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काशी में चल रहे विकास को ले कर आज कल लोग दो भागों में बँटे हुये हैं, कुछ समर्थन में हैं तो कुछ विरोध में। विकास कार्य जिस विश्वनाथ मन्दिर क्षेत्र में हो रहे हैं, उससे बहुत दूर लंका क्षेत्र में पुनर्निर्माण हेतु एक पुराने भवन को स्वामी द्वारा गिराये जाने एवं नवनर्माण के समय खुदाई के समय मिले अनेक अनगढ़ शिवलिंगों के मिलने से राजनीति तप उठी। विरोधियों ने उन कथित ‘खण्डित’ शिवलिंगों की आराधना करने की माँग कर डाली तथा उसके समर्थन में स्कन्दपुराण से संदर्भ भी दिये। उनका उत्तर देते हुये फेसबुक पर यह लेख दिखा जो कि दर्शाता है कि जनता कुछ बातों से कितनी भावात्मक रूप से जुड़ी हुई है। भाषा सोशल मीडिया वाली ही है, कथ्य पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। इसके प्रकाशन हेतु यूजर से अनुमति ली गयी है। अतिक्रमण हटाने के पश्चात मिले मन्दिर का चित्र भी सोशल मीडिया से लिया गया है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण अब तक ऐसे मिले कुल ४३ मंदिर संरक्षण हेतु चिह्नित कर चुका है। मानचित्र Financial Express से साभार।
Narendra Modi
21.12.2018
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आदरणीय प्रधान जी,
आज आप की प्रशंसा में लिख रहा हूँ, अवश्य पढ़ें।
#काशी पुरानी है। जाने कितनी बार बसी, उजड़ी, बसी।
आक्रान्ताओं को काशी के मन्दिर तोड़ने में विशेष सवाब मिलता था, ऐसा लगता है। मध्यकाल में मुहम्मद गोरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1194 ग्रे, में काशी का प्राय: सर्वनाश ही कर दिया। विश्वेश्वर का मूल मंदिर ध्वस्त कर दिया गया जिस पर रज़िया ने मस्जिद तामीर कराई। वे तोड़ते रहे, हम स्थान परिवर्तन कर बनाते रहे।
इतिहास को, कालखंड को हम बड़े ही भौंड़े ढंग से, सपाट देखने के अभ्यस्त हैं। जब जानेंगे कि ऐबक से आरम्भ कर औरंगजेब द्वारा 2 सितंबर 1669 को मंदिर तोड़ कर ज्ञानवापी मस्जिद में परिवर्तित कर दिये जाने के कालखण्ड की परास 475 वर्षों की थी तो अपनी जीवनशक्ति पर गर्व हो आयेगा !
कुछ समझ में आया कि काशी पौने पाँच सौ वर्षों तक इन राक्षसों को झेलती आस्था को सुरक्षित रखे रही ! कहाँ से आती है ऐसी आस्था?
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अब आगे जो लिखूँगा उस पर पारम्परिकों की भृकुटियाँ तनेंगी तथा मैकालनेमि की उपाधि पुन: मिलनी निश्चित है परंतु व्रात्य कौन जो इन सबसे डर जाये?
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विक्रम की नवीं-दशवीं शताब्दी के स्कन्दपुराण का पूर्ण भाग नेपाल में मिला जिसे नीदरलैण्ड के घ्रोनिञ्जेन विश्वविद्यालय ने छापा। वह लघु है तथा आज उपलब्ध स्कंदपुराण से उसकी सामग्री अत्यल्प ही मिलती है। आगे की कुछ शताब्दियों के अन्य पाठ भी नेपाल से बंगाल तक मिले जिनसे स्कंद के क्रमिक परिवर्द्धन के प्रमाण मिले। 81000 श्लोकों का कहा जाना वाला स्कंद पुराण आज प्राय: एक लाख श्लोकों की संख्या प्राप्त कर चुका है। इस पुराण की परम्परा सबसे जीवंत रही तथा सनातन धर्म को बचाये रखने में इसका बहुत बड़ा योगदान रहा है।
काशी के उपर्युक्त प्रथम ध्वंस के पश्चात कभी इसके #काशीखण्ड के अगस्त्य-स्कन्द संवाद में शिव शिवा के माध्यम से खण्डित एवं असंख्य शिवलिङ्गों को भी पूजनीय बताते हुये उनकी महिमा बताई गई जिससे कि जन सामान्य की आस्था अक्षुण्ण रहे। जिस आनन्दवन में असंख्य शिवलिंगों की बात कही गयी, वह लंका तक विस्तृत वर्तमान बनारस नहीं था।
म्लेच्छ, राक्षसों के उल्लेख तथा कलिकाल में चौदह शिवलिंगों या विशेष लिंगों का अभिजान लुप्त हो जाना आदि भविष्यत काल में लिख कर विशिष्ट पौराणिक शैली में इतिहास को तो सुरक्षित कर ही दिया गया, पीड़ित काशी एवं उसके खण्डित शिवलिगों की महिमा को नवजीवन भी प्रदान किया गया।
