वर्तमान
भारत में एक बार पुनः भाषाओं को लेकर विवाद चल पड़ा है। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने और उसपर कुछ क्षेत्रीय दलों और बुद्धिजीवियों द्वारा इसका विरोध करने का क्रम चल पड़ा है। मैं इस लेख में भाषा सम्बन्धित वाद-विवाद के विभिन्न पक्षों पर विमर्श करते हुए एक भिन्न समाधान प्रस्तुत करना चाहता हूँ।
क्षेत्रीय दलों का कहना है कि केंद्र सरकार को हिंदी ‘थोपना’ नहीं चाहिये परंतु ऐसा कहते हुए स्वतंत्रता पूर्व थोपी गई अंग्रेजी उन्हें नहीं दिखाई देती। उन्हें डर है कि हिंदी से उनकी भाषाई अस्मिता को संकट है परंतु अंग्रेजी को अङ्गीकार करने में उन्हें कोई समस्या नहीं जबकि हिंदी और अन्य लगभग सभी भारतीय भाषाएँ या तो एक ही परिवार से हैं या परस्पर सम्वाद में बहनों की भाँति एक दूसरे से जुड़ी हैं। अंग्रेजी से ऐसा कोई जुड़ाव नहीं।
हिंदी का विरोध करने वाले किसी अन्य भारतीय भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर लेंगे, ऐसा नहीं लगता। क्या यह एक प्रकार की पराधीनता और अंग्रेजों द्वारा चलाई भेदनीति की सफलता ही नहीं है कि हम अपनी भाषाओं को परस्पर संदेह की दृष्टि से देखते हैं, उनसे भयभीत हो जाते हैं और विदेशी मूल की अंग्रेजी के सान्निध्य में सुरक्षित अनुभव करते हैं? इसका एक कारण स्यात यह भी हो सकता है कि कुछ क्षेत्रों में जहाँ हिंदी मातृभाषा नहीं है, उन्हें हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने से हिंदी भाषी क्षेत्रों के सापेक्ष अधिक परिश्रम करना होगा और हानि की स्थिति प्रारम्भ में अधिक रहेगी। जबकी अंग्रेजी में सबके लिये अवसर समान हैं।
एक भाषा की आवश्यकता
सर्वप्रथम बात करते हैं एक भाषा की आवश्यकता की। भाषा का उपयोग मनुष्य अपने विचार संप्रेषित करने के लिये करता है, किसी बात को समझने और विश्लेषित करने के लिये करता है। कोई भी भाषा अपने परिवेश से जुड़ी होती है, व्यक्ति उस परिवेश में पीढ़ियों से रहता है अतः उसकी अनुभूति को वह भाषा सुगमता से संप्रेषित करती हैं। व्यक्ति उस भाषा में किसी अन्य भाषा की तुलना में सरलता और तीव्रता से ज्ञान ग्रहण कर सकता है। उसका उपयोग करते हुए रचनात्मक कार्य करना भी सरल होता है। अन्य भाषा में उसी दक्षता को प्राप्त करने में उसे अत्यधिक समय और संसाधन लगाने पड़ते हैं। भाषा परिवेश से जितना कटी होती है उस अनुपात में यह श्रम बढ़ता जाता है।
इसी से जुड़ा अन्य महत्वपूर्ण बिंदु है कि प्रत्येक भाषा में कुछ ऐसा होता है जिसके लिए अन्य भाषा में शब्द ही नहीं होते और कोई अनुवाद उसके साथ न्याय नहीं कर सकता। यह संदर्भित भाषा की उत्पत्ति के परिवेश पर निर्भर करता है। जब व्यक्ति अपने परिवेश की भाषा को छोड़ अन्य भाषा में कार्य करने लगता है तथा सोचने लगता है, तब वह धीरे-धीरे अपने परिवेश एवं अपनी जड़ों से भी कटने लगता है। वह उस अन्य भाषा के संदर्भ में अपने आस-पास के परिवेश को देखने लगता है, जो परिवेश से कटे होने के कारण उसे बहुधा उल्टा-पुल्टा लगता है।
