वाल्मीकि रामायण सुंदरकांड – ४७ से आगे
स्थिति विकट थी, किञ्चित चूक भी अनर्थकारी हो सकती थी। पहले से ही मारुति स्वयं को वानरराज सुग्रीव व राघव श्रीराम का दूत घोषित करते आ रहे थे किंतु अब कूटनीति से काम लेना था। वह राक्षसराज समक्ष था जिसकी एक वक्र भृकुटि की इङ्गिति सर्वनाश कर सकती थी। हनुमान ने राजाओं में परस्पर व्यवहार की रीति से काम लेने का निश्चय किया, उन्हें अपने शत्रुतापूर्ण कर्मजनित द्वेष की तीक्ष्णता को, चाहे जैसे हो, भोथरा करने का प्रयास करना था तथा स्पष्ट संदेश भी देना था।
तं समीक्ष्य महासत्त्वं सत्त्ववान्हरिसत्तमः। वाक्यमर्थवदव्यग्रस्तमुवाच दशाननम्॥
स्थिति की समीक्षा कर सत्त्ववान् वानरश्रेष्ठ आञ्जनेय ने अतिबलशाली दशानन से बिना किसी व्यग्रता के धीरतापूर्वक अपनी अर्थयुक्त बात कहनी आरम्भ की –
अहं सुग्रीवसंदेशादिह प्राप्तस्तवालयम्। राक्षसेन्द्र हरीशस्त्वां भ्राता कुशलमब्रवीत्॥
भ्रातुश्शृणु समादेशं सुग्रीवस्य महात्मनः। धर्मार्थोपहितं वाक्यमिह चामुत्र च क्षमम्॥
मैं तुम्हारे यहाँ सुग्रीव की आज्ञा से आया हूँ। राक्षसेन्द्र! आप के भ्राता उन वानरराज ने आप की कुशलता की कामना की है। भ्राता महात्मा सुग्रीव का संदेश सुनो। यह धर्म व अर्थ युक्त संदेश इहलोक व परलोक, दोनों में लाभकारी है।
मारुति ने एक राजा के मुख से दूसरे राजवंश के निर्वासित राजकुमार के साथ घटित को सुनाना आरम्भ किया। वही शैली अपनाई जिससे देवी सीता के अपरिचयजनित सम्भावित अविश्वास का तिरोहण किया था। भूमिका के साथ साथ संदेश इस प्रकार पहुँचाना था कि रावण के अहङ्कार को ठेस न पहुँचे और दृढ़तापूर्वक अपना पक्ष भी रख दिया जाय –
राजा दशरथो नाम रथकुञ्जरवाजिमान्। पितेव बन्धुर्लोकस्य सुरेश्वरसमद्युतिः॥
ज्येष्ठस्तस्य महाबाहुः पुत्रः प्रियकरः प्रभुः। पितुर्निदेशान्निष्क्रान्तः प्रविष्टो दण्डकावनम्॥
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया चापि भार्यया। रामो नाम महातेजा धर्म्यं पन्थानमास्थितः॥
दण्डकवन में राम क्यों प्रविष्ट हुये, इसका कारण बताते हुये हनुमान ने सीताहरण की भूमिका बाँधी, सीता वन में ‘नष्ट’ हुईं जो ‘पतिव्रता’ हैं तथा विदेहराज महात्मा जनक की पुत्री हैं –
तस्य भार्या वने नष्टा सीता पतिमनुव्रता। वैदेहस्य सुता राज्ञो जनकस्य महात्मनः॥
‘पतिव्रता’ व ‘विदेह’सुता बता कर हनुमान ने सङ्केत कर दिया कि उन पर तुम्हारी नहीं चलनी रावण!
