पहले लेख में उत्तरायण दिवस को शुक्ल प्रतिपदा के सापेक्ष देख नववर्ष आरम्भ की बात हो चुकी है, जिसमें ±१५ दिनों की परास मिलती। यदि इस परास को और न्यून कर ±८ की परास में लाने हेतु पूर्णिमा को भी जोड़ें तो वर्ष आरम्भ की तिथि बहुत व्यावहारिक नहीं रह जाती। यदि उत्तरायण को पूर्णिमा के सापेक्ष देखते हुये नववर्ष व प्रथम माह आरम्भ रखें तो एक सुसंगत क्रम मिलता है ५+१+२+१ का। पूर्णिमा के आगे कृष्ण प्रतिपदा होती है जिससे पूर्णिमान्त चान्द्र मास आरम्भ होते हैं। पूर्णिमान्त पद्धति अपनाने का मर्म यह है।
भारती संवत में महीना पूर्णिमा से आरम्भ हो कर शुक्ल चतुर्दशी को समाप्त होगा।
तिथि का गणित वही रहेगा जो है किन्तु यदि तिथि परिवर्तन सूर्योदय से सूर्यास्त के पूर्व कभी भी हो गया तो उस दिन वह तिथि मान ली जायेगी, भले उदया न हो। उदाहरण के लिये, कल पूर्णिमा सूर्य के रहते ही हो गई थी, अत: पूर्णिमा कल की मानी जायेगी।
पूर्णिमा से मास आरम्भ करने से यह होगा कि महीनों के नामों के साथ पूर्णिमा को चन्द्र की नक्षत्र स्थिति देने से चान्द्रमासों के नाम नहीं देने होंगे।
पूर्णिमा को चन्द्र व सूर्य १८०° पर होते हैं, प्रेक्षण की दृष्टि से उपयुक्त। जबकि शुक्ल प्रतिपदा को चन्द्र दिखना प्राय: असम्भव होता है। ‘दूज का चाँद’ कहने का निहितार्थ इससे समझें कि वह भी दुर्लभ!
शुक्लपक्ष में अमान्त व पूर्णिमान्त, दोनों पद्धतियों में चान्द्रमास नाम एक ही रहते हैं, कृष्णपक्ष में ऐसा नहीं होता। पूर्णिमा को आरम्भ मानने से यह सुविधा बनी रहेगी जोकि शुक्ल प्रतिपदा मानने पर होती।
अर्थात्, कल पूर्णिमा को नववर्ष आरम्भ हुआ (प्रतिपदा पद्धति नहीं मान रहे), मास आरम्भ हुआ ‘तप’ और आरम्भ का नक्षत्र था मृग(शिरा)।
लिखेंगे, भारती संवत १, मास तप, नक्षत्र मृगशिरा, भौमवार।
[चान्द्रमास का नाम पूर्णिमा के नक्षत्र से होता है, मृगशिरा से मार्गशीर्ष। परन्तु ऐसा सदैव नहीं होता, ±१ नक्षत्र होता रहता है। बात वही है कि प्रकृति के गणित को मानवीय गणित में उतारने की सीमायें रहनी ही हैं।]
संवत्सर नाम पर हम चर्चा कर चुके हैं। ६० वर्षों के चक्र का गुरु-शनि युति से लगभग सम्बन्ध ही है। ६० वर्ष आगे जो युति होगी वह वसन्त विषुव के निकट होगी, न कि शीत अयनान्त के।
यह अधिक समीचीन लगता है कि साठ वर्षीय चक्र का सम्बन्ध वेदाङ्ग ज्यौतिष के पञ्चवर्षी युगचक्र से है और एक युग के ६० महीनों के नाम दिये गये थे जो कालान्तर में विकसित हो संवत्सर नाम हो गये। यह अपने आप में एक बड़ा विषय है, जिस पर यहाँ संक्षिप्त संकेत ही दे रहा हूँ।
एक अन्य पुरातन पद्धति और है जो गुरु के लगभग १२ वर्षीय चक्र से जुड़ी है। अस्त होने के पश्चात अर्थात सूर्य से कोणीय सम्पात के पश्चात १० से ११° अन्तर होने पर गुरु पुन: दिखने लगते हैं जिसे उदय कहते हैं। इस पद्धति में संवत्सर नाम उस नक्षत्र पर आधारित होता है जिसमें गुरु उस वर्ष अस्त के पश्चात उदित होते हैं। हम यह पद्धति अपनायेंगे।
पहले बताया जा चुका है कि वर्ष के २४ पक्षों के आधार पर कभी २४ नक्षत्र होने की सम्भावना है जिनमें कालान्तर में ३ उत्तर नक्षत्र जोड़ कर २७ बनाये गये। तीन समूहों में तीन निकटवर्ती व शेष में दो दो निकटवर्ती नक्षत्र ले कर कुल १२ समूह बनाये गये। कभी नक्षत्रमाला का आरम्भ कृत्तिका से होता, अत: ये समूह भी कृत्तिका से आरम्भ हुये :