अब बात करते हैं राष्ट्रभाषा की। आदर्श परिस्थिति में तो भारत जैसे विविध भाषा-भाषी देश में उच्च शिक्षा, सरकारी कामकाज एवं न्याय सभी भारतीय भाषाओं में ही होने चाहिये और जिस भी भारतीय भाषा में नागरिक यह सुविधा माँगे उसे वह सुविधा मिलनी चाहिये। इससे संपूर्ण देश में विविध भाषा आधारित कितने व्यवसाय और आय के साधन उत्पन्न होंगे यह भी एक सकारात्मक पक्ष है। परंतु यह एक आदर्श स्थिति है। अभी तो इस दिशा में हमने पहला पग भी नहीं बढ़ाया। वे क्षेत्रीय दल जो ‘राष्ट्र भाषा’ को थोपने की बात कर रहे हैं, उन्होंने अपने राज्य में पूर्णरूपेण स्थानीय भाषा में इन कार्यों को करने के लिए कोई पहल की? इसका उत्तर नकारात्मक है जो यह बताता है कि इनकी क्षेत्रीय भाषा को समसामयिक, अद्यतन एवं आयसमर्थ बनाये रखने में कोई रुचि नहीं, राजनीतिक रोटियाँ ही अधिक सेंकनी हैं।
अंग्रेजी
भारत में अंग्रेजी के बिना कुछ भी सम्भव न होने का तर्क एवं अंग्रेजी की वर्तमान स्थिति सरकार की नीतियों के कारण उत्पन्न हुई विकल्पहीनता और हमारी अकर्मण्यता के कारण है। सरकारी कार्यालयों, न्यायपालिका, उच्च शिक्षा, विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं आदि में अंग्रेजी निरन्तर बनी हुई है और कहीं कहीं तो इसका होना अनिवार्य सा ही है। यदि अंग्रेजी को सरकार बलपूर्वक सब संस्थानों से हटा चुकी होती तो स्यात देश की भाषाओं द्वारा उस निर्वात को भरने का प्रयास होता और कोई संपर्क भाषा स्फूर्त उत्पन्न होती। अंग्रेजी का विकल्प न होना ही उसके वर्चस्व का कारण है। किसी भी ऐसे प्रयास को ‘क्षेत्रीय अस्मिता पर संकट’ दिखाकर पटरी से उतार दिया जाता है। वे लोग यह नहीं सोचते कि एक बार एक भारतीय भाषा में किया गया ऐसा प्रयास अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के लिए भी मार्ग खोल देगा।
भारतीय समाज में अंग्रेजी को लेकर यह मिथक बना हुआ है कि इसके बिना निजी और राष्ट्र का विकास भी असंभव है। यदि यह न होती तो भारत में ज्ञान-विज्ञान का विकास नहीं होता, हमारा आई टी उद्योग न चल रहा होता, उससे जुड़े आय के स्रोत साधन न होते।
मेरे विचार से अंग्रेजी भाषा हमारे लिये एक ऐसी दौड़ है जिसमें हम कितना भी प्रयास कर लें, अर्पण कर दें; कभी प्रथम नहीं आ सकते। कारण यह है कि यह हमारा अपना क्रीड़ा प्राङ्गण नहीं है, न ही इस खेल के नियम बनाने का हमें अधिकार है। यदि कभी हम जीतने लगे तो इस खेल के नियंत्रक इसके नियम परिवर्तित कर सकते हैं। क्यों? क्योंकि यह उनकी भाषा है, उनका अधिकार क्षेत्र है। हमारा अधिकार क्षेत्र हमारी भाषाएँ हैं। किसी उच्च पद के लिये यदि तकनीकी दक्षता के साथ अंग्रेजी की अनिवार्यता भी हो तो एक भारतीय और एक अंग्रेज में किसे प्राथमिकता मिलेगी? यह प्रश्न भारत में बैठकर निरर्थक लग सकता है परंतु वे देश जिनकी अपनी भाषा अंग्रेजी है वहाँ का सत्य यह है। इन देशों में उच्च प्रबंधन क्षेत्र (तकनीकी क्षेत्र नहीं) में भारतीय अल्प मिलते हैं, कारण है — संवाद कौशल (communication skill) । किस भाषा का संवाद कौशल? अंग्रेजी का। जिसमें २० में से १९ बार मूल अंग्रेजीभाषी ही चुना जाएगा। कारण वही, मूल भाषा वाला है। इसे ऐसे कल्पना करें कि यदि कभी ऐसी स्थिति बनी कि आपको अंग्रेजी में कोई काम कराने के लिए एक मूल भाषी (इंग्लैंड या अमरीका का व्यक्ति) और एक भारतीय की सेवायें समान मूल्य में मिलें तो आप किसे प्राथमिकता देंगे?