स मार्गमाणस्तां देवीं राजपुत्रः सहानुजः। ऋश्यमूकमनुप्राप्त: सुग्रीवेण समागतः॥
तस्य तेन प्रतिज्ञातं सीतायाः परिमार्गणम्। सुग्रीवस्यापि रामेण हरिराज्यं निवेदितम्॥
उन देवी को ढूँढ़ते हुये राजपुत्र राम और उनके भाई की भेंट ऋश्यमूक पर्वत पर सुग्रीव से हुई। सुग्रीव ने देवी सीता को ढूँढ़ने की उनसे प्रतिज्ञा की तथा राम ने भी सुग्रीव को वानराज बनाने की।
अब तक बिना यह कहे कि तुमने ही सीता का हरण किया है, दो राजन्यों की मैत्री बता कर हनुमान ने संकेत कर दिया कि यह अपहरण कर्म तुम पर भारी पड़ने वाला है। उन्होंने आगे जो सूचना दी, वह रावण को भीतर ही भीतर हिला देने हेतु पर्याप्त थी।
ततस्तेन मृधे हत्वा राजपुत्रेण वालिनम्। सुग्रीवः स्थापितो राज्ये हर्यृक्षाणां गणेश्वरः॥
स सीतामार्गणे व्यग्रस्सुग्रीवः सत्यसङ्गरः। हरीन् सम्प्रेषयामास दिशस्सर्वा हरीश्वरः॥
युद्ध में राजपुत्र श्रीराम ने वालि (बाली) का वध कर दिया तथा सुग्रीव को वानर व ऋक्षों का गणेश्वर बना कर राज्य पर स्थापित कर दिया!
सत्यप्रतिज्ञ वानरराज सुग्रीव ने व्यग्र हो कर देवी सीता के अनुसंधान हेतु समस्त दिशाओं में वानरों को भेजा है। समस्त दिशाओं में पसरे उन वानरों ने देवी सीता को ढूँढ़ने हेतु आकाश पाताल एक कर दिया है – दिक्षु सर्वासु मार्गन्ते ह्यधश्चोपरि चाम्बरे । उनमें कुछ महाबली वानर गरुड के समान हैं तो कोई वायुदेवता के समान बिना किसी बाधा माने चलने वाले शीघ्रगामी हैं – वैनतेयसमाः केचित्केचित्तत्रानिलोपमाः। असङ्गगतयशशीघ्रा हरिवीरा महाबलाः॥
इतनी प्रस्तावना व सूचना के पश्चात हनुमान ने अपना परिचय दिया –
अहं तु हनुमान्नाम मारुतस्यौरसस्सुतः। सीतायास्तु कृते तूर्णं शतयोजनमायतम्॥
समुद्रं लङ्घयित्वैव तां दिदृक्षुरिहागतः। भ्रमता च मया दृष्टा गृहे ते जनकात्मजा॥
मैं मरुत का औरसपुत्र हूँ, मेरा नाम हनुमान है। मैं भी सीता का पता लगाने हेतु शतयोजन दूरी को शीघ्रतापूर्वक समुद्र पर पूरी कर यहाँ आया हूँ। भ्रमण करते हुये मैंने आप के गृह में जनकपुत्री सीता को देखा है।
जिस उद्देश्य से आये थे, उसकी लब्धि की सूचना दे और यह समझ कर कि अब सीधे अपनी बात कही जा सकती है, देवी सीता का ध्यान करते हुये हनुमान निश्शङ्क हो चले –
तद्भवान् दृष्टधर्मार्थस्तपःकृतपरिग्रहः। परदारान् महाप्राज्ञ नोपरोद्धुं त्वमर्हसि॥
न हि धर्मविरुद्धेषु बह्वपायेषु कर्मसु। मूलघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः॥
आप तो धर्म और अर्थ के तत्त्व जानने वाले हैं। आप ने महान तप किये हैं, महाप्राज्ञ हैं, दूसरे की पत्नी का अपहरण अनुचित है। निश्चय ही आप जैसे बुद्धिमान जन ऐसे धर्मविरुद्ध और मूल पर ही आघात करने वाले कर्म में नहीं पड़ते।
रावण हेतु दाम नीति का कोई अर्थ नहीं था, हनुमान साम और भेद नीतियों का समन्वय कर कहते चले गये, श्रोताओं में अन्य जन भी तो थे, रावण पर न पड़े तो न पड़े, किसी पर तो प्रभाव पड़ेगा!
