि॒तृभि॑र्घर्म॒सद्भि॑:॥
अग्नि॑ष्वात्ताः पितर॒ एह ग॑च्छत॒ सद॑:सदः सदत सुप्रणीतयः। अ॒त्ता ह॒वींषि॒ प्रय॑तानि ब॒र्हिष्यथा॑ र॒यिं सर्व॑वीरं दधातन॥
त्वम॑ग्न ईळि॒तो जा॑तवे॒दोऽवा॑ड्ढ॒व्यानि॑ सुर॒भीणि॑ कृ॒त्वी। प्रादा॑: पि॒तृभ्य॑: स्व॒धया॒ ते अ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे॑व॒ प्रय॑ता ह॒वींषि॑॥
ये चे॒ह पि॒तरो॒ ये च॒ नेह याँश्च॑ वि॒द्म याँ उ॑ च॒ न प्र॑वि॒द्म। त्वं वे॑त्थ॒ यति॒ ते जा॑तवेदः स्व॒धाभि॑र्य॒ज्ञं सुकृ॑तं जुषस्व॥
जो जीवित हैं, जो बहुत पहले अवसान प्राप्त कर चुके हैं एवं जिनका अवसान आसन्न है; ऐसे समस्त पितरों के सान्निध्य में प्रार्थना एवं उत्साह के साथ आह्वान परक आशीर्वादों की छाँव में उद्योग आह्वान की, जीवन से पगी ऐसी वीर कविता संसार में स्यात ही मिले— बर्हिष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन!
नवरात्र पर्व पर जानें कि समस्त ऋषिकुलों के आह्वान (आप्री) मंत्रों में देवता के रूप में तीन देवियाँ विराजमान रहती हैं— भारती (मही), इळा एवं सरस्वती। भारती भारत भूमि समन्विता हैं, इळा उद्योग हैं जिन्हें दुर्गा के रूप में जाना जा सकता है तथा सरस्वती प्रज्ञा हैं।
भार॒तीळे॒ सर॑स्वति॒ या व॒: सर्वा॑ उपब्रु॒वे। ता न॑श्चोदयत श्रि॒ये॥ 1.188.8
आ भार॑ती॒ भार॑तीभिः स॒जोषा॒ इळा॑ दे॒वैर्म॑नु॒ष्ये॑भिर॒ग्निः। सर॑स्वती सारस्व॒तेभि॑र॒र्वाक्ति॒स्रो दे॒वीर्ब॒र्हिरेदं स॑दन्तु॥ 3.4.8
इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः। बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः॥ 5.5.8
आ भार॑ती॒ भार॑तीभिः स॒जोषा॒ इळा॑ दे॒वैर्म॑नु॒ष्ये॑भिर॒ग्निः। सर॑स्वती सारस्व॒तेभि॑र॒र्वाक्ति॒स्रो दे॒वीर्ब॒र्हिरेदं स॑दन्तु॥ 7.2.8
भार॑ती॒ पव॑मानस्य॒ सर॑स्व॒तीळा॑ म॒ही। इ॒मं नो॑ य॒ज्ञमा ग॑मन्ति॒स्रो दे॒वीः सु॒पेश॑सः॥ 9.5.8
तिस्रो॑ देवीर्ब॒र्हिरि॒दं वरी॑य॒ आ सी॑दत चकृ॒मा व॑: स्यो॒नम्। म॒नु॒ष्वद्य॒ज्ञं सुधि॑ता ह॒वींषीळा॑ दे॒वी घृ॒तप॑दी जुषन्त॥ 10.70.8
आ नो॑ य॒ज्ञं भार॑ती॒ तूय॑मे॒त्विळा॑ मनु॒ष्वदि॒ह चे॒तय॑न्ती। ति॒स्रो दे॒वीर्ब॒र्हिरेदं स्यो॒नं सर॑स्वती॒ स्वप॑सः सदन्तु॥ 10.110.8
सम्पूर्ण ऋग्वेद में पसरे, सब को एक सूत्र में बाँधते सात मन्त्र, अपने अपने सूक्त में प्रत्येक मन्त्र आठवाँ है। सात बहिनिया, अष्टभुजा देवी की आराधना नवरात्र में करेंगे न ? उत्कट शोधक आङ्गिरसों के देवी आह्वान मन्त्र में आप्री देवता नहीं, तीनों देवियाँ ही देवता हैं— सरस्वतीळाभारत्यः।
शुचि॑र्दे॒वेष्वर्पि॑ता॒ होत्रा॑ म॒रुत्सु॒ भार॑ती। इळा॒ सर॑स्वती म॒ही ब॒र्हिः सी॑दन्तु य॒ज्ञिया॑:॥ 1.142.9
अपने सूक्त का यह नवाँ मन्त्र है, सकल रूप में सात के साथ आठवाँ मन्त्र ज्यों मनका मेरु!
ज्ञानवर्धक संकलन है। कृपया पितर विसर्जन पर और लिखे।
क्या विधि हैं। धन्यवाद।
तृप्ति हुई, पढ़कर! माँ सबका मङ्गल करें।
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