ऐसा नहीं है कि भारत में अंग्रेजी में अंग्रेजी-भाषी जैसी अच्छी पकड़ रखने वाले लोग नहीं हैं। यदि हम शशि थरूर की अंग्रेजी के स्तर को वह स्तर मानें तो पूरे देश में ऐसे कितने लोग होंगे? यह भी देखना चाहिए कि वह और उस स्तर की अंग्रेजी बोलने वाले अधिकांश इंग्लैंड या अमेरिका में ही पढ़े हैं। उससे अधिक महत्व का यह विश्लेषण है कि कुछ लोगों को यह स्तर प्राप्त कराने में देश के शिक्षा तंत्र ने कितने जन और धन के संसाधनों का अपव्यय किया। यदि एक औसत अंग्रेजी दक्षता का स्तर लिया जाए तो भारतीय छात्र की औसत दक्षता का स्तर एक अंग्रेजी मूल भाषी से अल्प होगा। उस औसत स्तर तक पहुँचने के लिये भी भारतीय छात्र को अपेक्षतया बहुत अधिक समय और धन लगाना होता है और अंग्रेजी माध्यम से उच्च शिक्षा होने से अधिक समय अंग्रेजी समझने में जाता है। उसे रचनात्मक विकास के लिए अपेक्षतया अल्प समय मिलता है। स्यात यह भी एक कारण है कि उच्च तकनीकी या विज्ञान के क्षेत्र में मौलिक कार्य भारत में अल्प ही हुए हैं। इसके विपरीत अपनी स्थानीय या भारतीय भाषा में शिक्षा देने से, कार्य करने में अल्प समय और संसाधन लगाकर न केवल उसका औसत स्तर शीघ्र पाया जा सकता है वरन उच्च दक्षता भी प्राप्त की जा सकती है।
अब इससे प्रश्न उठ सकता है कि आजकल इंटरनेट के युग में क्या हम कैंब्रिज, ऑक्सफोर्ड की शिक्षा भारत में सुलभ नहीं करा सकते जिससे भारत में भी अंग्रेजी की दक्षता का औसत स्तर बढ़ाया जा सके? यहाँ मैं अंग्रेजी के अर्थशास्त्र की बात करना चाहूँगा। हमें सदैव यह ही बताया जाता रहा कि अंग्रेजी से हमें जीविका सरलता से मिल जाती है, अत: यह हमारी अर्थव्यवस्था के लिए अत्यावश्यक है। यहाँ मैं बताना चाहूँगा कि अंग्रेजी के लिए हम और हमारी अर्थव्यवस्था क्या मूल्य चुका रही है। लगभग १०-१५ वर्षों से भारतीय विद्यालयों में कैंब्रिज, ऑक्सफोर्ड आदि के पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं। ये पाठ्यक्रम वहाँ बनाये गए हैं और इनके अनुज्ञप्तियों का मूल्य लाखो पाउण्ड या डॉलर प्रतिवर्ष होता है। यह धन हमारी अर्थव्यवस्था से बाहर जाता है। कैंब्रिज, ऑक्सफोर्ड ये पाठ्यक्रम पूरे विश्व में बेचते हैं और भारत उनके लिए बड़ी और स्थिर आय वाला देश है। कारण अंग्रेजी पर हमारी अतिनिर्भरता है। अंग्रेजी सीखकर हम जो धनार्जन करते हैं, उसे धीरे-धीरे गँवाते भी हैं।
अब बात आईटी उद्योग (IT Industry) की सफलता की। यह बात सही है कि प्रारम्भ में भारत को इसका बहुत लाभ मिला परंतु क्या अब यही हमारी समस्या नहीं बनता जा रहा है? मात्र अंग्रेजी के ज्ञान के कारण हमारा आई टी उद्योग अंग्रेजी भाषी देशों में सेवा प्रदाता और निम्न तकनीकी कार्य करने वाले लोगों का आपूर्तिकर्ता बन कर रह गया है। इस कारण उसकी किसी अन्य भाषा के देश में उपस्थिति नगण्य है। अतः इंग्लैंड और अमेरिका की वीजा नीतियों में थोड़े से परिवर्तन की बात सुनकर भी हमारे हाथ पाँव फूल जाते हैं, समाचार पत्र अर्थव्यवस्था पर संकट बताने लगते हैं और सरकार को बहुधा उन देशों की कोई बात न चाहते हुए भी माननी पड़ती है। क्या अब अंग्रेजी के कारण बनी इस अतिनिर्भरता ने हमारे देश की नीतियों को बंधक नहीं बना लिया है? इस विषय पर अध्ययन होना चाहिए और इस स्थिति से बाहर निकलने का प्रयास राष्ट्रीय स्तर पर हमें करना चाहिये।