कश्च लक्ष्मणमुक्तानां रामकोपानुवर्तिनाम्। शराणामग्रतः स्थातुं शक्तो देवासुरेष्वपि॥
न चापि त्रिषु लोकेषु राजन्विद्येत कश्चन। राघवस्य व्यलीकं यः कृत्वा सुखमवाप्नुयात्॥
तत् त्रिकालहितं वाक्यं धर्म्यमर्थानुबन्धि च। मन्यस्व नरदेवाय जानकी प्रतिदीयताम्॥
क्रुद्ध राम के आदेश पर लक्ष्मण द्वारा चलाये गये बाणों के समक्ष देवों और असुरों में से भी कौन खड़ा रह सकता है? राजन! राम से वैर ठान त्रिलोकी में कोई भी सुख से नहीं रह सकता। मेरी धर्म व अर्थ के अनुकूल बात आप के लिये त्रिकालहित वाली है। मान लें और जानकी को नरदेव श्रीराम को लौटा दें।
दृष्टा हीयं मया देवी लब्धं यदिह दुर्लभम्। उत्तरं कर्म यच्छेषं निमित्तं तत्र राघवः॥
मारुति ने कहा कि जो सबसे कठिन कर्म था, देवी सीता का पता लगाना, वह तो मैंने कर दिया। इससे आगे जो शेष काम है, उसके निमित्त राम ही होंगे। आत्मविश्वास की अभिव्यक्ति के साथ कि वह वहाँ से जीवित लौट कर श्रीराम को समाचार दे पायेंगे, उन्होंने आगे कहा कि मैंने सीता को शोकनिमग्न देखा है, तुम (उसका प्रतिकार न जानते हुये) यह जानते ही नहीं कि वह अपहृता तुम्हारे लिये पञ्चमुखी नागिन के समान ही हैं – लक्षितेयं मया सीता तथा शोकपरायणा। गृह्य यां नाभिजानासि पञ्चास्यामिव पन्नगीम्॥
जैसे अत्यंत विषमिश्रित अन्न को खाकर कोई उसे बलपूर्वक पचा नहीं सकता, उसी प्रकार देवी सीता को अपनी शक्ति से पचा लेना देवों और असुरों के लिये भी असम्भव है – न इयम् जरयितुम् शक्या सासुरैः अमरैः अपि। विष संसृष्टम् अत्यर्थम् भुक्तम् अन्नम् इव ओजसा ॥ (तुम क्या हो?)
हनुमान रावण को उसके व्यक्तित्त्व के शुभ पक्ष पर प्रकाश डालने के साथ साथ अपनी भी कहते चले गये –
तपस्सन्तापलब्धस्ते योऽयं धर्मपरिग्रहः। न स नाशयितुं न्याय्य आत्मप्राणपरिग्रहः॥
अवध्यतां तपोभिर्यां भवान् समनुपश्यति। आत्मनः सासुरैर्देवैर्हेतुस्तत्राप्ययं महान्॥
सुग्रीवो न हि देवोऽयं नासुरो न च राक्षसः। न दानवो न गन्धर्वो न यक्षो न च पन्नगः॥
मानुषो राघवो राजन्सुग्रीवश्च हरीश्वरः ॥ तस्मात्प्राणपरित्राणं कथं राजन्करिष्यसि ।
तप के कष्ट सहते हुये धर्मसञ्चय द्वारा आप ने जो यह दीर्घायु और ऐश्वर्य प्राप्त किये हैं, उनका इस प्रकार नाश करना उचित नहीं है। तप के कारण आप जो असुरों व देवों से अपनी अवध्यता को देख रहे हैं, उस पर भी एक महान कारण उपस्थित है। सुग्रीव न तो देव हैं, न असुर, न दानव, न गन्धर्व, न यक्ष और न नाग। राघव राम मनुष्य हैं और राज सुग्रीव वानरराज हैं। तो हे राजन! उनसे आप अपने प्राण कैसे बचा पायेंगे?