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॥ देवदेव उवाच ॥
शृणु देवि परं गुह्यं क्षेत्रेऽस्मिन्मुक्तिकारणम् ॥ इदं विदंति नैवापि ब्रह्मनारायणादयः ॥१९॥
असंख्यातानि लिंगानि पार्वत्यानंदकानने ॥ स्थूलान्यपि च सूक्ष्माणि नानारत्नमयानि च ॥२०॥
नानाधातुमयानीशे दार्षदान्यप्यनेकशः॥ स्वयंभून्यप्यनेकानि देवर्षिस्थापितान्यहो ॥२१॥
सिद्धचारणगंधर्वयक्षरक्षोर्चितान्यपि ॥ असुरोरगमर्त्यैश्चदानवैरप्सरोगणैः॥२२॥
दिग्गजेर्गिरिभिस्तीर्थेर्ऋक्ष वानर किन्नरैः ॥ पतत्रिप्रमुखैर्देवि स्वस्वनामांकितानि वै ॥२३॥
प्रतिष्ठितानि यानीह मुक्तिहेतूनि तान्यपि ॥ अदृश्यान्यपि दृश्यानि दुरवस्थान्यपि प्रिये ॥२४॥
भग्नान्यपि च कालेन तानि पूज्यानि सुंदरि॥ परार्धशतसंख्यानि गणितान्येकदा मया॥२५॥
गंगाभस्यपि तिष्ठंति षष्टिकोटिमितानिहि॥ सिद्धलिंगानि तानीशे तिष्येऽदृश्यत्वमाययुः ॥२६॥
गणनादिवसादवार्ङ्ममभक्तजनैःप्रिये ॥ प्रतिष्ठितानि यानीह तेषां संख्या न विद्यते ॥२७॥
त्वया तु यानि पृष्टानि यैरिदं क्षेत्रमुत्तमम् ॥ तानि लिंगानि वक्ष्यामि मुक्तिहेतूनि सुंदरि ॥२८॥
कलावतीव गोप्यानि भविष्यंति गिरींद्रजे ॥ परं तेषां प्रभावो यः स्वस्वस्थानं न हास्यति ॥२९॥
कलिकल्मषपुष्टा ये ये दुष्टानास्तिकाश्शठाः॥ एतेषां सिद्धलिंगानां ज्ञास्यंत्याख्यामपीह न॥३०॥
नामश्रवणतोपीह यल्लिंगानां शुभानने ॥ वृजिनानि क्षयं यांति वर्धंते पुण्यराशयः॥३१॥
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यास्कमुनि के कहा है, पुरा नवं भवति अर्थात् प्राचीनत्वेऽपि नवीनत्वं पुराणत्वम्। जो पुराने के साथ साथ नया होता रहे, वह पुराण। यास्क आज के नहीं हैं, सहस्राब्दियों पूर्व के निरुक्त संग्रही है जिसके आधार पर वेदों के शब्दार्थ किये जाते हैं।
उतने पुराने समय में भी उनकी दृष्टि कितनी स्पष्ट एवं गतिशील थी ! जो समय के साथ नहीं सुधरते, वे नष्ट हो जाते हैं। बीज, नाभिक बचाया जाता है, आवरण का गूदा समय की माँग के अनुसार परिवर्तित किया जाता रहना चाहिये। तुलसीदास ने मानस रच कर रामायण का भला ही किया कि देसभाषाकथा के रूप में आख्यान जन जन के कण्ठ में सुरक्षित हो गया। जिस काशी में उन्होंने मानस रचा, जिस काशी को उन्होंने रामलीला का जीवंत क्षेत्र बना दिया (जी, लंका बियच्चू वाले क्षेत्र में रामलीला का लंकाकाण्ड होता था।), उसी काशी के कतिपय पण्डे आज सौन्दर्यीकरण एवं उद्धार का विरोध करते हुये हाहाकार कर रहे हैं, ऊपर दिये श्लोक उद्धृत कर भग्न मिले शिवलिंगों पर स्वामित्व जता आराधना के ब्याज से अड़ंगा डालने के उपाय रच रहे हैं तथा विशिष्ट पुरबिया राजनीति के पैटर्न पर आप को गरियाते कांग्रेसी हाथों में खेल रहे हैं। इनकी जड़ता स्पष्ट है। इनके जैसे ही थे जिन्हों ने इसी काशी में तुलसीदास एवं पण्डित जगन्नाथ जैसों का जीना असम्भव कर दिया था तथा उनकी प्रसिद्धि होने पर चमत्कार गाथायें रच कर उनके नाम पर अधिकार भी जता दिया ! चित भी मेरी पट भी मेरी के इस पण्डाचरण के आगे बड़े बड़े ध्वस्त हो गये, आप क्या हैं?
आप चाहे सांसद रहें या न रहें, काशी आप को स्मृति में अवश्य रखेगी कि अहिल्याबाई के पश्चात कोई तो हुआ जिसने काशी में कुछ अधिक सार्थक कर दिखाने का नैष्ठिक उद्योग किया, साहस किया। रही बात भग्न मिलते शिवलिङ्गों की तो वहाँ तो कंकर कंकर शंकर है, पण्डे लोग उन्हें पूजें न, किसने रोका है? शिवलिङ्गों को ले कर राजनीति करते उन्हें लज्जा भी नहीं आती, क्या करेंगे? लगे रहिये। इस देश ने बहुत कुछ देखा सुना एवं सँजो कर रखा है, आप का अवदान भी भुलाया नहीं जायेगा।
(Sanatan Sinh)