भविष्य
अब भविष्य को भी देखते हैं। बहुधा लोग कहते हैं कि अंग्रेजी की माँग पूरी करने के लिए शिक्षक बढ़ाओ इससे जीविका के साधन भी बढ़ेंगे। वे मात्र वर्तमान पीढ़ी को देख रहे हैं। उनके पास दूरदृष्टि का अभाव है। वे यह नहीं सोच रहे कि इन शिक्षकों से अंग्रेजी पढ़ने वाले छात्रों की जीविका का क्या होगा? वर्तमान समय में कृत्रिम प्रज्ञान (Artificial Intelligence) पर बहुत तीव्र गति से कार्य हो रहा है। आने वाले २०-३० वर्षों में बहुत से कार्य जो अभी लोग बोल कर करते हैं, उन्हें कम्प्यूटर करने लगेंगे। ये कार्य सर्वप्रथम अंग्रेजी भाषा के ही होंगे इसमें भी कोई संशय नहीं है। बचे खुचे ऐसे कार्यों के लिए मूल अंग्रेजी भाषी को और अधिक प्राथमिकता मिलनी निश्चित ही है। तो हमारे लोग क्या बनेंगे? अंग्रेजी बोलने वाले वेटर? क्या यही इस देश के युवाओं की महत्वाकांक्षा होनी चाहिए? कृत्रिम प्रज्ञान (Artificial Intelligence) पर अभी अधिकांश कार्य अमेरिका और चीन में हो रहा है। गूगल, फेसबुक और अन्य कंपनियाँ हिंदी तथा अन्य भाषाओं में भी यह काम कर रही हैं। क्या हम भारतीयों को यह कार्य स्वयं अपनी भाषाओं के लिए भारत में ही नहीं करना चाहिये, जिससे कि हम भविष्य की पीढ़ियों के लिए उच्च तकनीकी कार्य की जीविका सुलभ सुनिश्चित कर सकें? साथ ही अपनी भाषाओं पर अपना अधिकार क्षेत्र भी नियंत्रित कर सकें, अन्यथा वह हाथ से जाता रहेगा।
अब तक हमने समझा कि कैसे अंग्रेजी विकल्पहीनता के कारण भारत में इतने सशक्त स्थान पर है। इस स्थिति को बनाए रखने में कैसे हमारी सरकारी नीतियाँ और क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ बाधक रहे हैं और इसके कारण क्या हानियाँ हमें एक देश और समाज के रूप में उठानी पड़ रही हैं।
अब बात करते हैं एक राष्ट्र भाषा की, एक ऐसी भाषा जिसमें भारत में प्रत्येक क्षेत्र में अंग्रेजी का स्थान लेने की क्षमता हो, जो सभी अन्य रा भारतीय भाषाओं से जुड़ी हो। जिसमें इस देश की संस्कृति को, नागरिकों की भावनाओं और महत्वाकांक्षाओं को व्यक्त करने की क्षमता हो, साथ ही जो भविष्य के तकनीकी विकास और अन्य क्षेत्रों में योगदान करने में भी सक्षम हो, और जिसमें परिश्रम द्वारा सभी के आगे बढ़ने के समान अवसर हों।
एक विकल्प व समाधान
हिंदी यद्यपि आज अधिकांश भारत के लोगों द्वारा प्रयोग में लाई जाती है परंतु अपने वर्तमान पा(फा)रसी, अरबी और अंग्रेजी शब्द बहुल प्रदूषित रूप में वह अनुपयुक्त है। हिंदी के प्रदूषण की स्थिति आज वैसी ही है जैसी ५-६ वर्षों पूर्व गंगा की थी। वर्तमान रूप में उसके उपयोग से नाश ही अधिक होगा।
