इतिहास काल का आख्यान है, गतिशील जबकि भूगोल कुछ सहस्राब्दियों की परास में स्थिर ही रहता है। विशेष भूखण्ड पर रहने वाले लोगों की विशेष प्रकृति होती है, विशेष इतिहास होता है; कहें तो उनकी गढ़न ही विशिष्ट होती है जिसे संस्कृति से समझा जाना चाहिये। भूगोल, जन, संस्कृति व इतिहास मिल कर किसी राष्ट्र का पूर्ण अभिज्ञान प्रस्तुत करते हैं। कहना नहीं होगा कि राष्ट्र की जो अवधारणा भारत की रही है, वह एक निश्चित भूगोल की रही है। आसेतु हिमालय भारत, उसमें रहने वाले लोग भारती।
सहस्राब्दियों की उथल पुथल, बाह्य आक्रमणों, विविध संघर्षों में भारती को बचाये रखने के विविध उपाय किये गये, हम सिकुड़ते चले गये – भूगोल में तथा सांस्कृतिक विस्तार में भी। समुद्र यात्रा का निषिद्ध होना हो या सीमावर्ती प्रांतों में आवास का निषेध हो; इनके मूल में कोई द्वेष नहीं, अपने नाभिक को बचाने का उद्योग मात्र था। आज के ‘विश्वमानव’ की अवधारणा वाले काल के निकष पर उस उद्योग को परखने या उसकी निषेध स्थापनाओं को अब भी यथावत मानने पर विकृतियाँ ही निष्कर्ष रूप में आयेंगी। विश्वमानव की सङ्कल्पना सनातन मार्गी भारतीय जन हेतु कोई नई नहीं है, बहुत पुरानी है तथा जो निषेध आदि दिखते हैं, वे मध्य के समय के हैं।
आधुनिक काल में हम नितांत ही भिन्न प्रकार की विकृति व अन्यक्रामण से साक्षात हैं जो दशकों तक चली व आज भी प्रचलित दूषित शिक्षा पद्धति के कारण है। युवा अपनी ही जड़ों व संस्कृति के द्वेषी हो चले हैं। किञ्चित विद्रोही होना कोई नई बात नहीं है। पुरातन काल से ही युवा वर्ग प्रगति का व नवोन्मेष का पूजक रहा है तथा उसके कारण ही समाज गतिशील रहे हैं, तब भी जब कि स्थविर व वृद्ध उन्हें इस हेतु कोसते भी रहे हैं किंतु आज स्थिति भिन्न है। आज युवाओं की एक बड़ी संख्या हेतु भारत, भारती, संस्कृति आदि हास्यास्पद बातें हो गई हैं। वे इनमें रहते हुये नवोन्मेष नहीं चाहते, वे इन्हें नष्ट कर करना चाहते हैं।
वस्तुत: निर्माण उनकी प्राथमिकता में है ही नहीं, विध्वंस है। ‘हमें चाहिये आजादी’ केवल उत्साही नारा मात्र नहीं, वह भी नहीं जो इसके सिद्धांतकार बताते फेचकुर फेंक देते हैं; यह तीव्र गति से पसर रहे एक घातक रोग का लक्षण है। इस रोग में उत्तरदायित्व का कोई स्थान नहीं, कर्तव्य पिछड़ी सोच है तथा बिना किसी आत्ममंथन के कि हम इस देश से जो इतना ले रहे हैं, कुछ दे भी रहे हैं क्या? केवल अधिकार भाव है, अतिक्रांत सी स्थिति।
नारों के पीछे अराजकता के प्रचार व प्रसार का उद्योग है। भारत को तोड़ने का अभियान अंतरराष्ट्रीयतावाद व देशों की सीमा के अनौचित्य के असम्भव आदर्श के पीछे छिपा दिया गया है। भारती की अवधारणा को ही ध्वस्त कर देने की मानसिकता, दलित, वञ्चित, शोषितों के हित, अनेक भाषाओं व नृवंश विविधता के संरक्षण आदि जैसे बड़े आदर्शों के आवरण में पोषित हो रही है। विविधता का कोलाहल कर एकता का गला घोंटने का काम छात्र राजनीति के ब्याज से किया जा रहा है।