(१) कृत्तिका, रोहिणी
(२) मृगशिरा, आर्द्रा
(३) पुनर्वसु, पुष्य
(४) अश्लेषा, मघा
(५) पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी एवं हस्त
(६) चित्रा, स्वाति
(७) विशाखा, अनुराधा
(८) ज्येष्ठा, मूल
(९) पूर्वाषाढ, उत्तराषाढ, [अभिजित]
(१०) श्रावण, धनिष्ठा
(११) शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद व उत्तराभाद्रपद
(१२) रेवती, अश्विनी, भरणी
इन १२ में से जिस समूह के भीतर गुरु का उदय होता, उसके संगत चांद्रमास नक्षत्र नाम के आगे ‘महा’ लगा कर संवत्सर का नाम होता। ‘महा’ क्यों? महाकाय गुरु का वर्ष लगभग १२ पृथ्वी वर्षों के तुल्य मानें तो उसका एक महा-मास पृथ्वी के लगभग एक वर्ष के समान होगा। इस सूची से इसका भी सङ्केत मिलता है कि कैसे चंद्र की पूर्णिमा को नाक्षत्रिक स्थिति के अनुसार मास नाम स्थिर किये गये होंगे।
[यहाँ अभिजित की विशेष स्थिति देखनी होगी। किसी भी नक्षत्र के पूर्वा व उत्तरा के साथ एक और नक्षत्र होना चाहिये। अभिजित को न रखें तो श्रावण को लेना पड़ेगा जिससे दो मास नाम आषाढ और श्रावण एक ही समूह में पड़ जायेंगे। वास्तव में अभिजित रहा होगा तथा तीन तीन के चार समूह रहे होंगे जिससे कि आगे का क्रम ठीक था और आरम्भ कृत्तिका से होता। उसे कालांतर में हटा दिया गया। इस सूची से भी नक्षत्रों के मूल विषम-कोणीय विभाजन का परोक्ष सङ्केत मिलता है तथा इस सूची के आधार पर भी विषम कोणीय विभाजन पर आगे काम किया जा सकता है।]
उदाहरण के लिये, यदि गुरु का उदय रेवती, अश्विनी या भरणी में से किसी में हुआ तो उक्त संवत्सर का नाम हुआ ‘महा-अश्विनी’ या ‘महाश्विन’। इस प्रकार से गुरु १२ संवत्सर नामों के चक्र में उदित होते।
हमें क्या करना होगा?
पिछले अंक में बता चुके हैं कि हमारे नक्षत्र २८ हैं क्योंकि हमने अभिजित को उसका कोणीय मान स्वतन्त्र रूप से दिया है।
हम वही पद्धति अपनायेंगे किन्तु अभिजित को तेरहवाँ प्रकार समूह क्रमांक ९ एवं १० के बीच रखेंगे जिसकी बारम्बारता उतनी अधिक नहीं होगी तथा महाभिजित संवत्सर विशेष प्रेक्षणों व संशोधनों के वर्ष के रूप में मनाया जायेगा। तो अगला महाभिजित संवत्सर कब होगा? कृपया गणना कर के देखें।
इस संवत्सर का नाम क्या होगा? इस वर्ष अस्त के पश्चात गुरु का उदय श्रावण नक्षत्र में होगा, अत: यह संवत्सर हुआ – महाश्रावण।
नये भारती विधान की प्राथमिकी पूर्ण हुई। नववर्ष मङ्गलमय हो।
भारती संवत १, महाश्रावण, मास : तप-मृगशिरा
[आज की तिथि कृष्ण प्रतिपदा, क्योंकि सूर्य के उदित रहते ही प्रतिपदा हो गई है।]
॥ ॐ ॥
अगले अंक में
क्या पर्व आदि भी इस पद्धति से मनाये जा सकते हैं? व्रत, उपवास आदि?
इन प्रश्नों पर आते ही हमारी स्वतन्त्रता सीमित हो जायेगी क्योंकि अनेक व्रत चंद्रमास नामों व उनकी तिथियों पर रूढ़ हो चुके हैं। व्रत, उपवास आदि अवसरों को देखने से पूर्व यह देखना पड़ेगा कि क्या कुछ प्रमुख पर्व जिनका कि उल्लेख ऋतुप्रभाव आधारित मास नामों तप, तपस्य आदि के साथ मिलता है, वे शास्त्रानुसार पड़ते हैं या नहीं? यदि नहीं पड़ते हैं तो इस पद्धति की यही सीमारेखा हो जायेगी। इसे उनके अनुकूल करने हेतु संशोधित करना पड़ेगा जोकि एक स्वतंत्र शाखा होगी।