सम्भवत: रावण को ऐसी बात पहले किसी ने नहीं बताई थी कि अवध्यता का उसका विश्वास एक प्रकार से भ्रम ही था क्योंकि ऐसे कारक उपस्थित थे जो कि उसकी मृत्यु के कारण हो सकते थे।
न तु धर्मोपसंहारमधर्मफलसंहितम्॥ तदेव फलमन्वेति धर्मश्चाधर्मनाशन:।
प्राप्तं धर्मफलं तावद्भवता नात्र संशयः। फलमस्याप्यधर्मस्य क्षिप्रमेव प्रपत्स्यसे॥
धर्म का फल अधर्म के परिणाम के साथ नहीं रहता। अधर्म का फल भोगना ही होता है, कृत धर्म (पूर्वसंचित) अधर्म का नाश करता है। इसमें संशय नहीं कि आप ने धर्म से प्राप्त फल का सञ्चय किया है किंतु अब आप अपने किये अधर्म का फल भी शीघ्र ही प्राप्त करेंगे।
जनस्थानवधं बुद्ध्वा बुद्ध्वा वालिवधं तथा॥ रामसुग्रीवसख्यं च बुध्यस्व हितमात्मनः।
कामं खल्वहमप्येकस्सवाजिरथकुञ्जराम्॥ लङ्कां नाशयितुं शक्तस्तस्यैष तु न निश्चयः।
रामेण हि प्रतिज्ञातं हर्यृक्षगणसन्निधौ॥ उत्सादनममित्राणां सीता यैस्तु प्रधर्षिता।
जनस्थान में (राम द्वारा) किये राक्षसों के वध को आप जानते हैं, वालिवध भी और राम व सुग्रीव की मैत्री भी। (यह सब जानते हुये) आप अपने हित जो हो वह निर्णय लें। चाहूँ तो मैं (अकेले ही) अश्व, रथ व हाथी आदि सहित इस पूरी लङ्का नगरी का निश्चय ही नाश कर दूँ, मुझमें शक्ति है किन्तु ऐसा करने की मुझे राम द्वारा आज्ञा नहीं है। वानर और ऋक्ष गण के समक्ष राम ने प्रतिज्ञा की है कि वह देवी सीता को पीड़ित कर उन्हें हरने वाले शत्रु का सम्पूर्ण विनाश करेंगे।
अपकुर्वन् हि रामस्य साक्षादपि पुरन्दरः॥ न सुखं प्राप्नुयादन्यः किं पुनस्त्वद्विधो जनः।
यां सीतेत्यभिजानासि येयं तिष्ठति ते वशे॥ कालरात्रीति तां विद्धि सर्वलङ्काविनाशिनीम्।
राम से वैर मोल साक्षात पुरंदर इंद्र भी सुख से नहीं रह सकते, तुम्हारे जैसे के लिये अब क्या कहूँ? जो सीता अभी तुम्हारे नियंत्रण में हैं, उन्हें (साधारण न समझ) लङ्का का सर्वनाश करने वाली कालरात्रि समझो।
तदलं कालपाशेन सीताविग्रहरूपिणा॥ स्वयं स्कन्धावसक्तेन क्षेममात्मनि चिन्त्यताम्।
सीतायास्तेजसा दग्धां रामकोपप्रपीडिताम्॥ दह्यमानामिमां पश्य पुरीं साट्टप्रतोलिकाम्।
अत:, सीता के रूप में कालपाश को स्वयं अपने ही कन्धे रखना बहुत हो गया, अपने कल्याण की सोचो।
मानो कपि आगम की चेतावनी ही दे बैठे – सीता के तेज एवं राम के कोप से हाट एवं वीथियों समेत दग्ध होती लङ्कापुरी की सोचो।
स्वानि मित्राणि मन्त्रींश्च ज्ञातीन् भ्रात्रून् सुतान् हितान्॥ भोगान्दारांश्च लङ्कां च मा विनाशमुपानय।
अपने मित्रों, मंत्रियों, कुल, भाई, बहन, पुत्र, पत्नियों, हितैषियों सहित भोग ऐश्वर्यादि और लङ्का को विनाश के मार्ग पर न ले जाओ।