कहना नहीं होगा कि इन सबके कारण जाने कितने बहुमूल्य मानव-दिन व्यर्थ ही जा रहे हैं। जिन्हें आश्रय देने वाले पाँव होना चाहिये था, वे कंधे का बोझ बनते जा रहे हैं। आश्चर्य नहीं कि अकादमिक उत्कृष्टता हो, पेटेण्ट हों या सकल गुणवत्ता; हम भारतीय निरंतर पीछे होते जा रहे हैं। उद्योग प्रबंधन से आप को नवनियोजित युवानों में व्यावसायिकता व कौशल के अभाव की बातें जानने को मिलेंगी। यहाँ तक कि अब तक भारत में अच्छी गुणवत्ता का माने जाने वाले चिकित्सा कर्म के क्षेत्र में भी क्षरण स्पष्ट दिखने लगा है।
वाद विवाद, पक्ष विपक्ष तो अपने स्थान पर रहेंगे, मूर्त सचाई यही है कि हमारे सामान्य युवा आगामी चुनौतियों को सँभाल सकने की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं हो रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि भविष्य में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी स्थिति सुधारने हेतु जिस अतिरिक्त क्षमता की आवश्यकता रहेगी, उसका स्तर छू पाना तो दूर, प्रतियोगिता में हमारे पीछे होते जाने की प्रायिकता बढ़ रही है। भारतीय विश्वविद्यालयों की यह स्थिति है कि प्राय: उत्पातों हेतु ही चर्चित रहने वाला, करदाताओं के धन से विशेष रूप से सुपोषित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अकादमिक उपलब्धियों की दृष्टि से प्रथम हजार में भी स्थान नहीं प्राप्त। ऊपर से यह कि वहाँ के विद्यार्थियों के मन में यह बैठा दिया गया है कि वे वे विशिष्ट हैं जिनका विशेष ध्यान रखना व विशेष सुविधायें देना राष्ट्रीय कर्तव्य है! और उनका राष्ट्र के प्रति कोई कर्तव्य ही नहीं क्योंकि राष्ट्र एक कृत्रिम, बुर्जुवा व मानव आत्मा को कुचलने वाली अवधारणा है, उसका तो नाश होना चाहिये! आदर्शवादी दिखते वाग्जाल के पीछे गर्हित मानसिकता, कर्म व जीवनशैली को छिपाना कोई इनसे सीखे!
काहिली और मुफ्तखोरी के मारे ऐसे युवाओं से तो यह आशा की ही नहीं जा सकती कि उपार्जन कर अध्ययन करेंगे। अनुशासन इन्हें पूँजीवादी व ह्रासशील अवधारणा लगती है जबकि जिस कम्युनिस्ट विचारधारा के रूपों या विद्रूपों के आधार पर यह सब कहा और किया जा रहा है, उसे मानने वाले देशों में अनुशासन का चरम सुनिश्चित किया जाता है। आजादी के नारे लगाना तो दूर की बात है, चूँ तक नहीं कर सकते! पढ़ने आये हो, पढ़ो लिखो। उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्रों और उनसे जुड़े अध्यापकों के कार्य प्रदर्शन की वास्तविक व नियमित कठोर समीक्षायें, दण्ड व पुरस्कार का तंत्र आदि विकसित देशों के शैक्षिक तंत्र के अनिवार्य अङ्ग हैं। भारत में तो लगता ही नहीं कि ऐसा कुछ है।
यह ज्वलंत सत्य है कि बिना अनुशासन, उत्तरदायित्व व ऊर्जा के समुचित प्रयोग के हम भविष्य के विकसित राष्ट्र नहीं हो सकते। समूचे शैक्षिक तंत्र की निर्मम, सुविचारित व सुनियोजित पुन:संरचना आज के समय में भारत की प्रथम प्राथमिकता होनी चाहिये। छात्र राजनीति का सम्पूर्ण उन्मूलन किया जाना चाहिये अन्यथा विखण्डनकारी नक्सली व जिहादी विचारधारा की आग में देश ऐसे ही जलता रहेगा। हम जितना ही समय गँवायेंगे, गुणोत्तर दर से उतने ही पीछे होते जायेंगे। यहाँ भारती नाम विद्या की देवी को दिया गया है, संदेश स्पष्ट है।