एक भाषा जो इन मानदण्डों पर सही उतरती है, वह है संस्कृत। लगभग सभी भारतीय भाषाओं का संस्कृत से अल्प या अधिक सम्बन्ध है। वह भारतीय परिवेश, संस्कृति और अनुभव को व्यक्त करने में सक्षम है। संस्कृत का एक विशाल साहित्य भण्डार तो है ही, साथ ही उसमें गणित, विज्ञान आदि कार्य भी पूर्व में हो चुके हैं। फलतः यह नूतन तकनीकी ज्ञान को अन्य भारतीय भाषाओं में लाने के लिए आधार प्रदान कर सकती है। साथ ही यह नवीन ज्ञान के सृजन और प्रतिपादन में भी सक्षम है। अतः संस्कृत को राजकीय कार्य, उच्च शिक्षा, प्रतियोगी परीक्षा की भाषा के रूप में स्थापित करना चाहिए और एक निश्चित समय सीमा में अंग्रेजी को इस दायित्व से मुक्त करना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य रूप से मातृभाषा में होनी चाहिए और उसके साथ आगे संस्कृत भी पढ़ाई जानी चाहिए। साथ ही संस्कृत में भी प्राथमिक शिक्षा चुनने का विकल्प होना चाहिए। माध्यमिक विद्यालय से एक तीसरी भारतीय भाषा भी पढ़ाने की व्यवस्था होनी चाहिए। अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं को सीखने के लिए भिन्न संस्थान खोले जानें चाहिए जहाँ वे छात्र उन भाषाओं का अध्ययन कर सकें जिनमें उन्हें रुचि है या जो उन्हें अन्य देशों में, विशिष्ट व्यवसायों और व्यापार में सहायता दे सके। विदेशी भाषाओं एवं संस्कृत सहित अन्य भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षित व्यक्तियों का उपयोग ज्ञान के परस्पर सुगम प्रवाह हेतु किया जा सकेगा।
अतः मात्र अंग्रेजी पर देश और समाज के अधिकतम आर्थिक और मानव संसाधन लगाने के स्थान पर संस्कृत को विकल्प के रूप में खड़ा करना चाहिए । यह अन्य भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा और तकनीकी ज्ञान उपलब्ध कराने की दिशा में भी एक महत्त्वपूर्ण सोपान होगा। नीति बनाकर क्रमबद्ध, निश्चित समय सीमा से लागू करके इस लक्ष्य को ५ या कुछ अधिक वर्षों में प्राप्त किया जा सकता है। इस्राइल जैसे देश ऐसा कर चुके हैं।
इसके लिये हमें प्राथमिक शिक्षा में एक स्तर से मातृभाषा के साथ-साथ अनिवार्यतः संस्कृत का समावेश भी करना चाहिये।
विभिन्न सरकारी परीक्षाओं, साक्षात्कार, सामूहिक चर्चा आदि से अंग्रेजी की अनिवार्यता को विराम दे एक निश्चित समय के पश्चात इसे पूर्णतः हटा दिया जाना चाहिये। विभिन्न मंत्रालयों और सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी के साथ-साथ संस्कृत में भी काम किया जाना चाहिये और एक निश्चित समय के पश्चात अंग्रेजी का प्रयोग पूर्णतः रुद्ध कर दिया जाना चाहिये या आवश्यकता पड़ने अथवा विशेष माँग पर ही किया जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषाओं को सीखने के केंद्र विश्वविद्यालयों में खोले जाएँ, जहाँ मात्र अंग्रेजी ही न सिखाई जाये वरन अन्य विदेशी भाषाओं को सीखने के भी अवसर हों जिससे भारतीय न केवल अंग्रेजी भाषी वरन अन्य देशों से भी सम्बन्ध सरलता से स्थापित कर सकें और देश की अंग्रेजी भाषी देशों पर निर्भरता न रहे। इन सबसे अंततः भारत को अपनी भाषाओं में ही जीविका एवं अपनी भाषा में सरकारी तंत्र चलाने की स्वतंत्रता तो मिलेगी ही, साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा योग्य होने के नये आयाम भी उपलब्ध होंगे।