हे राक्षसराजेंद्र, सत्य कहता हूँ, मेरे वचनों पर ध्यान दो – सत्यं राक्षसराजेन्द्र शृणुष्व वचनं मम॥ मैं राम का दूत हूँ, उनका दास हूँ और विशेषत: वानर भी – रामदासस्य दूतस्य वानरस्य विशेषतः। (अर्थात मैं राम के बारे में तो सब जानता ही हूँ, वानरों की शक्ति भी जानता हूँ और अब दोनों एक ही पक्ष हैं।)
हनुमान ने अपने स्वामी श्रीराम की शक्ति का बखान करना आरम्भ कर दिया –
सर्वान् लोकान् सुसंहृत्य सभूतान् सचराचरान्॥
पुनरेव तथा स्रष्टुं शक्तो रामो महायशाः। देवासुरनरेन्द्रेषु यक्षरक्षोगणेषु च॥
विद्याधरेषु सर्वेषु गन्धर्वेषूरगेषु च। सिद्धेषु किन्नरेन्द्रेषु पतत्रिषु च सर्वतः॥
सर्वभूतेषु सर्वत्र सर्वकालेषु नास्ति सः। यो रामं प्रतियुध्येत विष्णुतुल्यपराक्रमम्॥
महान यशस्वी श्रीराम सभी लोकों का समस्त प्राणियों, चर व अचर सहित संहार कर उनका पुन: निर्माण करने की शक्ति रखते हैं। वह विष्णु के तुल्य पराक्रमी हैं। समस्त कालों में, देव, असुर, मनुष्य राजा, यक्ष, राक्षसगण, विद्याधर, गन्धर्व, नाग, सिद्ध, किन्नर, पक्षियों सहित समस्त अन्य प्राणियों में कोई भी ऐसा नहीं है जो राम के समक्ष युद्ध में खड़ा रह सके।
सर्वलोकेश्वरस्यैवं कृत्वा विप्रियमुत्तमम्। रामस्य राजसिंहस्य दुर्लभं तव जीवितम्॥
समस्त लोकों के अधीश्वर राजसिंह राम के प्रति ऐसा महान अपराध कर तुम्हारा जीवित बचे रहना कठिन है।
हनुमान ने अपना पूर्वकथन दुहराया मानो बता रहे हों कि यदि अन्य गण व जन भी तुम्हारे सहयोग में आ जायें तो वे सब भी तीनो लोकों के नायक राम के समक्ष समर में टिक नहीं सकते – देवाश्च दैत्याश्च निशाचरेन्द्र गन्धर्वविद्याधरनागयक्षाः। रामस्य लोकत्रयनायकस्य स्थातुं न शक्तास्समरेषु सर्वे॥
ब्रह्मा स्वयम्भूश्चतुराननो वा रुद्रस्त्रिणेत्रस्त्रिपुरान्तको वा। इन्द्रो महेंद्र: सुरनायको वा स्थातुं न शक्ता युधि राघवस्य॥
और तो और स्वयम्भू चतुरानन ब्रह्मा, तीन नेत्रों वाले त्रिपुरनाशक रुद्र, देवताओं के स्वामी व नायक महेन्द्र भी युद्ध में राघव राम के आगे युद्ध में शक्ति नहीं रखते। साम और भेद से युक्त अपनी बात कह कर हनुमान चुप हो गये।
स सौष्ठवोपेतमदीनवादिनः कपेर्निशम्याप्रतिमोऽप्रियं वचः।
दशाननः कोपविवृत्तलोचनः समादिशत्तस्य वधं महाकपेः॥
किंतु रावण तो रावण था, वीरभाव से अत्यंत सौष्ठव के साथ व्यक्त हनुमान के अप्रतिम वचन सुन कर दशानन के नेत्र मारे क्रोध के वक्र हो गये। उसने महाकपि हनुमान के वध की आज्ञा दे दी।
अगले अङ्क में –
आग लगी हुई है किंतु लगता है जैसे मेरी पूँछ पर शिशिर शीत सम्पात हुआ है!
शिशिरस्येव सम्पाते लाङ्गूलाग्रे प्रतिष्ठितः।